[ संजय गुप्त ]: केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच जैसा अप्रत्याशित और अवांछित आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ और इसी क्रम में एक ने दूसरे पर एफआइआर तक दर्ज कराई उससे देश की मुख्य जांच एजेंसी के रूप में सीबीआइ की साख को जबरदस्त धक्का पहुंचा है। इन दोनों शीर्ष अफसरों ने एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए जिस तरह मोर्चा खोला वैसा इसके पहले कभी नहीं हुआ। इस शर्मनाक झगड़े ने न केवल यह बताया कि सीबीआइ में सब कुछ सही नहीं, बल्कि यह भी जाहिर किया कि जो गलत हो रहा था उसमें अन्य एजेंसियों के लोग भी शामिल थे।

निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच खटपट तभी से चली आ रही है जबसे अस्थाना सीबीआइ में विशेष निदेशक बने। आलोक वर्मा अस्थाना के चरित्र को संदिग्ध बताते थे। उनका यह भी आरोप था कि अस्थाना ने मीट कारोबारी मोईन कुरैशी के मामले की जांच करते हुए रिश्वत ली। इसके जवाब में अस्थाना का आरोप यह था कि खुद वर्मा ने रिश्वत ली है और उन्होंने कई अन्य मामलों की जांच को प्रभावित किया है। वर्मा ने जब अस्थाना के खिलाफ एफआइआर दर्ज करा दी तो आम जनता के साथ ही केंद्र सरकार भी सकते में आ गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोनों अफसरों को झगड़ा सुलझाने की सलाह दी, लेकिन बात बनने के बजाय और बिगड़ती दिखी, क्योंकि अस्थाना अपने खिलाफ दर्ज एफआइआर रद कराने दिल्ली उच्च न्यायालय चले गए। आखिरकार सरकार ने दोनों अफसरों को काम से मुक्त करने का फैसला किया। विपक्ष को सरकार की यह कार्रवाई रास नहीं आई। वह सरकार को घेरने में जुट गया।

सरकार ने सीबीआइ विवाद में अपनी कार्रवाई पर विपक्ष को हमलावर होने का मौका एक तरह से खुद दिया। पहले तो वह अफसरों के झगड़े से दूर बनी रही और फिर जब वह बेलगाम हो गया तो आधी रात को कार्मिक विभाग के अफसरों को बुलाकर सीबीआइ के दोनों अधिकारियों को कार्यमुफ्त करने के आदेश जारी किए। आखिर यह काम रात में करने की क्या जरूरत थी? आखिर इतनी जल्दबाजी क्यों दिखाई गई? क्या वह कुछ छिपाना चाह रही थी, जो सुबह तक इंतजार नहीं कर सकी? ऐसे सवालों की वजह से सरकार की नीयत को लेकर संदेह उभरे और उनके आधार पर ही विपक्ष को उसके खिलाफ हमलावर होने का मौका भी मिला।

देखा जाए तो सरकार ने एक तरह से बैठे-ठाले राजनीतिक मुसीबत मोल ले ली। यह मुसीबत इस दलील के बावजूद बढ़ी कि दोनों अधिकारियों को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की पहल पर कार्यमुक्त किया गया है। इस पूरे मामले में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि राकेश अस्थाना सरकार की पहल पर और निदेशक आलोक वर्मा की आपत्ति के बावजूद सीबीआइ में विशेष निदेशक बने थे। हालांकि खुद को छुट्टी पर भेजे जाने के फैसले के खिलाफ आलोक वर्मा के सुप्रीम कोर्ट जाने से सरकार की मुसीबत बढ़ती दिखी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कोई राहत नहीं दी।

जिस समय राहुल गांधी सरकार के खिलाफ सीबीआइ मुख्यालय के बाहर धरना देते हुए आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने पर आपत्ति जता रहे थे लगभग उसी समय सुप्रीम कोर्ट ने सीवीसी को आदेश दिया कि वह वर्मा पर लगे आरोपों की जांच दो हफ्ते में पूरी करे। खास बात यह रही कि उसने इस जांच की निगरानी एक सेवानिवृत जज को सौंपी। इसी के साथ उसने सरकार की ओर से नियुक्त सीबीआइ के अंतरिम निदेशक को बड़े नीतिगत फैसले लेने से भी बचने को कहा। यह स्वाभाविक ही है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सीबीआइ अफसरों के विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सकारात्मक और सरकार की मंशा के अनुकूल बताया।

सीबीआइ मुख्यालय पर धरना देते हुए राहुल गांधी ने राफेल राग अलापते हुए यह भी कहा कि आलोक वर्मा को इसलिए कार्यमुक्त किया गया, क्योंकि वह राफेल मामले की जांच शुरू करने वाले थे। एक तो इसके कहीं कोई संकेत नहीं और दूसरे यदि यह मान भी लिया जाए कि वर्मा की ऐसी कोई तैयारी थी तो सवाल यह उठेगा कि आखिर यह बात राहुल गांधी को कैसे पता चली? क्या आलोक वर्मा उन्हें यह बताते रहते थे कि वह किस मामले में क्या करने की सोच रहे हैैं? राहुल गांधी झूठ के सहारे एक अहम रक्षा सौदे का जिस तरह राजनीतिकरण कर रहे हैैं वह राष्ट्रीय हित की अनदेखी के अलावा और कुछ नहीं। यह समझ आता है कि सरकार के किसी फैसले को विपक्ष अपनी नजर से देखे और उससे असहमति जताए, लेकिन राष्ट्रीय महत्व के मसलों पर बेतुके बयान देने को राजनीति नहीं कहा जा सकता।

यह ठीक है कि सरकार ने सीबीआइ विवाद में फैसला करते समय हड़बड़ी दिखाई, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि विपक्ष इस बहाने आम जनता को बरगलाने का काम करे। समझना कठिन है कि सीबीआइ अफसरों में विवाद को राफेल सौदे से जोड़ने की क्या जरूरत थी?

सीबीआइ के दोनों शीर्ष अफसरों को छुट्टी पर भेजे जाने के सरकार के निर्णय का विरोध करते हुए राहुल गांधी ने इस शीर्ष जांच एजेंसी के राजनीतिक इस्तेमाल का भी आरोप लगाया। हैरानी है कि ऐसा आरोप वह राहुल लगा रहे हैैं जिनकी सरकार यानी संप्रग शासन के समय सीबीआइ को पिंजरे में कैद तोता कहा गया। ऐसा इसलिए कहा गया, क्योंकि तत्कालीन सीबीआइ निदेशक कोयला घोेटाले की गोपनीय रपट में सरकार द्वारा छेड़छाड़ किए जाने के दौरान मूक दर्शक बने हुए थे। यह वह रपट थी जिसे सीधे सुप्रीम कोर्ट को सौंपा जाना था। राहुल गांधी को इससे भी परिचित होना चाहिए कि संप्रग शासन में मुलायम सिंह और मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति की जांच के मामले में सीबीआइ का किस तरह जमकर राजनीतिक इस्तेमाल किया गया। सीबीआइ का राजनीतिक इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। देश की इस शीर्ष जांच एजेंसी की स्वायत्तता के तमाम दावों के बावजूद सच यह है कि वह राजनीतिक दबाव से मुक्त नहीं।

राहुल और अन्य विपक्षी नेता सरकार की कार्रवाई पर आपत्ति जताने को स्वतंत्र हैैं, लेकिन जब सीबीआइ सरीखी संस्था के दो शीर्ष अफसर आपस में लड़ रहे हों तब कोई भी सरकार चुप नहीं बैठ सकती। सरकार ने तभी हस्तक्षेप किया जब पानी सिर के ऊपर से बहने लगा था। यह बात और है कि आधी रात को कार्रवाई करने के कारण वह खुद कई सवालों से घिर गई। सीबीआइ एक स्वायत्त एजेंसी अवश्य है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह सरकार से परे है।

निदेशक और विशेष निदेशक के खुले झगड़े के कारण सीबीआइ में जैसी स्थितियां उत्पन्न हो गई थीं उन्हें देखते हुए सरकार के लिए हस्तक्षेप करना आवश्यक हो गया था, लेकिन अब उससे यह भी अपेक्षित है कि वह सीबीआइ की साख बहाली के लिए हर संभव उपाय करे। उसे ऐसी व्यवस्था भी करनी होगी जिससे यह संस्था फिर कभी अफसरों की आपसी कलह का शिकार न बनने पाए।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]