[ राजीव सचान ]: तथ्यों की मनमानी व्याख्या कर किसी संदिग्ध आचरण वाले व्यक्ति को किस तरह मसीहा बनाने की कोशिश हो सकती है और किसी असंदिग्ध आचरण वाले व्यक्ति को संदिग्ध करार दिया जा सकता है, इसका सटीक उदाहरण हैं सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा और सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश एके सीकरी। जिन्होंने यह मान और ठान लिया था कि आलोक वर्मा एक ईमानदार और भ्रष्टाचार से लड़ने वाले सीबीआइ निदेशक थे वे उनकी ऐसी छवि पर आंच न आने देने के लिए इस कदर आमादा हुए कि उन्होंने जस्टिस सीकरी के खिलाफ हल्ला बोल दिया।

जस्टिस सीकरी उस उच्च स्तरीय चयन समिति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल थे जिसे सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के तहत सीबीआइ निदेशक आलोक वर्मा के भविष्य का फैसला करना था। इस तीन सदस्यी समिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा लोकसभा में सबसे बड़े दल के नेता के तौर पर कांग्रेस के सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे भी शामिल थे। खड़गे की मांग थी कि आलोक वर्मा को न केवल पूरे अधिकार दिए जाएं, बल्कि उनके कार्यकाल में वे 77 दिन भी जोड़ दिए जाएं जो उनकी छुट्टी में खप गए थे। उनसे ऐसे ही किसी रवैये की अपेक्षा थी। उनकी कोई अपेक्षा इसलिए पूरी नहीं हुई, क्योंकि प्रधानमंत्री के साथ जस्टिस सीकरी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मौजूदा हालात में आलोक वर्मा को स्थानांतरित करना ही बेहतर होगा।

हालांकि इस निष्कर्ष पर पंहुचने के आसार सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले में ही निहित थे जिसके तहत आलोक वर्मा की बहाली तो की गई थी, लेकिन उन पर नीतिगत फैसला न लेने की बंदिश भी लगाई गई थी। इसका यही मतलब था कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पाक-साफ नहीं पाया था।

आलोक वर्मा के खिलाफ केंद्रीय सतर्कता आयोग की जांच की निगरानी करने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पटनायक भले ही यह कह रहे हों कि वर्मा को जल्दबाजी में स्थानांतरित किया गया और उन्हें अपनी सफाई का अवसर नहीं दिया गया, लेकिन यह तथ्यों के विपरीत है। कम से कम उन्हें यह पता होना चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को अपने खिलाफ लगे आरोपों का जवाब देने का पूरा मौका दिया था।

उन्होंने सीलबंद लिफाफे में अपना जवाब दिया भी था, जिसके मीडिया तक पहुंच जाने के कारण सुप्रीम कोर्ट नाराज हुआ था। एक सच यह भी है कि खुद जस्टिस पटनायक ने आलोक वर्मा को क्लीनचिट देने के बजाय यही कहा था कि कुछ आरोपों की आगे जांच की जरूरत है। इस सवाल का जवाब जस्टिस पटनायक ही दे सकते हैैं कि अगर उनकी नजर में आलोक वर्मा पाक-साफ थे तो फिर वह इस नतीजे पर पहुंचे ही क्यों कि उन पर लगे कुछ आरोप गंभीर किस्म के हैं और उनकी जांच होनी चाहिए? सवाल यह भी है कि अगर सुप्रीम कोर्ट की नजर में आलोक वर्मा बेदाग थे तो उसने उन्हें क्लीनचिट देने के बजाय उनकी बहाली बंदिशों के साथ क्यों की?

एक सवाल यह भी है कि इन बंदिशों के बावजूद आलोक वर्मा दोबारा कामकाज संभालते ही अपनी अनुपस्थिति में किए गए फैसलों को पलटने में क्यों जुट गए थे? यह तय है कि ये सारे सवाल उनके लिए कोई मायने नहीं रखते जो यह मान चुके हैं कि आलोक वर्मा तो भ्रष्ट तत्वों के लिए काल बन चुके थे और मोईन कुरैशी जैसे लोग उनके नाम से ही कांप उठते थे। आने वाले दिनों में इस आशय की खबरें भी दिखने लगें तो हैरत नहीं, क्योंकि ऐसे ही लोगों ने जस्टिस एके सीकरी की छवि को तार-तार किया।

जस्टिस सीकरी का गुनाह मात्र यह था कि मुख्य न्यायधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने उन्हें अपने प्रतिनिधि के तौर पर यह जानते हुए भी भेजा कि वह मार्च में रिटायर होने के बाद कॉमनवेल्थ सेक्रेटेरिएट आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल का सदस्य बन जाएंगे। चूंकि मोदी सरकार ने इस ट्रिब्यूनल के सदस्य के तौर पर सीकरी को मुख्य न्यायाधीश की सहमति मिलने के बाद ही नामित किया था इसलिए ऐसा कुछ मान लेने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती कि शायद इसके बारे में वह अवगत नहीं रहे हों। बावजूद इसके आलोक वर्मा के स्थानांतरण के फैसले के बाद जस्टिस सीकरी के बारे में यह प्रचारित किया गया कि सरकार की कृपा से कॉमनवेल्थ सेक्रेटेरिएट आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल की सदस्यता हासिल करने के एवज में उन्होंने मल्लिकार्जुन खड़गे के बजाय प्रधानमंत्री की राय का समर्थन किया।

जस्टिस सीकरी को कठघरे में खड़ा करने के लिए यह भी रेखांकित किया गया कि कॉमनवेल्थ सेक्रेटेरिएट आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल का सदस्य एक मलाईदार पद है। जबकि तथ्य यह है कि ऐसे सदस्य को न तो कोई नियमित वेतन मिलता है और न ही लंदन में रहने की सुविधा। जस्टिस सीकरी को सरकार की कृपा से उपकृत दिखाने के क्रम में इसकी भी अनदेखी करने में ही भलाई समझी गई कि जब उन्होंने कॉमनवेल्थ सेक्रेटेरिएट आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल का सदस्य बनने को लेकर अपनी सहमति दी थी तब आलोक वर्मा के मामले में कोई फैसला नहीं हुआ था। जो यह साबित करना चाह रहे कि जस्टिस सीकरी सरकार की कृपा से उपकृत हो गए वे इसकी भी अनदेखी कर रहे कि उच्च स्तरीय चयन समिति में अपने प्रतिनिधि के तौर पर उन्हें भेजने का फैसला खुद मुख्य न्यायाधीश गोगोई का था। जिन्हें लगता है कि जस्टिस सीकरी ने चयन समिति की बैठक शुरू होते ही आनन-फानन प्रधानमंत्री के मत का समर्थन कर दिया वे इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि फैसले के एक दिन पहले भी एक बैठक हुई थी।

ऐसा नहीं है कि जस्टिस सीकरी कोई ऐसे पहले न्यायाधीश हैैं जिन्होंने सरकार की पहल पर सेवानिवृत्ति के बाद कोई पद स्वीकार करने को तैयार हुए हों, लेकिन उनके खिलाफ अभियान इसलिए छिड़ा, क्योंकि उन्होंने प्रधानमंत्री का समर्थन कर दिया।

हालांकि आलोक वर्मा के स्थानांतरण के बाद जस्टिस सीकरी को लांछित करने के अभियान का प्रतिवाद भी किया गया, लेकिन जब उनके साथ काम कर चुके सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर जज ने ऐसा किया तो उनसे पूछा गया कि वह किसकी दलाली खा रहे हैैं? हालांकि जस्टिस सीकरी ओर से कॉमनवेल्थ सेक्रेटेरिएट आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल का सदस्य बनने को लेकर दी गई अपनी सहमति वापस लेने के साथ ही इस पूरे प्रकरण का पटाक्षेप होता दिख रहा है, लेकिन यह प्रसंग इस बात को साबित करता है कि आज के दौर में किसी को बदनाम करना अथवा मसीहा बनाना कितना आसान हो गया है। यह इसीलिए आसान हो गया है, क्योंकि अब तथ्यों को ताक पर रखकर मनमाना नतीजा निकालने की प्रवृत्ति से राजनीति के साथ ही मीडिया का एक हिस्सा भी ग्रस्त हो गया है।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )