[ शशांक द्विवेदी ]: गत दिवस इसरो द्वारा सफलतापूर्वक प्रक्षेपित चंद्रयान-2 इतिहास रचने से सिर्फ दो कदम पहले तब चूक गया जब उसके लैंडर-विक्रम से संपर्क टूट गया। चूंकि इसके पहले चंद्रयान-2 ने करीब 15 बड़ी बाधाओं को सफलतापूर्वक पार कर लिया था इसलिए उसके पूरी तरह से सफल होने की उम्मीद बढ़ गई थी। ऐसा न हो पाने के कारण देश में एक मायूसी सी है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि चंद्रयान-2 का ऑर्बिटर अभी भी काम कर रहा है। इसकी अवधि एक साल है और इस दौरान वह बहुत सारी उपयोगी जानकारियां दे सकता है।

भारत दुनिया का पहला देश बन जाता, यदि सब कुछ ठीक रहता

अगर सब कुछ ठीक रहता तो भारत दुनिया का पहला देश बन जाता जिसका अंतरिक्षयान चंद्रमा की सतह के दक्षिणी ध्रुव पर उतरता। इससे पहले अमेरिका, रूस और चीन चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैैंडिंग करा चुके हैैं, लेकिन दक्षिणी ध्रुव पर नहीं, क्योंकि उस पर लैैंडिंग जटिल है। स्पष्ट है कि भारत ने अपने लिए कठिन लक्ष्य चुना था और ऐसा इसलिए किया था ताकि नई जानकारियां सामने आ सकें। वास्तव में इसी कारण चंद्रयान अभियान पर दुनिया भर की निगाहें लगी थीं।

दक्षिणी ध्रुव बड़ी चुनौती थी

भारत वह करने जा रहा था जो अब तक और कोई नहीं कर पाया। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव की पथरीली जमीन सॉफ्ट लैंडिंग के लिए बड़ी चुनौती थी। लैंडर विक्रम को दो खड्डों के बीच सॉफ्ट लैंडिंग की जगह तलाशनी थी। इसी कारण यह एक कठिन लक्ष्य माना जा रहा था। हालांकि चंद्रयान-2 का कठिन लक्ष्य चंद्रमा की सतह से 2.1 किलोमीटर दूर रह गया, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह मिशन नाकाम रहा, क्योंकि ऑर्बिटर चंद्रमा की कक्षा में अपना काम सही तरह कर रहा है। यह भी उल्लेखनीय है कि चंद्रयान-2 का ऑर्बिटर चंद्रयान-1 के ऑर्बिटर से कहीं अधिक आधुनिक उपकरणों से लैस है।

चंद्रयान-2 की नाकामी पर पाक नेता खुश

अंतरिक्ष अभियानों का अनुभव यही कहता है कि इसमें प्रत्येक प्रयोग सफल नहीं होता। पाकिस्तान के उन नेताओं पर तरस ही खाया जा सकता है जो चंद्रयान-2 की आंशिक नाकामी पर खुश हो रहे हैैं। ऐसे ज्ञान और विज्ञान विरोधी लोगों के रवैये के बीच भारतीय प्रधानमंत्री जिस तरह इसरो के वैज्ञानिकों के साथ खड़े हुए वह एक मिसाल है। उन्होंने वही किया जो नेतृत्व देने वालों को करना चाहिए।

ज्यादातर मून मिशन सफल नहीं हुए

यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अमेरिका के अपोलो मिशन सहित ज्यादातर मून मिशन की लैंडिंग चंद्रमा के मध्य में की गई थी और चीन का मून मिशन भी चंद्रमा के आसान समझे जाने वाले उत्तरी ध्रुव पर केंद्रित था। रूस ने 1958 से 1976 के बीच करीब 33 मिशन चांद की तरफ रवाना किए। इनमें से 26 अपनी मंजिल नहीं पा सके। इसी तरह 1958 से 1972 तक अमेरिका के 31 मिशनों में से 17 नाकाम रहे। अमेरिका ने 1969 से 1972 के बीच छह मानव मिशन भी भेजे। इनमें 24 अंतरिक्ष यात्री चांद के करीब पहुंच गए, लेकिन सिर्फ 12 ही चांद की जमीन पर उतर पाए। इसके अलावा इसी साल अप्रैल में इजरायल का भी चंद्र मिशन अधूरा रह गया था। इजरायल का यह मिशन चंद्रमा की कक्षा तक तो पहुंच गया, लेकिन 10 किलोमीटर दूर रहते ही पृथ्वी से उसका संपर्क टूट गया।

ऑर्बिटर अब भी चंद्रमा की कक्षा में घूम रहा है

चूंकि चंद्रयान-2 को मंजिल के करीब ले जाने वाला ऑर्बिटर अब भी चंद्रमा की कक्षा में घूम रहा है इसलिए हमारे वैज्ञानिकों को इंतजार है उससे मिलने वाली तस्वीरों का ताकि आखिरी 15 मिनट का विश्लेषण मुमकिन हो सके। इस विश्लेषण से यह जानने में आसानी होगी कि अंतिम समय में कहां क्या गड़बड़ी हुई? यह विश्लेषण भविष्य की चुनौतियों का सामना करने और साथ ही वैज्ञानिकों के अनुभव को और समृद्ध करने वाला साबित होगा।

इसरो के वैज्ञानिक हर चुनौती का सामना करने में सक्षम

चंद्रयान-2 अंतरिक्ष यान में तीन खंड थे -ऑर्बिटर (2,379 किलोग्राम, आठ पेलोड), लैैंडर विक्रम (1,471 किलोग्राम, चार पेलोड) और रोवर प्रज्ञान (27 किलोग्राम, दो पेलोड)। लैंडर विक्रम और रोवर प्रज्ञान की संभावित नाकामी के बावजूद यह महत्वपूर्ण है कि चंद्रमा का सफलतापूर्वक चक्कर काट रहा ऑर्बिटर लैंडर विक्रम की तस्वीरें भी भेज सकता है। अगर ऐसा होता है तो यह चंद्रयान-2 अभियान को एक हद तक सफल ही साबित करेगा। उम्मीद यह भी है कि विक्रम से संपर्क कायम करने में सफलता मिल जाए। इन उम्मीदों के साथ देश को यह भरोसा तो होना ही चाहिए कि इसरो के वैज्ञानिक हर चुनौती का सामना करने में सक्षम हैैं।

( लेखक टेक्निकल टुडे के संपादक हैं )