[ संजय गुप्त ]: पिछले दिनों सारधा चिटफंड घोटाले में सुबूत मिटाने-छिपाने के आरोपों से घिरे कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ करने की सीबीआइ की कोशिश के दौरान जैसा हंगामा और तमाशा हुआ उससे पश्चिम बंगाल पुलिस के साथ ही देश की शीर्ष जांच एजेंसी सीबीआइ की भी फजीहत ही हुई। इस शर्मनाक घटनाक्रम से बचा जाना चाहिए था। कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से सीबीआइ की पूछताछ की कोशिश के दौरान हुए तमाशे का जैसा राजनीतिकरण हुआ वह भी बहुत बेहद अरुचिकर रहा। एक ओर जहां पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता के पुलिस आयुक्त की जमकर तारीफ करते हुए केंद्र सरकार पर यह आरोप लगाया कि वह सीबीआइ के जरिये उन्हें परेशान करना चाह रही है वहीं केंद्र सरकार और भाजपा ने उन पर यह आरोप मढ़ा कि वह सीबीआइ की जांच रोकने के लिए अपने संवैधानिक दायरे का उल्लंघन कर रही हैैं।

ममता बनर्जी सीबीआइ अधिकारियों को अपनी पुलिस के हाथों बंधक बनाने के बाद जिस तरह धरने पर बैठीं वह अभूतपूर्व रहा। इसके पहले शायद ही कभी किसी राज्य की पुलिस ने सीबीआइ अफसरों को बंधक बनाया हो। इससे भी अधिक हैरानी की बात यह रही कि बंगाल पुलिस की इस अतिवादी हरकत और धरने पर बैठीं ममता बनर्जी का अधिकांश विपक्षी दलों ने समर्थन करने में देर नहीं लगाई। यह समर्थन केवल इसीलिए किया गया ताकि खुद को मोदी सरकार के खिलाफ दिखाया जा सके। इस सबसे संघीय ढांचे की एक बेहद खराब तस्वीर सामने आई। यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि यह तस्वीर तब सामने आई जब भाजपा नेताओं की रैलियों को लेकर मोदी और ममता सरकार के बीच तनातनी जारी थी।

यह समझ आता है कि सारधा घोटाले की जांच के क्रम में सीबीआइ कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ करना चाह रही थी, लेकिन सवाल यह है कि आखिर बीते चार सालों में यह पूछताछ क्यों नहीं हो सकी? यह पहली बार नहीं जब सीबीआइ के राजनीतिक इस्तेमाल का आरोप उछला हो। इस तरह के आरोप तब भी उछलते थे जब मनमोहन सरकार थी। ऐसे आरोपों के बीच इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि कोलकाता पुलिस आयुक्त ने सीबीआइ के उन नोटिस का संज्ञान नहीं लिया जोे उन्हें जांच में शामिल होने के लिए भेजे गए थे। सीबीआइ अधिकारी जब उनसे पूछताछ करने पहुंचे तब तक ऐसा माहौल बना दिया गया कि वह उन्हें गिरफ्तार कर सकती है।

जहां सीबीआइ यह दावा कर रही थी कि पुलिस आयुक्त राजीव कुमार लापता हैं वहीं बंगाल सरकार कह रही थी कि वह फिलहाल छुट्टी पर हैैं। पता नहीं सच क्या था, लेकिन यह तो एक तथ्य ही है कि सीबीआइ सारधा और रोज वैली चिटफंड कंपनियों की ओर से किए गए हजारों करोड़ रुपये के घोटाले की जांच सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कर रही है। इन दोनों घोटालों में आम लोगों के करीब 20 हजार करोड़ रुपये का गबन हुआ है। इन घोटालों की जांच में तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं से पूछताछ की जा चुकी है। कुछ को गिरफ्तार भी किया जा चुका है।

एक समय सारधा घोटाले की जांच कोलकाता के मौजूदा पुलिस आयुक्त राजीव कुमार ने विशेष जांच दल के प्रमुख के तौर पर की थी। सीबीआइ की मानें तो वह सारधा घोटाले के कुछ अहम सुबूत छिपाए हुए हैैं और इसी सिलसिले में उनसे पूछताछ आवश्यक है। इसके विपरीत ममता बनर्जी उन्हें काबिल अफसर बताकर उन्हें सीबीआइ जांच से बचाती दिख रही थीं। आखिरकार जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो उसने राजीव कुमार की गिरफ्तारी पर तो रोक लगा दी, लेकिन उन्हें सीबीआइ के शिलांग दफ्तर में पेश होने को कहा। इस फैसले को सीबीआइ और बंगाल सरकार अपनी-अपनी जीत बता रही हैं, लेकिन अगर गौर से देखें तो यही दिखेगा कि इस फैसले से ममता सरकार की किरकिरी हुई। शायद यही कारण रहा कि ममता बनर्जी धरना खत्म करने को बाध्य हुईं।

यह समय ही बताएगा कि सारधा घोटाले में तृणमूल नेताओं की संलिप्तता है या नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि इतने बड़े घोटाले राजनीतिक संरक्षण से ही होते हैैं। आवश्यकता केवल यह पता लगाने की ही नहीं है कि सारधा या फिर रोज वैली कंपनियों के संचालकों को किस हद तक किन नेताओं का राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था, बल्कि इसकी भी है कि क्या उन्हें पुलिस अधिकारियों का भी संरक्षण प्राप्त था? इसकी तह तक जाना इसलिए जरूरी है, क्योंकि ममता बनर्जी कोलकाता के पुलिस आयुक्त का उस तरह बचाव कर रही हैैं जैसे वह तृणमूल कांग्रेस के पदाधिकारी हों। समझना कठिन है कि वह और साथ ही चार अन्य पुलिस अधिकारी ममता के साथ धरने पर क्यों बैठे?

हैरत नहीं कि केंद्रीय गृह मंत्रालय यह चाह रहा है कि पश्चिम बंगाल सरकार कोलकाता पुलिस आयुक्त के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करे, लेकिन इसके आसार कम ही हैं कि राज्य सरकार ऐसा कुछ करेगी, क्योंकि ममता बनर्जी उनका बचाव करने को लेकर अडिग दिख रही हैैं। यह तो पुलिस का खुला राजनीतिकरण ही है। पता नहीं इस मामले में आगे क्या होता है, लेकिन पुलिस का इस हद तक राजनीतिकरण ठीक नहीं कि उसके वरिष्ठ अधिकारी मुख्यमंत्री के साथ धरने पर बैठें। नि:संदेह यह भी ठीक नहीं कि सीबीआइ इस तरह के आरोपों से घिरी रहे कि उसका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे आरोप लगने से उसकी साख को चोट ही पहुंचती है।

पता नहीं सारधा घोटाले का सच क्या है, लेकिन यह अजीब है कि अपने देश में विशिष्ट व्यक्तियों से पूछताछ का तरीका भी विशिष्ट है। एक आम आदमी को पूछताछ के लिए बुलाया जाता है और जरूरत पड़ने पर उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है, लेकिन विशिष्ट व्यक्ति बार-बार समन देने पर भी पूछताछ के लिए हाजिर नहीं होते। जब कभी वे हाजिर होते हैैं तो उनके पास ऐसे अदालती आदेश होते हैैं कि उन्हें अमुक-अमुक तिथि तक गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। यह आम और खास लोगों के बीच किया जाने वाला भेदभाव नहीं तो और क्या है? आखिर गंभीर आरोपों का सामना कर रहे विशिष्ट व्यक्तियों को जैसी सुविधा मिलती है वैसी ही आम लोगों को क्यों नहीं मिलनी चाहिए?

भारत आज अगर एक गरीब देश है तो इसका एक कारण भ्रष्टाचार पर प्रभावी ढंग से रोकथाम न लग पाना है। इस नाकामी के लिए पुलिस और सीबीआइ के साथ अन्य उन जांच एजेंसियों का सही तरह से काम न करना है जिन पर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी है। सारधा घोटाले की जांच जिस धीमी गति से हो रही है उससे आम जनता के बीच कोई सही संकेत नहीं जाता। इतने बड़े घोटाले की सुस्त गति से जांच होने और आम चुनाव के पहले उसमें तेजी आने से तो यही लगता है कि राजनीतिक फायदे के लिए पहले जांच धीमी गति से होती रही और फिर उसमें तेजी लाई गई। सच्चाई जो भी हो, ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण अति आवश्यक हो गया है कि पुलिस और साथ ही सीबीआइ समेत अन्य जांच एजेंसियां बिना किसी राजनीतिक दबाव के काम कर सकें। बिना ऐसा किए भ्रष्टाचार के मामलों की सही तरह से जांच होना संभव नहीं दिखता।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]