[ ए. सूर्यप्रकाश ]: हाल के दौर में न्यायपालिका हमलों के केंद्र में रही है। आरोपों की आड़ में हमला करने वालों का दावा है कि अब यह संस्थान स्वतंत्र एवं भरोसेमंद नहीं रहा, जबकि वास्तविकता यही है कि न्यायपालिका ने नागरिकों की स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की है। ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका की निष्पक्षता पर अभी सवाल उठे हों। ऐसे प्रश्न स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही उठते रहे हैं। केवल भारत ही नहीं, दूसरे लोकतंत्रों में भी यह बहुत आम है। अमेरिका का ही उदाहरण लें, जहां डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने संबंधी एक पहल की गई है। इसके पीछे डेमोक्रेट्स की यह दलील है कि सुप्रीम कोर्ट में रिपब्लिकंस की भरमार है। ऐसे में उन्होंने अमेरिकी संसद में एक विधेयक पेश किया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की संख्या नौ से बढ़ाकर 13 करने का प्रस्ताव है। संघीय सरकार इस पर एक आयोग की नियुक्ति करने के बारे में विचार कर रही है, पर क्या इससे मौजूदा अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट संदिग्ध हो जाता है।

न्यायपालिका पर उल-जुलूल टिप्पणियों से बचना चाहिए

अक्सर ऐसी बहसों में यह भुला दिया जाता है कि संस्थानों की विश्वसनीयता पर ऐसी चर्चा केवल लोकतंत्रों में ही होती हैं। क्या किसी ने चीन या शरीयत पर चलने वाले इस्लामिक देशों से ऐसी कोई खबरें सुनी हैं? चूंकि हम एक गतिशील लोकतंत्र हैं तो ऐसी बहस चलनी ही चाहिए, लेकिन हमें उसे एक मर्यादा के दायरे में रखना होगा। खासतौर से तब जब बात उच्चतर न्यायपालिका की हो रही हो। इन दिनों इंटरनेट मीडिया पर तमाम बेलगाम लोग सक्रिय हैं, जो न्यायपालिका पर उल-जुलूल टिप्पणियां करते रहते हैं। ऐसी टिप्पणियां करने के मोह से बचा जाना चाहिए। इसी महीने सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 18 वर्ष से अधिक आयु के किसी भी व्यक्ति को अपनी पसंद से मत-मजहब के चयन का अधिकार है। अदालत ने उस याचिका को खारिज करते हुए यह निर्णय सुनाया, जिसमें मांग की गई थी कि शीर्ष अदालत मतांतरण रोकने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश जारी करे। अदालत ने न केवल उस याचिका को खारिज किया, बल्कि याचिकाकर्ता को चेतावनी भी दी कि यदि वह इस पर अड़े रहे तो उन्हेंं उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। अदालत के इस रुख में संविधान के अनुच्छेद 25 की ही प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है, जो अंत:करण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। इसमें अंत:करण की स्वतंत्रता का दायरा अत्यंत व्यापक है, जो किसी व्यक्ति को अपना पंथ, संस्कृति, विचारधारा और ऐसे तमाम मसलों पर अपनी पसंद निर्धारित करने का अधिकार प्रदान करता है। उक्त याचिका खारिज करने के अलावा अदालत ने कुरान से 26 आयतें हटाने से जुड़ी एक अर्जी को भी नामंजूर कर दिया, जिसे लगाने वाले शख्स का दावा था कि इन आयतों का दुरुपयोग आतंकी समूहों द्वारा युवाओं को गुमराह कर दूसरे मजहब के लोगों पर हमला करने के लिए उकसाने में किया जा रहा है।

नागरिकों की वाक् स्वतंत्रता को नहीं छीना जा सकता

शीर्ष अदालत के एक और हालिया फैसले ने नागरिकों की वाक् स्वतंत्रता के अधिकार को पुन: पुष्ट किया। उसने शिलांग टाइम्स की संपादक पैट्रिशिया मुकीम के खिलाफ एफआइआर को रद कर दिया। मुकीम ने पिछले वर्ष जुलाई में एक फेसबुक पोस्ट में लिखा था कि मेघालय के एक इलाके में आदिवासियों ने बास्केटबॉल खेल रहे छह गैर-आदिवासियों पर हमला किया। वह हमलावरों पर कार्रवाई चाहती थीं। उनके इस रुख से कुपित होकर स्थानीय आदिवासी नेताओं ने उन पर यह आरोप लगाते हुए कि वह दो वर्गों के बीच वैमनस्य पैदा करना चाहती हैं, भारतीय दंड संहिता की धारा 153 के तहत एफआइआर दर्ज करा दी। वास्तविकता में उनकी उक्त पोस्ट में ऐसा कुछ था ही नहीं। वह केवल कानून के प्रवर्तन की मांग कर रही थीं। उनके मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस एल नागेश्वर और एस रवींद्र विष्ट की पीठ ने कहा कि इस देश के नागरिकों को आपराधिक मामलों में फंसाकर उनकी वाक् स्वतंत्रता को नहीं छीना जा सकता। उन्होंने कहा कि उनकी फेसबुक पोस्ट में कोई हेट स्पीच नहीं थी।

कानून-व्यवस्था को लेकर असहमति व्यक्त करना संवैधानिक एवं उदार लोकतंत्र की थाती है

सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही नहीं, हाईकोर्ट भी इस मामले में बहुत मुखर हैं। इस लिहाज से इलाहाबाद हाईकोर्ट के कुछ हालिया फैसलों का उल्लेख समीचीन होगा। गत वर्ष दिसंबर में इस हाईकोर्ट ने यशवंत सिंह नाम के एक व्यक्ति के खिलाफ एफआइआर को खारिज किया। यशवंत ने एक ट्वीट में लिखा था कि योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तर प्रदेश की कानून एवं व्यवस्था बहुत बिगड़ गई है और यहां जंगलराज कायम हो गया है। इस ट्वीट को आधार बनाकर उनके खिलाफ मानहानि और सूचना प्रौद्योगिकी कानून के तहत एफआइआर दर्ज की गई। अदालत ने अनुच्छेद 19 के आधार पर मामले को खारिज करते हुए कहा कि कानून-व्यवस्था को लेकर असहमति व्यक्त करना तो हमारे जैसे संवैधानिक एवं उदार लोकतंत्र की थाती है। बीते दिनों एक समाचार पत्र ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के दुरुपयोग की पड़ताल की। खबर के अनुसार इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष बंदी प्रत्यीक्षकरण की जो 120 याचिकाएं दायर हुईं, उनमें से 94 को अदालत ने खारिज कर बंदियों की रिहाई के आदेश दिए।

न्यायपालिका ने सदैव नागरिक अधिकारों का संरक्षण किया

यह नहीं कहा जा सकता कि न्यायपालिका कमियों से मुक्त है। नि:संदेह कुछ गड़बड़ियां हैं, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संविधान ने कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के मध्य शक्ति का स्पष्ट पृथक्करण किया है। इसके चलते लोकतंत्र का कोई अंग समूचे तंत्र को भंग नहीं कर सकता। वैसे भी यदि आपातकाल की अवधि को छोड़ दिया जाए तो न्यायपालिका ने सदैव नागरिक अधिकारों का संरक्षण ही किया है।

केशवानंद भारती केस: सरकार संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन मूल ढांचे से छेड़छाड़ नहीं

इस मामले में 1973 के ऐतिहासिक केशवानंद भारती केस को भला कौन भुला सकता है, जिसमें अदालत ने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों पर रक्षा कवच को और मजबूत कर यह आदेश दिया था कि सरकार संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन उसे मूल ढांचे से छेड़छाड़ का कोई अधिकार नहीं। ऐसे में थोड़े राजनीतिक लाभ के लिए न्यायपालिका पर लांछन लगाना उचित नहीं। विचार करें कि विधायिका और कार्यपालिका द्वारा हमारे अधिकारों को चुनौती दिए जाने पर आखिर हम किसकी शरण में जाते हैं?

( लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ हैं )