[ डॉ. सैयद रिजवान अहमद ]: नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए उन अल्पसंख्यकों का एक अधूरा सपना है जो विभाजन के वक्त इस मुगालते के चलते पाकिस्तान में रह गए थे कि पाकिस्तान भले ही एक इस्लामिक मुल्क हो, लेकिन उसका संस्थापक यानी जिन्ना एक खुले और उदार विचारों वाला मुसलमान है। सीएए एक तरह से उस वचन की पूर्ति है जो महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में रह गए अल्पसंख्यकों को दिया था कि यदि आपको कभी अपने फैसले पर पछतावा हो तो भारत के दरवाजे आपके लिए खुले रहेंगे। इसी वचन को वर्ष 2003 में राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष मनमोहन सिंह ने दोहराया भी था।

नेहरू-लियाकत समझौते ने मजहबी अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने की प्रतिबद्धता जताई थी

यह भी ध्यान रहे कि 1951 में नेहरू-लियाकत समझौते के तहत दोनों राष्ट्रों ने अपने-अपने देशों में मजहबी अल्पसंख्यकों के अधिकारों को संरक्षण देने की प्रतिबद्धता जताई थी। पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो के वक्त तक अल्पसंख्यकों को कुछ हद तक अधिकार मिले, लेकिन जनरल जिया उल हक का दौर आते-आते वहां वहाबी सोच हावी होने लगी थी। तब संगठित रूप से अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न होने लगा। इसका सबसे ज्यादा असर अल्पसंख्यक समुदायों की लड़कियों पर पड़ा। उन्हें अगवा करना, जबरन धर्म परिवर्तन कराना और फिर उनसे निकाह करना एक दस्तूर सा बन गया।

बांग्लादेश इस्लामी राष्ट्र घोषित होने के बाद अल्पसंख्यकों का हुआ उत्पीड़न

1971 में पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश के नाम से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना तो, लेकिन जल्द ही जनरल इरशाद ने उसे इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया। इसके बाद वहां भी अल्पसंख्यकों का ऐसा उत्पीड़न हुआ कि 1971 में कुल आबादी में हिंदुओं की जो आबादी 20 प्रतिशत से अधिक थी वह घटकर 10 फीसद से कम रह गई।

यदि पाक और बांग्लादेश ने अपने वादे निभाये होते तो सीएए की जरूरत नहीं पड़ती

यदि पाक और बांग्लादेश ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति अपने वादे निभाये होते तो शायद नागरिकता अधिनियम को संशोधित करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

मुस्लिम समाज को स्वीकारना चाहिए कि पाक और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों का हुआ उत्पीड़न

मुस्लिम समाज के नेताओं-धर्मगुरुओं को यह सच स्वीकार करना चाहिए कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में वाकई अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हुआ है। उन्हें ऐसे हिंदू, सिख, बौद्ध आदि भाई-बहनों का स्वागत करना चाहिए, साथ ही पाकिस्तान और बांग्लादेश को यह हिदायत देनी चाहिए कि इस्लामी राष्ट्र होते हुए भी वे अपने अल्पसंख्यकों के साथ प्यार से पेश आएं। मुस्लिम नेताओं और धर्मगुरुओं ने इसकी अनदेखी की और अभी भी कर रहे हैैं।

भारत से अलग होकर बने देश के सताए अल्पसंख्यकों को ही सीएए में स्थान मिला

यदि सीएए का मामला मात्र हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा होता तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में आए नेपाली हिंदू, तिब्बत से आए बौद्ध और श्रीलंका से आए तमिल हिंदुओं को भी सीएए में प्राथमिकता से स्थान मिलता, जो कि नहीं मिला। यह इसलिए नहीं मिला, क्योंकि ये भारत से अलग होकर बने देश नहीं हैैं।

सीएए को समझना और आसान होता यदि सरकार सिर्फ पीड़ित धार्मिक अल्पसंख्यक लिखती

सीएए को समझना और आसान होता यदि सरकार हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई न लिखते हुए केवल पीड़ित धार्मिक अल्पसंख्यक लिखती। मुसलमानों द्वारा जिस तरह सीएए का विरोध करना गैर जरूरी है उसी तरह राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी का विरोध भी। कुछ स्वयंभू सेक्युलर पार्टियां और नासमझ मुस्लिम नेताओं के चलते देश को इस अनावश्यक विरोध का खमियाजा भुगतना पड़ रहा है।

असम के एनआरसी को राष्ट्रव्यापी एनआरसी से जोड़ना सही नहीं

असम के एनआरसी को राष्ट्रव्यापी एनआरसी से जोड़ना बिल्कुल भी सही नहीं। उसकी परिस्थितियां और रूपरेखा वर्ष 1985 के असम समझौते और सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बनी थीं, क्योंकि असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों की समस्या जटिल थी।

सरकार ने नहीं कहा- असम एनआरसी की तर्ज पर देश भर में 1971 से पूर्व के दस्तावेज मांगे जाएंगे

गृहमंत्री या सरकार के किसी भी नुमाइंदे ने यह कभी नहीं कहा कि असम एनआरसी की तर्ज पर ही देश भर में 1971 से पहले के दस्तावेज मांगे जाएंगे। एनआरसी जैसी व्यवस्था तमाम देशों में अलग-अलग नामों से होती है। प्रदर्शनकारियों और दंगाइयों को भड़काने वाले दलों और मुस्लिम नेताओं से यह जरूर पूछना चाहिए कि आपने इस पर दुष्प्रचार करके जनता को क्यों गुमराह किया? उन्हें कम से कम राष्ट्रव्यापी एनआरसी के खाके और शर्तों का इंतजार करना चाहिए था।

विरोध के चलते खून के छींटे सरकार पर, विपक्ष और मुस्लिम नेताओं के दामन पर लगे

इस विरोध के चलते हताहत लोगों के खून के छींटे मौजूदा सरकार पर नहीं, बल्कि विपक्ष, मुस्लिम नेताओं के दामन पर लगे हैं। लगता है कि जब तक आम गरीब या मुसलमान का खून न बहे तब तक उनकी तकरीरों में वह जोश नहीं आता जो आज देखने को मिल रहा है।

सीएए-एनआरसी के विरोध में लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता से उपजी चिढ़ भी है

सीएए-एनआरसी के विरोध में जो कुछ देखने को मिल रहा है वह 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता से उपजी चिढ़ भी है। इसके साथ ही तीन तलाक, राम मंदिर, अनुच्छेद-370 का दबा गुबार भी उमड़ कर बाहर आया और जाने-अनजाने सामाजिक दृष्टि से ‘कौम’ का और नुकसान कर गया।

जब तक मुल्क का बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्ष नहीं होगा तब तक देश धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता

कोई चाहे संविधान के हर पन्ने पर धर्मनिरपेक्ष लिख दे, लेकिन जब तक किसी भी मुल्क का बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्ष नहीं होगा तब तक वह देश धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। पिछले 70 वर्षों के दौरान चाहे 1955 में समान नागरिक संहिता का विरोध हो, एंटी कन्वर्जन लॉ का विरोध हो, 1985 में शाहबानो के समय का विरोध हो, कश्मीरी पंडितों के पलायन पर रहस्यमय चुप्पी हो, भाजपा के खिलाफ दिए गए मजहबी फतवे हों, अयोध्या विवाद को लेकर नाजायज जिद हो- इन सबके कारण भारत का बहुसंख्यक धीरे-धीरे एकतरफा धर्मनिरपेक्षता से दूर खिसकता जा रहा है।

यदि मुस्लिमों ने बहुसंख्यकों के प्रति अहंकार बरकरार रखा तो उनकी पीढ़ियों को नुकसान हो सकता है

इसका खमियाजा मुसलमानों की आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ सकता है, यदि उन्होंने देश के बहुसंख्यकों के प्रति अपना अहंकार बरकरार रखा। जो तिरंगे आज लखनऊ और हैदराबाद की रैलियों में नजर आते हैं, यदि आज से 20-25 साल पहले भारत-पाकिस्तान के मैच के दौरान मुस्लिम मुहल्लों में दिखते या फिर कश्मीरी पंडितों के उत्पीड़न के समय दिखते तो शायद इतनी अधिक संख्या में तिरंगा उठाने का ढोंग असदुद्दीन ओवैसी के समर्थकों को नहीं करना पड़ता।

हिंदू-मु‍स्लिमों में बढ़ती दरार को पाटने के लिए आत्मचिंतन करने की जरूरत है

यह समय इस पर आत्मचिंतन करने का है कि क्यों देश के मुसलमानों और हिंदुओं के बीच दरारें बढ़ती जा रही हैं। यदि 1955 में समान नागरिक संहिता न मानकर मुसलमानों ने इस दरार को बढ़ाना शुरू किया था तो अब समय है कि उनकी नई पीढ़ी इस दरार को पाटने का काम चालू करे। एकतरफा धर्मनिरपेक्षता अब देश में नहीं चलने वाली है।

( लेखक अधिवक्ता हैं )