बिहार, आलोक मिश्रा। Bihar Assembly Election 2020 : जुबान कुछ चखती है तो जायका खुद को समझ में आता है और अगर बोलती है तो दूसरों को। बिहार के इस चुनावी साल में यह अंतर खत्म होता नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में हुनर हाट में लिट्टी-चोखा खाया तो खुद, लेकिन उनके स्वाद का चटकारा बिहार में विपक्ष का टेस्ट खराब कर गया और उसने एक सुर से इसे चुनावी लिट्टी घोषित कर दिया। वहीं इससे पहले जदयू से निकाले गए चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के पटना में पड़े कदम ने पक्ष-विपक्ष दोनों की जुबान को ऐसी धार दी कि प्रशांत किशोर तो अब चुप हैं, लेकिन उनसे अलहदा सुर अभी तक जारी हैं।

बिहार में यह सप्ताह कुछ ऐसा गुजरा, जिससे लगने लगा है कि अब चुनाव नजदीक ही हैं। इसी सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में लिट्टी-चोखा खाया। चूंकि मोदी विरोधियों की नजर में उनका कोई कदम बेमतलब नहीं तो इसलिए बिहारी डिश लिट्टी बिहार चुनाव से जुड़ गई। चूंकि लिट्टी बिहारी अस्मिता से जुड़ी है, इसलिए उसकी बुराई करने की हिम्मत तो किसी में नहीं थी, लेकिन इसे सबने अपने-अपने चश्मे से देखा और अलग-अलग सुर भी निकाले।

सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने पूछा कि क्या इसे बिहार चुनाव की घोषणा मानी जाए? इसके बाद लालू के छोटे बेटे तेजस्वी ने इसके बदले विशेष राज्य का दर्जा, स्पेशल पैकेज, बाढ़ राहत कोष व आयुष्मान भारत के लिए फंड का नजराना मांग लिया तो बड़े बेटे तेज प्रताप कैसे पीछे रहते, उन्होंने ट्वीट कर दिया कि ‘केतनो खाइब लिट्टी-चोखा, बिहार ना भूली राउर धोखा’। बस, यह उन्हीं पर उल्टा पड़ गया और वे ऐसे ट्रोल हुए कि उनके विफल दांपत्य जीवन की लोगों ने बखिया उधेड़कर रख दी। विपक्ष ने अगर इस तरह प्रतिक्रिया दी तो सत्तापक्ष ने इसे सकारात्मक नजरिये से सबके सामने रखा। उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी, जदयू नेता व मंत्री संजय झा आदि इसे किसान-मजदूरों का मान बढ़ाने वाला बता रहे हैं। जनता भी सोशल मीडिया पर इसे अपनी तरह से सामने रख रही है।

मोदी की लिट्टी से पहले यहां हलचल मची पीके के नाम से चर्चित प्रशांत किशोर के पटना आने से। चुनावी रणनीतिकार माने जाने वाले पीके पिछले चुनाव में नीतीश के साथ जुड़े थे और सत्ता हासिल होने के बाद उनकी पार्टी से भी जुड़ गए। चार साल उनका खूब बखान करते रहे, लेकिन कुछ मुद्दों पर विरोध के कारण मुखर हुए और आखिरकार पार्टी से निकाल दिए गए। यह माना जा रहा था कि पीके पटना आकर कुछ जबरदस्त खुलासा करेंगे। लोग उनसे पार्टी बनाए जाने की अटकलें भी लगा रहे थे। पीके आए और नीतीश को पिता तुल्य ठहराते हुए कह गए कि अब नीतीश, वो नीतीश नहीं हैं जो वर्ष 2004 में थे। वे तय करें कि गांधी के साथ हैं, या गोडसे का समर्थन करने वालों के।

पीके ने दल बनाने से तो इन्कार किया, लेकिन साढ़े आठ हजार पंचायतों में दस लाख युवाओं को जोड़ने का अभियान चलाने की घोषणा कर दी। बस, उनके मुंह खोलते ही सियासी भूचाल आ गया। सत्ता पक्ष ने उन्हें याद दिलाया कि जब वे साथ थे तो सरकार बेहतर काम कर रही थी और तब नीतीश कुमार अच्छे थे, लेकिन निकाले जाने पर उन्हें कमियां नजर आने लगीं। किसी ने उन्हें धंधेबाज करार दिया तो किसी ने उत्तर प्रदेश में उनके कांग्रेस के साथ होने पर उसकी हुई हालत की याद दिलाई। दस लाख युवाओं को जोड़ने पर भी तरह-तरह के तर्क दिए गए।

इधर सत्ता पक्ष के इस सुर से विपरीत विपक्ष के बोल निकले, और उसने इसे घर का भेदी के अंदाज में लिया तथा पक्ष में बयान जारी होने लगे। छुटभैये दल उन्हें अपने खेवनहार के रूप में देखने लगे हैं और राजग व महागठबंधन के अलावा तीसरे मोर्चे के गठन को हवा देने लगे हैं। बहरहाल अब बिहार में चुनावी ताप बढ़ने लगा है। एक-दूसरे पर जुबानी हमला करने के अलावा पोस्टरों के जरिये भी एक-दूसरे की खूब बखिया उधेड़ी जा रही है। तीन युवा नेता अपनी चुनावी यात्राओं के जरिये माहौल बनाने में लगे हैं।

जेएनयू प्रोडक्ट कन्हैया कुमार जिलेजिले सीएए और एनआरसी के विरोध में सभा कर रहे हैं तो रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान 21 से घूमने निकल पड़े हैं। तेजस्वी की चुनावी यात्रा 23 से शुरू होने वाली है। राजनीतिक दलों से इतर इस चुनावी साल में अपनी मांगें मनवाने के लिए हड़तालों का सिलसिला भी चल पड़ा है। नगर निगम कर्मी हड़ताल कर पीछे हटे तो अब परीक्षा के समय शिक्षक सड़क पर उतरे हुए हैं। बिजली कर्मी भी उबले हैं, लेकिन समझाने पर फिलहाल मान गए हैं। अभी यह हाल है, आगे-आगे देखिए होता है क्या?

[स्थानीय संपादक, बिहार]

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