नई दिल्ली, जेएनएन। यदि बजट मैं बनाता, तो ये छह बिंदु होते। पहला बिंदु जीएसटी का है। मैं जीएसटी में छोटे उद्योगों द्वारा कच्चे माल की खरीद पर अदा किये गये जीएसटी के नकद रिफंड की व्यवस्था करता जिससे छोटे उद्योगों को बड़े उद्योगों के सामने खड़ा होने में सुविधा हो। साथ ही जीएसटी में श्रम सघन उत्पादन जैसे कपड़े और अगरबत्ती पर जीएसटी की दर को मैं कम करता और श्रम का हनन करने वाले पूंजी-सघन उत्पादों जैसे जेसीबी, एक्स्कावेटर और हार्वेस्टर पर जीएसटी की दर को बढ़ाता। राज्यों को जीएसटी की दर में परिवर्तन करने का मैं अवसर देता जिससे कि वे अपने विवेकानुसार जीएसटी के दायरे के अंदर रहते हुए अपनी जीएसटी की दरों में परिवर्तन कर सकें। जीएसटी के अंतर्गत माल के एक श्रेणीकरण को बनाये रखते हुए राज्यों द्वारा जीएसटी की दर में परिवर्तन करने का रास्ता खोजता। इन कार्यों से छोटे उद्योग और रोजगार को बढ़ावा मिलता, बाजार में मांग उत्पन्न होती और अर्थव्यवस्था चल निकलती। दूसरा, विश्व व्यापार संगठन से मैं बाहर आने की पहल करता।

विश्व व्यापार संगठन का आधार था कि हमारे कृषि उत्पादों के निर्यात के अवसर बढ़ेंगे। ऐसा नहीं हुआ है। अत: विश्व व्यापार संगठन में बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। पेटेंट्स कानून का संशोधन कर मैं यह व्यवस्था करता कि विदेश में विकसित नई तकनीकों को अपनाकर हम उत्पादन कर सकें जैसा कि हम 1995 के पहले करते आ रहे थे। इससे तकनीकी खरीद के नाम पर देश से जो भारी रकम बाहर जा रही है, उसमें कुछ ठहराव आता। हमारे उद्यमियों को प्रॉफिट कमाने के नए रास्ते मिलते और निवेश बढ़ता। तीसरा कार्य मैं यह करता कि सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों और लाभ अथवा हानि में चल रही तमाम सार्वजनिक इकाइयों का पूर्ण निजीकरण कर देता। मेरा अनुमान है कि इस कदम से हम लगभग बीस लाख करोड़ की विशाल राशि अर्जित कर सकते हैं। यह रकम केंद्र सरकार के पूरे साल के खर्च के बराबर होगी। चौथा कार्य मैं यह करता कि सरकारी कर्मियों के वेतन और डीए को फ्रीज कर देता।

सरकारी कर्मियों की नियुक्ति आम आदमी की सेवा करने के लिए की जाती है। अत: सेवक को सेवित की आय से अधिक वेतन देने का कोई औचित्य नहीं है। वर्तमान में सरकारी कर्मियों के वेतन, देश की आम आदमी की आय से कई गुना अधिक हैं। इसलिए इनके वेतन को फ्रीज कर बची हुई रकम को आम आदमी के खाते में सीधे डाल देता। मैं तमाम सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त कर उस रकम को भी देश की जनता के बैंक खातों में सीधे हस्तांतरित कर देता। पांचवां, मैं ऋण लेकर आम आदमी परक बुनियादी संरचना में निवेश बढ़ाता जैसे कस्बों में मुफ्त वाई-फाई अथवा गांवों में सड़क में निवेश बढाता। इस निवेश से सीमेंट और स्टील की मांग तो बढती ही साथ में आम आदमी को अपना धंधा करने में सहूलियत होती और उसकी क्रय शक्ति में वृद्धि होती। कस्बों के युवा इंटरनेट से अपनी सेवाओं की बिक्री कर सकेंगे। हाईवे में निवेश करने से परेशानी बढ़ती ही है। टोल देना होता है। हाईवे पार करने में परेशानी होती है। ट्रकों के रुकने के ढाबों का धंधा चौपट हो जाता है।

लेखक 

भरत झुनझुनवाला, वरिष्ठ अर्थशास्त्री