[ सी उदयभास्कर ]: भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान में घुसकर जैश-ए-मुहम्मद के बालाकोट स्थित आतंकी ठिकानों पर हवाई हमला किया। अफसोस की बात है कि 26 फरवरी को हुई यह कार्रवाई अनावश्यक राजनीतिक विवादों में फंस गई। मामला इतना खिंच गया कि वायु सेना प्रमुख बीएस धनोआ को प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर कहना पड़ा कि बालाकोट ऑपरेशन पूरी तरह सफल रहा। हालांकि सोशल मीडिया में शुरुआती तौर पर किया जा रहा दावा सही नहीं साबित हुआ कि इस हमले में करीब 300 आतंकी मारे गए। देश में फर्जी खबरों की बीमारी हाल के वर्षों में एक महामारी के रूप में उभरी है। इसने राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसलों को भी नहीं बख्शा।

आगामी चुनावों में फायदा उठाने के लिए तथ्यों को सुविधाजनक रूप से तोड़-मरोड़कर तैयार की गई चाशनी असल में घरेलू विमर्श का जायका बिगाड़ रही है। ऐसे परिदृश्य में पुलवामा आतंकी हमले और उसके बाद के घटनाक्रम का निष्पक्ष विश्लेषण आवश्यक है। सीआरपीएफ के काफिले पर 14 फरवरी को आतंकी हमला हुआ। इसके जवाब में 26 फरवरी को भारतीय वायुसेना ने बालाकोट में हवाई हमला किया। उसके अगले ही दिन पाकिस्तानी कार्रवाई में हमारा एक मिग-21 पाक सीमा में जा गिरा और विंग कमांडर अभिनंदन को पाकिस्तानी फौज ने बंधक बना लिया। एक मार्च को पाकिस्तान ने उन्हें भारत को सौंप दिया। यह 1990 के दशक से भारत पर थोपे गए छद्म युद्ध के लंबे पड़ाव की एक परिणति रही जब कश्मीर घाटी में मजहबी चरमपंथ की पहली लहर में कश्मीरी पंडितों को वहां से बेदखल कर दिया गया था।

पुलवामा-बालाकोट-अभिनंदन घटनाक्रम में कई परतें जुड़ी हुई हैं जिनके राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से गंभीर निहितार्थ हैं। विशेषकर ऐसे वक्त में जब भारत जिहादी आतंक की जटिल चुनौती से जूझने की दिशा में अपनी रणनीति की समीक्षा कर उसे दुरुस्त करने की दिशा में बढ़ रहा है। आतंक की यह विषबेल 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले के बाद से और जहरीली होती गई है। मुंबई आतंकी हमलों में इसने अपना फन फिर से उठाया और अब पुलवामा में इसका दुस्साहस फिर से जाहिर हुआ। इसका तात्कालिक नतीजा यही निकलता है कि जम्मू-कश्मीर में आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर हालात तल्ख हो गए हैैं। वहां लश्करे तैयबा के दो आतंकियों के खिलाफ एक मुठभेड़ 56 घंटे तक चली। इसमें जो दो आतंकी मारे गए उनमें से एक की पहचान पाकिस्तानी नागरिक के तौर पर भी हुई, लेकिन इसमें भारत को पांच सुरक्षाकर्मी गंवाने पड़े। इनमें तीन सीआरपीएफ और दो जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवान थे।

27 फरवरी से 2 मार्च के बीच चार दिनों के दौरान संघर्षविराम उल्लंघन के 43 मामले सामने आए। सुरक्षा परिदृश्य के समक्ष उत्पन्न यह चुनौती दर्शाती है कि बालाकोट हमले के तुरंत बाद सीमापार से घुसपैठ के मामलों में कोई कमी नहीं आई। ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि बालाकोट हमले के प्रभाव, दुश्मन से भिड़ंत में मिग-21 विमान को गंवाने और पायलट की वापसी को किस नजरिये से देखा जाए और भविष्य में इसके क्या आसार दिखते हैं जब भारत में लोकसभा चुनाव दस्तक देने जा रहे हैं।

बालाकोट का अपना प्रतीकात्मक महत्व है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि प्रधानमंत्री मोदी के शासन में भारत आतंक विरोधी अभियान में वायुसेना का भी इस्तेमाल कर सकता है। इससे यह भी साफ हो गया है कि ऐसी घटनाओं से सैन्य तनाव भी स्वाभाविक रूप से चरम पर पहुंच सकता है। बालाकोट हमले के कुछ दिन बाद यह बात भी सामने आई कि भारतीय लड़ाकू विमानों ने पाकिस्तान के भीतर तक घुसने के बजाय नियंत्रण रेखा पर भारतीय सीमा से ही हमले को अंजाम दिया। यह इसका संकेत है कि अपनी वायु शक्ति के इस्तेमाल में भारत दूरदर्शिता और एहतियात के साथ संयम का भी परिचय देगा। बालाकोट हमले से दुश्मन को कितना नुकसान पहुंचा, इस पर अभी बहस जारी है।

मिसाल के तौर पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने भी कुछ संदेह जाहिर किए हैं, परंतु इसका सामरिक संदेश यही है कि पाकिस्तान के भीतर आतंकी ढांचों को ध्वस्त करने के लिए भारत ने स्वयं द्वारा खींची गई ‘लक्ष्मण रेखा’ को लांघा है। बालाकोट हवाई हमले का सबसे बड़ा संदेश यही है। दिल्ली ने दर्शा दिया है कि वह किसी भी तरह के संघर्ष की स्थिति में अपनी वायुसेना के इस्तेमाल से हिचक नहीं दिखाएगी। इसका उपयोग किस तरह करना है, यह परिस्थिति और अभियान की प्रकृति के हिसाब से तय किया जाएगा। भारतीय हमले के बाद पाकिस्तानी कार्रवाई पर कोई हैरानी नहीं हुई।

पाकिस्तानी वायु सेना ने अगले दिन ही जम्मू-कश्मीर में भारतीय सैन्य प्रतिष्ठानों को निशाना बनाने का दुस्साहस किया। इसमें भारत को एक मिग-21 विमान गंवाना पड़ा और उसमें सवार पायलट अभिनंदन को पाकिस्तान ने बंधक बना लिया। यह घटनाक्रम बेहद महत्वपूर्ण है। यह प्रशंसनीय है कि 1960 के दशक का बना पुराना मिग-21 एफ-16 जैसे अत्याधुनिक विमान से लोहा ले सकता है, लेकिन यह भारतीय वायु सेना के पास अत्याधुनिक उपकरणों की भारी कमी की त्रासद स्थिति की ओर भी इशारा करता है। वायुसेना लड़ाकू विमानों की भारी कमी से जूझ रही है।

अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में उसे 126 विमानों की जरूरत थी जो अब बढ़कर 200 का आंकड़ा पार कर चुकी है। अफसोस की बात यह है कि वायुसेना के बेड़े में विमानों का शामिल होना अभी भी शेष है। केवल वायुसेना ही पिछड़ी हुई नहीं है। सेना और नौसेना के अलावा अर्धसैनिक बल और जम्मू-कश्मीर पुलिस को भी अत्याधुनिक हथियारों और आधुनिकीकरण की तत्काल जरूरत है। राफेल पर हो रही सियासी धींगामुश्ती बेहद दुखद है। यह यही दर्शाती है कि घरेलू राजनीति में राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ कैसे समझौते किए जाते हैं।

बालाकोट हमले की आखिरी कड़ी विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान की सकुशल स्वदेश वापसी से जुड़ी हुई है। इस मुद्दे पर पूरे देश में भावनाओं का ज्वार उमड़ आया। अगर राष्ट्र की चेतना के लिए पुलवामा हमला ‘निर्भया’ मामले के माफिक था तो यह बहादुर पायलट अद्भुत शौर्य का प्रतीक बना। इन उमड़ती भावनाओं के दुखद पहलुओं से जुड़े वाकये भी देखने को मिले। जैसे कर्नाटक में एक प्राध्यापक को एबीवीपी कार्यकर्ताओं ने घुटनों के बल झुककर माफी मांगने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि उसकी एक पोस्ट उन्हें भारत विरोधी लगी थी।

भारतीय राष्ट्रवाद अब दूसरों पर जबरन लादी जाने वाली भावना बन गई है जिसका खाका दक्षिणपंथ से जुड़े शरारती तत्वों द्वारा खींचा जा रहा है। निश्चित रूप से ये वैसे लोकतांत्रिक मूल्य नहीं जिनसे भारत की पहचान जुड़ी है या जिनके लिए सैनिक अपनी जान की बाजी लगा देता है। पुलवामा-बालाकोट-अभिनंदन से जुड़े घटनाचक्र में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कई संदेश निहित हैं। उनकी समुचित समीक्षा कर उनके दीर्घावधिक संभावित परिणामों के अनुकूल रणनीति बनाने की दरकार है। बालाकोट उस छद्म युद्ध के खिलाफ एक नए अध्याय की शुरुआत हो सकता है जिससे भारत 1990 के दशक से ही जूझ रहा है।

( लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ और सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं )