पंकज चतुर्वेदी। भारत सरकार वर्ष 2024 तक देश के हर घर में नल के जरिये शुद्ध पेयजल पहुंचाने की जिस योजना पर काम कर रही है, उनकी हकीकत अप्रैल में गरमी शुरू होते ही सामने आने लगी। मध्य प्रदेश के लगभग सभी जिलों में ऐसी योजनाएं दम तोड़ रही हैं। बिहार में टंकी बनाने, पाइप बिछाने का काम तो हो गया, लेकिन अधिकांश घरों में नल सूखे ही रहते हैं। कड़वा सच है कि आज भी देश की करीब 17 लाख ग्रामीण बसावटों में से लगभग 78 फीसद में पानी की न्यूनतम आवश्यक मात्रा तक पहुंच है।

यह भी विडंबना है कि अब तक हर एक को पानी पहुंचाने की परियोजनाओं पर 89,956 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने के बावजूद, सरकार परियोजना के लाभों को प्राप्त करने में विफल रही है। आज महज 45,053 गांवों को नल-जल और हैंडपंपों की सुविधा मिली है, लेकिन लगभग 19 हजार गांव ऐसे भी हैं, जहां साफ पीने के पानी का कोई नियमित साधन नहीं है। प्रत्येक देशवासी को साफ पानी मुहैया करवाना राज्य का दायित्व है, लेकिन 16 करोड़ से अधिक भारतीयों के लिए सुरक्षित पीने के पानी की आस अभी बहुत दूर है। हजारों बस्तियां ऐसी हैं जहां लोग कई-कई किमी पैदल चल कर पानी लाते हैं। ये आंकड़े भारत सरकार के पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के हैं।

यह जान लें कि जब तक नल या टंकी के लिए पानी का जरिया नहीं खोजा जाता और साथ में घर में नल आने के बाद वहां से निकलने वाले गंदे पानी के कुशल निबटान व पुनर्चक्रण की योजना नहीं बनती, ऐसी हर योजना पूरी तरह सफल होगी नहीं। इस योजना के साकार होने में सबसे बड़ा अड़ंगा है कि ग्रामीण भारत की 85 फीसद आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है। एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है। दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूषित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। तीसरा, देश के अधिकांश हिस्से में जिसे भूजल मान कर हैंडपंप लगाए जाते हैं, वह असल में जमीन की अल्प गहराई में एकत्र बरसात का रिसाव होता है जो गरमी आते आते समाप्त हो जाता है।

नल-जल योजना का मूल आधार बरसात के जल को सलीके से एकत्र करना और उसका इस्तेमाल ही है। समझना होगा कि यदि नदी में अविरल धारा रहती है, यदि तालाब में लबालब पानी रहता है तो उसके करीब के कुओं से पंप लगा कर पूर वर्ष घरों तक पानी भेजा जा सकता है। यदि हर घर तक ईमानदारी से पानी पहुंचाने का संकल्प है तो ओवरहेड टैंक या ऊंची पानी की टंकी बना कर उसमें अधिक बिजली लगाकर पानी भरने और फिर बिजली पंप के दबाव से घर तक पानी भेजने से बेहतर और किफायती यह होगा कि हर गांव-मोहल्ले में ऐसे कुएं विकसित किए जाएं जो तालाब, झील, जोहड़, नदी के करीब हों व उनमें साल भर पानी रहे। एक कुएं से करीब 100 घरों को पानी सप्लाई का लक्ष्य रखा जाए व उस कुएं और पंप की देखभाल के लिए उपभोक्ता की ही समिति कार्य करे तो न केवल ऐसी योजनाएं दूरगामी होंगी, बल्कि समाज भी पानी का मोल समझेगा।

हमारे पूर्वजों ने देश-काल परिस्थिति के अनुसार बारिश को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानी पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये आमतौर पर वर्षा-जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘पाट’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘नाड़ा या बंधा’ अब देखने को नहीं मिल रही है। कुंड और बावड़ियां महज जल संरक्षण के साधन नहीं, बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं।

राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुई और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालैंड में जोबो तो लेह-लद्दाख में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश में कुल और और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बांध बनाने की जुगत नाकामयाब होती दिख रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए खास योजना बनाई जाए व इसी पर नल-जल योजना स्थापित कर जिम्मेदारी स्थानीय समाज को दी जाए।

[पर्यावरण मामलों के जानकार]