[ विवेक काटजू ]: वक्त एक तरह से आज खुद अमेरिका को आईना दिखा रहा है। असल में अमेरिका विकासशील देशों की चुनाव प्रक्रियाओं पर सवाल खड़े कर उनकी आलोचना करता रहा है। कई देशों में तो उसने चुनी हुई सरकारों को ही संदिग्ध करार दिया कि उन्होंने जबरन सत्ता हथियाई और वास्तविक विजेता को पराजय का मुंह देखना पड़ा। आज वही अमेरिकी खुद को अजीबोगरीब स्थिति में पा रहा है, जहां निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप शिकायत कर रहे हैं कि उनके साथ चुनाव में धांधली हुई। वह अभी भी चुनाव नतीजों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।

ट्रंप अपनी हार को जीत में बदलने के लिए हरसंभव कानूनी तिकड़म आजमा रहे हैं

हालांकि अमेरिका और शेष विश्व जरूर इन नतीजों को स्वीकृति दे चुका है। वैसे ट्रंप अपनी हार को जीत में बदलने के लिए हरसंभव कानूनी तिकड़म आजमा रहे हैं। उनके वकील विभिन्न राज्यों में मुकदमे दर्ज करा रहे हैं। शुरुआती दौर में इन राज्यों में ट्रंप बढ़त बनाए हुए थे, लेकिन अंत में वे जो बाइडन की झोली में चले गए हैं। साक्ष्यों के अभाव में अदालतें ट्रंप की शिकायतें खारिज कर रही हैं। यानी कानूनी मोर्चे पर भी ट्रंप को कामयाबी नहीं मिलने वाली। इतने पर भी ट्रंप को कोई फर्क पड़ता नहीं दिख रहा और वह पहले से ही विभाजित देश को और विभाजित करने पर तुले हैं।

ट्रंप का रवैया अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख को क्षति पहुंचा रहा

अमेरिकी समाज और अर्थव्यवस्था वैश्वीकरण एवं तकनीकी परिवर्तन से खासे प्रभावित हुए हैं। जिन सामाजिक समूहों को इन परिवर्तनों से लाभ मिला है और जो उदार मूल्यों में विश्वास रखते हैं, वे व्यापक रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी और बाइडन के साथ हैं। वहीं ट्रंप को अमूमन उन परंपरावादी समूहों का समर्थन हासिल है, जो तकनीकी परिवर्तन की बयार में कहीं पीछे छूट गए। इन वर्गों के बीच में भारी कड़वाहट है। चुनाव के बाद होना यही चाहिए था कि अमेरिकी नेता देश को एकजुट करने और निर्वाचित राष्ट्रपति बाइडन का समर्थन करते, परंतु ट्रंप ने ऐसा नहीं होने दिया। ट्रंप का यह रवैया अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय साख को क्षति पहुंचा रहा है। यही कारण है कि ईरान जैसे अमेरिका के विरोधी देशों ने चुनावों का मजाक उड़ाया। कई अन्य देश खुलेआम ऐसी प्रतिक्रिया देने से परहेज करेंगे, क्योंकि वे दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश को कुपित करना नहीं चाहेंगे। जो भी हो, इसमें संदेह नहीं कि यदि अमेरिका अब दूसरे देशों में चुनावों की आलोचना करेगा तो उसे इन चुनावों में ट्रंप की शिकायतों का स्मरण कराया जाएगा।

ट्रंप के कदम से दुनियाभर में बाइडन की विजय पर भ्रम की स्थिति बनी

ट्रंप के ये कदम बाइडन को अपनी टीम बनाने और सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया में देरी की वजह भी बने हैं। इससे दुनियाभर में बाइडन की विजय पर भ्रम की स्थिति बनी, जिससे भारत जैसे तमाम देश प्रभावित हुए। कई नेताओं ने बाइडन को जीत पर शुभकामना संदेश भेजे। यह किसी से छिपा नहीं रहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्रंप से बहुत करीबी रिश्ते रहे। मोदी ने भी बाइडन को बधाई दी। यह बधाई वह थोड़ा और पहले देते तो कहीं बेहतर होता, क्योंकि दो देशों के बीच रिश्ते उनके हितों पर निर्भर करते हैं। नेताओं के आपसी रिश्ते कभी राष्ट्रीय हितों के बराबर महत्वपूर्ण नहीं होते। भारत-चीन रिश्तों के मामले पर भी यह कसौटी सही साबित होती है।

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की पुरानी प्रक्रिया में परिवर्तन आवश्यक

बहरहाल ट्रंप के रुख-रवैये ने एक बार फिर साबित किया कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया पुरानी हो गई है, जिसमें परिवर्तन आवश्यक हो गया है। कई अमेरिकी राजनीति विज्ञानियों ने भी इसकी जरूरत जताई है। आपको जानकार हैरानी हो सकती है कि जनता के अधिक मत पाकर भी वहां कोई प्रत्याशी चुनाव हार सकता है। 2016 में हिलेरी क्लिंटन के साथ यही हुआ। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमेरिका राष्ट्रपति का चुनाव 538 इलेक्टोरल कॉलेज के माध्यम से करता है। ये इलेक्टोरल प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। प्रत्येक अमेरिकी राज्य अपने चुनावी नियमों के अनुरूप अपने कोटे के इलेक्टर्स चुनता है। ये इलेक्टर्स मुख्यत: अपने राज्य में अधिकांश मत पाने वाले प्रत्याशी के पक्ष में ही मतदान करते हैं। इस प्रकार कोई प्रत्याशी देश में अधिक मत प्राप्त करके भी चुनाव में पराजित हो जाता है। हालांकि इस चुनाव में बाइडन को देश भर में ट्रंप से 60 लाख से अधिक मत मिले हैं।

सभी की निगाहें 14 दिसंबर पर टिकी, जब इलेक्टर्स अगले राष्ट्रपति के लिए मतदान करेंगे

अब सभी निगाहें 14 दिसंबर पर टिकी हैं, जब इलेक्टर्स अगले राष्ट्रपति के लिए मतदान करेंगे। अब यह मात्र औपचारिकता ही है, क्योंकि ट्रंप के 232 के मुकाबले बाइडन 306 इलेक्टोरल वोट हासिल कर चुके हैं, जबकि बहुमत का आंकड़ा 270 है। अनुमान है कि 14 दिसंबर तक ट्रंप के सभी कानूनी दावे भी खारिज हो जाएंगे। हालांकि वह शायद अपना राग अलापना जारी रखें। इससे अमेरिका को और शर्मिंदा होना पड़ेगा, जिसकी भरपाई के लिए बाइडन को ही प्रयास करने होंगे।

ट्रंप ने बाइडन को उनकी टीम बनाने में मदद नहीं की

होना तो यही चाहिए था कि ट्रंप प्रशासन बाइडन की जीत के संकेत के साथ ही उन्हें सत्ता हस्तांतरण में मदद करता। यही परंपरा सुनिश्चित करती कि 20 जनवरी को पद्भार संभालने के साथ बाइडन उसी क्षण से कार्य शुरू करते। चूंकि ट्रंप ने हार स्वीकार नहीं की तो उनके प्रशासन ने चुनाव के तीन हफ्ते बाद भी बाइडन को उनकी टीम बनाने में मदद नहीं की। हालांकि बाइडन ने व्हाइट हाउस से लेकर अपने प्रशासन में महत्वपूर्ण पद संभालने वालों के नाम घोषित करने के साथ शुरुआती नीतियों की झलक भी पेश की है। यह बहुत दूरदर्शी कदम है, क्योंकि अमेरिकी सरकार में असमंजस की स्थिति अमेरिका के साथ ही दुनिया के लिए भी अच्छी नहीं है।

अमेरिका में नए राष्ट्रपति को टीम बनाने के लिए ढाई महीनों से अधिक का वक्त मिलता है

अमेरिका में नए राष्ट्रपति को टीम बनाने और प्रारंभिक नीतियों को आकार देने के लिए ढाई महीनों से अधिक का वक्त मिलता है। यह अवधि यही मांग करती है कि मौजूदा और संभावित प्रशासन परस्पर सहयोग करें ताकि अमेरिकी नीतियों में स्थायित्व एवं निरंतरता कायम रहे, जिससे दुनिया में भी कम से कम हलचल हो। इस प्रक्रिया में ट्रंप प्रशासन के रवैये की वजह से देरी हुई, क्योंकि उसने यही दर्शाया कि सत्ता में तो वही रहेगा। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो का चुनाव बाद सात देशों का दौरा यही जाहिर करता है। वह ट्रंप की विदेश नीतियों को ही आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे में वह बाइडन प्रशासन के लिए मुश्किल विरासत छोड़ेंगे।

बाइडन भी भारत-अमेरिका के प्रगाढ़ संबंधों पर लगाएंगे मुहर

चुनाव से ठीक पहले पोंपियो और अमेरिकी रक्षा मंत्री एस्पर भारत में अपने समकक्षों के साथ टू प्लस टू वार्ता के लिए आए तो भारत को भी कुछ असहजता से दो-चार होना पड़ा। उस दौरे में सामरिक एवं रक्षा सहयोग से जुड़े अहम समझौते हुए। चूंकि अमेरिकी राजनीतिक बिरादरी में भारत-अमेरिका के बीच प्रगाढ़ संबंधों के लिए व्यापक समर्थन है तो आशा है कि बाइडन भी इन समझौतों पर मुहर लगाएंगे। हालांकि मानवाधिकार जैसे कई मसलों पर बाइडन के तेवर ट्रंप से अलग होंगे, जहां भारतीय कूटनीति को कड़ी परीक्षा का सामना करना होगा।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)