[राजीव सचान]। ऐसा कम ही होता है कि किसी संगीन मामले की जांच सीबीआइ को सौंप दिए जाने के बाद भी उसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट भी करे और हाईकोर्ट भी। हाथरस कांड में ऐसा ही हो रहा है। हालांकि अभी इसका फैसला होना शेष है कि सीबीआइ जांच की निगरानी सुप्रीम कोर्ट करेगा या नहीं, लेकिन जब उत्तर प्रदेश सरकार इसके लिए खुद ही पेशकश कर रही है तब फिर ऐसा ही हो तो उचित, ताकि किसी तरह के संदेह की गुंजाइश न रहे और दोषियों को जल्द दंड मिले। जांच की निगरानी सुप्रीम कोर्ट की ओर से किए जाने से ही ऐसे आरोपों के लिए गुंजाइश शेष नहीं रहेगी कि सीबीआइ आखिरकार है तो केंद्र सरकार के ही अधीन।

हाथरस कांड में सही से न्याय न हो पाने या फिर राजनीतिक कारणों से जांच प्रभावित होने के आरोपों के लिए तनिक भी गुंजाइश इसलिए नहीं रखी जानी चाहिए, क्योंकि इस मामले का कुछ ज्यादा ही राजनीतिकरण हो गया है। शायद इसी कारण यह स्थिति बनी कि हाईकोर्ट के साथ सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले की सुनवाई कर रहा है, लेकिन क्या कोई अदालत यह भी सुनिश्चित करेगी कि हाथरस कांड सरीखे जिन मामलों का राजनीतिकरण नहीं हुआ, उनमें भी सही से और समय रहते न्याय हो?

कुछ मामलों की चर्चा जिले से बाहर भी नहीं हो रही

यह सवाल इसलिए कि जिन दिनों विभिन्न दलों और संगठनों के नेता हाथरस की ओर दौड़ लगाए हुए थे, उन्हीं दिनों देश के अनेक हिस्सों से हाथरस कांड जैसे तमाम मामले सामने आए, लेकिन न तो राजनीतिक दलों ने उनकी सुध ली और न ही सामाजिक संगठनों ने। इनमें से कुछ मामले तो कहीं अधिक गंभीर हैं। ऐसे मामले अभी भी सामने आ रहे हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जिनकी चर्चा उस जिले से बाहर भी नहीं हो रही है। इसकी उम्मीद नहीं कि ऐसे मामलों का राजनीतिकरण हुए बगैर कोई जनहित याचिका लेकर उच्चतर न्यायपालिका तक पहुंचेगा। इसकी उम्मीद तो और भी कम है कि न्यायपालिका उनका स्वत: संज्ञान लेगी।

निर्भया के हत्यारों को सजा सुनाए जाने के बाद अमल में हुई देरी

कोई मामला उच्चतर न्यायपालिका के पास पहुंचने का यह भी मतलब नहीं कि उसका निपटारा आननफानन हो जाएगा। निर्भया कांड इसका उदाहरण है। निर्भया के हत्यारों को सुप्रीम कोर्ट की ओर से मौत की सजा सुनाए जाने के बाद भी उनकी सजा पर अमल में देरी हुई। 2012 में इस अपराध को अंजाम देने वालों को निचली अदालत ने 2013 में ही मौत की सजा सुना दी थी, लेकिन उच्चतर न्यायपालिका को अपना काम करने में करीब चार साल लग गए। इसके बाद तीन साल की देरी इसलिए हुई, क्योंकि दोषी और उनके वकील अदालत-अदालत खेलते रहे। 

दुष्कर्म रोधी कानूनों को बनाया गया कठोर

निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म रोधी कानूनों को कठोर भी बनाया गया था, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा। इसमें संदेह है कि हाथरस कांड में न्याय हो जाने के बाद हालात बदलेंगे, क्योंकि सारा जोर तो सरकारों को कठघरे में खड़ा करने या फिर कानूनों को कठोर बनाने पर है। यह तब है जब यह धारणा भी गहरा रही है कि दुष्कर्म रोधी कानून इतने कठोर बना दिए गए हैं कि उनका दुरुपयोग हो रहा है। इन कानूनों के दुरुपयोग की शिकायतों के बाद भी यह एक सच्चाई है कि दुष्कर्म के मामले थम नहीं रहे हैं।

दुष्कर्म के मामलों में नहीं आ रही है कमी

दुष्कर्म के बढ़ते मामलों को लेकर अक्सर यह कहा जाता है कि दरअसल घटनाएं तो पहले भी होती थीं, लेकिन अब उनकी रिपोर्टिंग ज्यादा हो रही है। इसमें सच्चाई हो सकती है, लेकिन इस सच का दूसरा पहलू यह भी तो है कि दुष्कर्म के मामलों में कमी नहीं आ रही है। विडंबना यह है कि इस ओर किसी का ध्यान नहीं कि ऐसा क्यों हो रहा है? दुष्कर्म एक सामाजिक अपराध है, लेकिन उस पर इतनी अधिक राजनीति होने लगी है कि लगता ही नहीं कि इस जुर्म की जड़ें लोगों की सोच में निहित हैं और उसका निदान करने की आवश्यकता है। चूंकि महिलाओं के प्रति लोगों की सोच बदलने की कहीं कोई कोशिश नहीं हो रही है इसलिए हर किसी को यह लगने लगा है कि कानूनों को और कठोर बना दिया जाए तो हालात सुधर सकते हैं। 

कई राज्य बच्चियों से दुष्कर्म के मामलों में मौत की सजा का कर चुके हैं प्रावधान 

हाथरस कांड के बाद महाराष्ट्र सरकार ने कहा है कि वह दुष्कर्म के मामलों से निपटने के लिए उसी तरह का सख्त कानून बनाएगी जैसा आंध्र प्रदेश सरकार बनाने जा रही है। इसके पहले कई राज्य बच्चियों से दुष्कर्म के मामलों में मौत की सजा का प्रावधान कर चुके हैं। इसके बाद भी हालात जस के तस हैं, क्योंकि बच्चियों से दुष्कर्म के मामलों में निचली अदालतों की ओर से मौत की सजा सुनाए जाने के बाद भी ऊंची अदालतों द्वारा उनका निस्तारण करने की गति शिथिल है।

दिव्यांग बच्चों से दुष्कर्म के मामलों में और सख्त कानून बनाने की है जरूरत 

हाथरस कांड के दौरान ही दिव्यांगों के लिए काम करने वाले एक संगठन ने मांग की है कि दिव्यांग बच्चों से दुष्कर्म के मामलों में कानून और सख्त करने की जरूरत है। हो सकता है कि इसकी जरूरत हो, लेकिन आखिर कब तक यह माना जाता रहेगा कि कानूनों को कठोर करते जाने से दुष्कर्म सरीखे संगीन अपराध को रोका जा सकता है। नि:संदेह कठोर कानूनों की एक अहम भूमिका है, लेकिन उन पर अमल भी तो होना चाहिए। इसके साथ ही किसी को यह भी तो सोचना चाहिए कि ऐसा क्या किया जाए, जिससे दुष्कर्म थमें।

निर्भया कांड के बाद यह बार-बार रेखांकित किया गया कि महिलाओं के प्रति पुरुषों की सोच बदलने के लिए भी कुछ करने की जरूरत है और इस जरूरत की पूर्ति घर-परिवार और समाज को करनी होगी। शायद बड़ों का कुछ नहीं किया जा सकता, लेकिन बच्चों को संस्कारित किया जा सकता है। यदि यह काम निर्भया कांड के बाद शुरू कर दिया गया होता तो बीते आठ सालों में महिलाओं के प्रति भावी पीढ़ी के नजरिये को परिष्कृत करने का एक रास्ता तय कर लिया गया होता। अगर इस रास्ते पर नहीं चला गया तो कानून कितने ही कठोर बना दिए जाएं, अपेक्षित नतीजा हासिल होने के आसार कम ही हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)