नई दिल्ली, कुमुद शर्मा। CAA Protest: नागरिकता संशोधन कानून की आड़ में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष अपनी मिथ्याभिमानी ढोंगी मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति को देशद्रोह की सीमा तक घसीट लाया। विपक्षी दलों ने इस संशोधित कानून में अपने निहित स्वार्थों के चलते आधारहीन मुस्लिम विरोधी मिथ को आरोपित कर दिया और इसी आधार पर कुछ प्रदेशों में राष्ट्र विरोधी हिंसक दंगे भड़काए गए। आगजनी और पत्थरबाजी से सार्वजनिक और निजी संपत्ति को गंभीर क्षति पहुंची।

विपक्ष के इस विध्वंसक आचरण के साथ जिन सिमी (स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया), पीएफआइ, एसडीपीआइ जैसी मुस्लिम संस्थाओं ने इसमें साझेदारी की, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले ही इन संस्थाओं पर विभिन्न धाराओं में आपराधिक मामले दर्ज हैं। इन संस्थाओं और कांग्रेस के बीच एक साझे उद्देश्य की प्रेरणा काम कर रही है।

जिहादी और अलगाववादी मुस्लिमों की भाषा से मेल

सोनिया गांधी ने नागरिकता संशोधन कानून को नाइंसाफी बताया है। उन्होंने देश को आह्वान किया कि लोकतंत्र को बचाने के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तैयार रहें। वैसे यहां लोकतंत्र कहां से आ गया? यह कानून तो विशुद्ध लोकतंत्र की ही देन है जिसे पूरे देश के चुने हुए प्रतिनिधियों ने संसद में पारित किया है। खैर कांग्रेस के हास्यास्पद बयानों की तो कभी कमी नहीं रहती। मगर चिंता की बात यह है कि इस तरह के बयानों में प्राय: नफरत के संदेश छिपे रहते हैं। गहराई से देखा जाए तो कांग्रेस के इस तरह के बयानों में एक निश्चित और निर्धारित पैटर्न मिलेगा जो जिहादी और अलगाववादी मुस्लिमों की भाषा से मेल खाता है।

कांग्रेस के बयानों में इस तरह का पैटर्न इधर कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रहा है। विशेष रूप से 2014 में भाजपा की मोदी सरकार आने के बाद। कांग्रेस के इस परिवर्तन को लोग अलग-अलग दृष्टिकोण से देख रहे हैं। जो दृष्टिकोण सबसे ज्यादा चर्चा में है उसके अनुसार कांग्रेस की लीडरशिप ऐसे हाथों में चली गई है जिनकी तैयार की गई नीतियां एवं कार्यक्रम ऐसे कट्टरपंथी मुस्लिम समुदाय से मेल खाते हैं जो अभी भी द्विराष्ट्र सिद्धांत (जो मुस्लिम बहुल क्षेत्र है, वह मुस्लिम राष्ट्र का हिस्सा है) पर काम कर रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के पीछे इसी दर्शन की प्रेरणा बताई जा रही है।

देश के नागरिकों की राष्ट्रीय आस्था

मोदी सरकार के कार्यकाल में जितने भी बिल पारित हुए और कानून बने, उन सभी के विरोध में कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियों के नेताओं के बयान अशिष्ट, अनैतिक और सांप्रदायिक रहे हैं। इन सभी बिलों को संसदीय लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से पारित किया गया। प्रक्रियाएं संवैधानिक थीं, पर संविधान मात्र अर्थविज्ञान का मुद्दा नहीं है, वह देश के नागरिकों की राष्ट्रीय आस्था की अभिव्यक्ति है। इसकी अवहेलना करते हुए प्रत्येक मुद्दे पर कांग्रेस समेत अनेक विपक्षी दलों ने इतना विष-वमन किया कि उससे पाकिस्तान और वहां के जिहादियों को भरपूर खुराक मिलती रही।

अब तक की उपलब्धियों से भारत में राष्ट्रीय चेतना जगाने वाली मोदी सरकार का कार्यकाल भारतीय राजनीति का असाधारण काल कहा जाएगा। यह मोदी सरकार की ऐसी लोकतांत्रिक मोर्चाबंदी है जिससे बिखरते हुए भारत राष्ट्र का दुर्गीकरण हो रहा है। तीन तलाक, 370 का निरस्तीकरण तथा नागरिक संशोधन कानून के माध्यम से राष्ट्रीय अस्मिता की निर्मिति हो रही है। राष्ट्र निर्माण की दिशा में क्रियान्वित नीतियों और कार्यक्रमों को प्रत्येक देश में जनता का भारी समर्थन मिलता है। मगर कांग्रेस के नेतृत्व में देश का अधिकांश मुस्लिम समुदाय मोदी सरकार की सभी नीतियों का विरोध कर रहा है।

‘वंदे मातरम’ का मुसलमानों ने विरोध किया

अक्सर देखा यह भी गया है कि यह समुदाय राष्ट्रीय प्रतीकों या अभियानों के विरोध में उठ खड़ा होता है। उदाहरण के लिए भारत में आजादी का मंत्र फूंकनेवाले ‘वंदे मातरम’ का मुसलमानों ने विरोध किया। ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ ने तो इसके विरोध में मुस्लिम स्कूली बच्चों के अभिभावकों को पत्र तक लिखे। बांग्ला साहित्यकार एवं समीक्षक रियाजुल करीम ने लिखा कि ‘वंदे मातरम’ के विरोध का प्रमुख उद्देश्य भारतीय मुसलमानों को स्वतंत्रता आंदोलन से अलग करना था। यह अलगाववादी जिन्ना की चाल थी।

इसी तरह शाहबानों को मुआवजा देने के मामले में कट्टरपंथी मुस्लिमों ने यह कहकर विरोध किया कि सुप्रीम कोर्ट का मुआवजा देने का फैसला शरीयत कानून में दखलंदाजी है। उन्होंने संसद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए कांग्रेस पर दबाव डाला। कांग्रेस के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इस फैसले को पलटवाकर इसे संसदीय कानून बनवा दिया जो पहले मात्र शरीयत का कानून था। संसदीय रिकार्ड में सांप्रदायिकता का ऐसा उदाहरण नहीं मिल सकता।

यह एक विचित्र स्थिति है कि धर्म को अफीम मानकर अपने ही प्राचीन धर्म का विरोध करनेवाला वामपंथ मुस्लिम धर्मांधता से विरोध नहीं करता। बंगाल से लेकर केरल तक अपनी छत्र-छाया में इसे पालता है। कभी अल्पसंख्यक के नाम पर, कभी सेक्युलरिज्म की दुहाई देकर या फिर कभी मानवाधिकार का करुण प्रलाप करके वह मुस्लिम समुदाय का समर्थन करता रहता है। और इस समर्थन की छत्र-छाया में जिहादी मुस्लिम अपने मंसूबों को अंजाम देते रहते हैं। सीएए के विरोध में जिहादियों का हिंसक कृत्य एक ऐसा ही उदाहरण है। यह हिंसा चलती रहेगी, क्योंकि वोट प्राप्त करने के लिए और अपनी कायरता के कारण ना तो वामपंथ व कांग्रेस अपना रास्ता बदलेंगे और ना ही जिहादी मुस्लिम अपना मंतव्य छोड़ेंगे।

इन सभी की समस्या यह है कि मोदी व शाह ने इनकी वह नस दबाई है जहां सबसे अधिक दर्द होता है। जबकि ये दोनों नेता अपने वृहत्तर राष्ट्रीय सरोकारों का परिचय दे रहे हैं। वे पिछली सरकारों की उन गलतियों को ठीक करने का प्रयास कर रहे हैं जिनसे भारत की आंतरिक एवं बाहरी सुरक्षा खतरे में पड़ गई थी। कल्पना कीजिए कि जिस देश के पड़ोसी चीन व पाकिस्तान जैसे देश हों, उस देश की कांग्रेस सरकार ने अपने पिछले दस वर्षों के कार्यकाल में बडे़ हथियारों की खरीदारी न करके डिफेंस को खोखला कर दिया और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाला। देश को हतप्रभ करनेवाले उनके अनेक घोटाले जरूर उजागर हुए।

कांग्रेस ने आजादी के बाद से ही अपने प्रशासनिक कार्य निष्पादन से यह सिद्ध किया है कि वह अपनी मूल प्रकृति में पलायनवादी, भीरुता एवं सुविधापरस्ती की प्रवृतियों से ग्रस्त रही है। यही कारण है कि पड़ोसी देशों से घुसपैठियों की समस्या, गैर बराबरी पर आधारित धर्मनिरपेक्षता, समान नागरिक कानून न होने की समस्या, चीन से पराजय एवं सीमाओं की समस्या, कश्मीर समस्या, श्रीलंका में सेना भेजने का विवेकहीन फैसला, आंतरिक सुरक्षा की उपेक्षा, पुराने ढर्रे पर चलाई जा रही अंतरराष्ट्रीय कूटनीति जैसी संचित समस्याएं इतना विकराल रूप धारण करती चली गईं कि इन्हें सुधारने और ठीक करने के लिए मोदी सरकार को अपनी सारी शक्ति लगानी पड़ रही है।

मोदी सरकार राष्ट्र की जड़ों को सींच रही है। जनता की उम्मीदें भी सरकार पर टिकी हैं। मगर देश की अधिकांश अल्पसंख्यक आबादी मोदी सरकार से खुश नहीं है। आज जबकि विश्व परमाणु युग के उस दौर में पहुंच गया है, जब देश के वृहत्तर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक आयामों का मार्ग प्रशस्त करने की जरूरत है, ताकि राष्ट्रीय हितों के अनुरूप वैश्विक प्रणाली में सत्ता एवं ताकत के नए रचना विन्यास से देश को सुरक्षित घेरे में लाया जा सके। राष्ट्रीयता कभी भी व्यतीत मूल्य नहीं हो सकती। यह मनुष्य की मूलभूत प्रकृति में अंतर्भूत है। जो लोग इसे कमजोर करने की बात करते हैं, वे वस्तुत: अपनी आदर्शवादी मिथ्या परिकल्पना से जूझ रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून एवं राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को इन्हीं संदर्भों में देखा जाना चाहिए। राष्ट्रीयता की भावना दृढ़ होगी तो आनेवाली पीढ़ियां भी मजबूत होंगी चाहे वे अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक।

कट्टरपंथ को हवा देने की कोशिश

कुछ दशक पहले गांवों से उजड़कर मुस्लिम परिवार रोजी रोटी की तलाश में जामिया नगर बसने लगे। यह देखकर एक दर्जन से अधिक मुस्लिम संगठनों ने यहां अपने कार्यालय स्थापित कर लिए जिसमें मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, मुस्लिम मजलिसे- मुशावरत और जमाते-इस्लामी जैसे संगठन भी थे। मुस्लिम धर्म और अस्मिता पर खतरा दिखाकर ये संगठन गरीब मुसलमानों को बहकाकर जुलूस एवं प्रदर्शन आदि करने लगे। इन लोगों ने जामिया मिल्लिया के छात्रों को भी प्रभावित करने का प्रयास किया। जमाते-इस्लामी के कार्यकर्ताओं ने एक बार आरिफ मोहम्मद खां को लोहे की रॉड से हमला करके घायल कर दिया, क्योंकि उन्होंने शाहबानो मामले में प्रगतिशील एवं आधुनिक मुसलमानों का नेतृत्व किया था (टेक्स्ट एंड कन्टेक्स्टआरिफ मोहम्मद खां)।

यह आरोप है कि ये वही तत्व थे जिन्होंने कुछ कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में जामिया के छात्रों के जुलूस में शामिल होकर उन्हें आगजनी, पत्थरबाजी और दंगा-फसाद के लिए उकसाया। ऐसा प्रतीत होता है कि ये संगठन एवं उनके कार्यकर्ता इस देश के नहीं, बल्कि किसी पराये देश के नागरिक हैं। नागरिकता कानून का निराधार विरोध करके दंगा-फसाद और आगजनी करनेवाला समुदाय स्वयं ही तय करे कि एक सच्चा नागरिक कहलाने के लिए वह किस विशेषता का दिग्दर्शन करा रहा था? किन राष्ट्रीय सरोकारों का परिचय दे रहा था? जिस कांग्रेसी शासन के मात्र सात वर्षों के दौरान वर्ष 1964 से 1970 के बीच 425 सांप्रदायिक दंगे हुए और जिसमें लगभग 3,300 लोग मारे गए (इंडियन गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स, डॉ. बीएल फाडिया) उसी कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व द्वारा आज पुन: देशवासियों से कुर्बानी का आह्वान किया जा रहा है, क्योंकि यही कुर्बानियां तथाकथित सेक्युलर पार्टियों के लिए सत्ता का रास्ता तैयार करती हैं।

आतंकी हरकतों पर वामपंथी दलों की चुप्पी

भारतीय मुस्लिम समाज प्राय: पाक एवं उसके प्रायोजित आतंकवादी गतिविधियों पर एक शब्द भी नहीं बोलता। वह एक उल्टा ही विमर्श चलाता है कि सुरक्षा बल कश्मीर में मुसलमानों पर ज़ुल्म ढा रहे हैं। उसकी समस्या यह है कि वह जिस देश में रहता है उसी देश के धर्म, प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति का धार्मिक कारणों से विरोध करता है। विश्व के दर्जनों देशों में अल्पसंख्यक या शरणार्थी होने के बावजूद मुस्लिम शक्ति कैसे ग्रहण कर लेते हैं? इसको भी समझना जरूरी है। ये मूलत: वामपंथ और मानवाधिकार केंद्रित उदारवादी मध्यमार्गी व्यवस्थाओं की छाया में शक्ति ग्रहण करते हैं। जिहादी मुस्लिम समाज स्थानीय धर्म और संस्कृतियों का विरोध इसलिए करता है, क्योंकि उसका उद्देश्य उसे इस्लामिक राष्ट्र में तब्दील करना होता है। लेकिन वामपंथ स्थानीय संस्कृतियों का विरोध इसलिए करता है, क्योंकि वह उसे प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी मानता है। स्थानीय धर्म और संस्कृतियां वामपंथ और जिहादी इस्लाम दोनों के निशाने पर रहते हैं।

[प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]

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