[ हर्ष वी पंत ]: अब यह तय हो चुका है कि जो बाइडन अमेरिका के अगले राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं। निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी जनादेश स्वीकार करने को लेकर शुरुआती ना-नुकुर के बाद सत्ता हस्तांतरण की तैयारी के लिए मन बना लिया है। इसके बाद संदेह की बची-खुची गुंजाइश भी समाप्त हो गई हैं। चूंकि ट्रंप ने अपने शासनकाल में न केवल घरेलू राजनीति के सांचे को बदल दिया, बल्कि वैश्विक मोर्चे पर अमेरिकी रुख-रवैये को भी नाटकीय रूप से बदल दिया, ऐसे में बाइडन की नीतियों और उनके संभावित प्रशासन की संरचना को लेकर उत्सुकता बढ़ना स्वाभाविक ही है।

ट्रंप जैसे मजबूत प्रतिद्वंद्वी के सामने जीतकर डेमोक्रेट खेमा उत्साहित

फिलहाल सबसे अधिक अटकलें संभावित बाइडन प्रशासन को लेकर लग रही हैं। इसमें संदेह नहीं कि ट्रंप जैसे मजबूत प्रतिद्वंद्वी के सामने जीतकर डेमोक्रेट खेमा उत्साहित है, लेकिन यह जीत भी पार्टी के भीतर खेमेबाजी पर पर्दा नहीं डाल पाई है। वास्तव में इस जीत ने पार्टी के भीतर बंटे धड़ों के बीच विरोधाभासों को और उजागर करने का ही काम किया है। दरअसल बाइडेन को भारी-भरकम जीत हासिल नहीं हुई है और मामूली अंतर से मिली इस जीत पर पार्टी के अलग-अलग धड़े अपना-अपना दावा कर उसका श्रेय ले रहे हैं। प्रगतिशील खेमा इसे अपनी उदार नीतियों की जीत बता रहा है।

पार्टी को मजबूत बनाने के लिए रिपब्लिकन पार्टी के गढ़ वाले राज्यों में सेंध लगानी होगी

वहीं परंपरागत मत वाले नेताओं का मानना है कि राजनीतिक रूप से पार्टी को मजबूत बनाने के लिए उसे रिपब्लिकन पार्टी के गढ़ माने जाने वाले राज्यों में भी सेंध लगानी होगी, जिसके लिए नीतियों और रुख-रवैये में आवश्यक बदलाव की दरकार होगी। इन दोनों गुटों के बीच बाइडन जैसे मध्यमार्गी नेताओं का भी एक समूह है, जो इनके बीच संतुलन साधने में विश्वास रखते हैं। इन स्थितियों को देखते हुए अपने प्रशासन को आकार देना बाइडेन के लिए टेढ़ी खीर साबित होने जा रहा है। जीत का अंतर बहुत ज्यादा न होने की वजह से खुद उनके हाथ भी बंधे हुए ही हैं। ऐसे में फिलहाल सभी की नजरें इसी पर टिकी हैं कि वह अपने प्रशासन में किन चेहरों को शामिल कर किसे कौनसा प्रभार देते हैं। अभी तक छन-छनकर आ रही खबरों के मुताबिक बर्नी सैंडर्स श्रम मंत्री के रूप में उनके साथ जुड़ सकते हैं। कुल मिलाकर पार्टी के सभी धड़ों को साधकर उन्हें समायोजित करना ही बाइडन के समक्ष फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती है। इसके बाद निगाहें उनकी नीतियों पर लगेंगी।

बाइडन ट्रंप की नीतियों को पलट सकते हैं

अमेरिका विश्व व्यवस्था का अघोषित अगुआ रहा है, जिस भूमिका पर ट्रंप के दौर में कुछ प्रश्न चिन्ह लगे। ट्रंप प्रशासन में अमेरिका विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, ईरान परमाणु करार और पेरिस जलवायु समझौते से अलग हो गया। ऐसे कई मामलों में अमेरिकी रुख हैरान करने वाला था। अब उम्मीद है कि बाइडन ट्रंप की इन नीतियों को पलटेंगे। हालांकि इन संस्थाओं से वापस जुड़ने के लिए बाइडेन उनमें सुधारों की मांग को लेकर दबाव अवश्य डाल सकते हैं। वहीं नाटो के मामले में ट्रंप का रुख अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों से अलग नहीं था, बस उनके तेवर जुदा थे। असल में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के जमाने से अमेरिका नाटो में अपने सहयोगियों पर दबाव डालता आया है कि संसाधन संपन्न यूरोपीय राष्ट्र इस सामरिक गठजोड़ में अपना वित्तीय योगदान बढ़ाएं और उसका अधिकांश बोझ अमेरिका पर न डालें। ट्रंप ने भी यही रवैया अपनाया था, लेकिन उनके मुखर और अक्खड़ स्वभाव से यह मसला सुर्खियों में छा गया। बाइडन भी नाटो के मंच पर अमेरिकी हितों की पैरवी जारी रखेंगे, बस उनका तरीका और तेवर बदले हुए होंगे।

बाइडन के नेतृत्व में अमेरिका के साथ भारत की मैत्री और प्रगाढ़ होगी

जहां तक भारत का प्रश्न है तो बाइडन के नेतृत्व में अमेरिका के साथ उसकी मैत्री और प्रगाढ़ ही होगी। हालांकि भारत में कुछ लोग इस मुद्दे को तूल दे रहे हैं कि अपने निर्वाचन के बाद बाइडन अब तक जापान, दक्षिण कोरिया से लेकर जर्मनी और ब्रिटेन समेत कुछ देशों के नेताओं से फोन पर संपर्क साध चुके हैं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी से उन्होंने अब तक बात नहीं की है। ऐसे मुद्दे छेड़ने वाले भला यह क्यों भूल जाते हैं कि ये सब अमेरिका के पारंपरिक साझेदार हैं और इनमें से कुछ देशों की संप्रभु सुरक्षा का दायित्व तक अमेरिका के पास है। ऐसे में इन देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति का संपर्क परंपरा के अनुकूल ही है, जिसे ज्यादा तवज्जो देने की आवश्यकता नहीं। देर-सबेर बाइडन मोदी से भी संपर्क करेंगे। दोनों नेताओं को ओबामा प्रशासन के दौरान परस्पर सक्रियता और संवाद का अनुभव भी है।

भारत की अहमियत और हैसियत अमेरिका के लिए बहुत बढ़ी

बहरहाल भारत अमेरिका का पारंपरिक साझेदार भले न हो, परंतु हाल के वर्षों में उसकी अहमियत और हैसियत अमेरिका के लिए बहुत बढ़ी है। समकालीन भू-राजनीति के दृष्टिकोण से अमेरिका को भारत की महत्ता कहीं अधिक महसूस हो रही है, जिसकी अनदेखी बाइडन भी नहीं करेंगे। ऐसे में सामरिक मोर्चे पर दोनों देशों की सहभागिता निरंतर बढ़ना तय है। कुछ पेच व्यापार संधि को लेकर अवश्य फंस सकता है, क्योंकि ट्रंप प्रशासन के साथ एक लघु व्यापार संधि पर भारत की वार्ता निर्णायक चरण में थी। अब इस प्रक्रिया को नए सिरे से शुरू करना पड़ सकता है। साथ ही इस राह में दोनों पक्षों को कुछ आधारभूत अड़चनें भी दूर करनी होंगी।

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत को बड़ा संबल मिलेगा

इस बीच बाइडन ट्रंप के दौर में भारत को मिले जीएसपी दर्जे को फिर से बहाल करते हैं तो यह बहुत अच्छा प्रतीकात्मक कदम होगा। एच1बी वीजा सहित आव्रजन नीतियों को लेकर भी बाइडन से उदार रवैये की अपेक्षा है। हालांकि अमेरिका में बदली घरेलू राजनीति के चलते इसमें पुराने स्वर्णिम दौर की वापसी संभव नहीं दिखती। इसी तरह यदि बाइडन प्रशांत पार संधि यानी टीपीपी को बहाल करते हैं तो इससे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत को बड़ा संबल मिलेगा।

आतंक के गढ़ पाकिस्तान पर मेहरबानी करना बाइडन के लिए आसान नहीं होगा

चीन से अमेरिका को मिल रही चुनौतियों और अमेरिका में उसके प्रति बढ़ते असंतोष को देखते हुए इसकी उम्मीद कम है कि बाइडन बीजिंग को कोई भी रियायत देंगे। हालांकि पाकिस्तान को लेकर अवश्य हमें बाइडन के रुख पर नजर रखनी होगी। अफगानिस्तान में अमेरिका को अभी भी पाकिस्तान की जिस तरह जरूरत है तो संभव है कि बाइडन पाक को शायद एक अवसर देना पसंद करें, जिससे वह शिकंजा कुछ कमजोर हो, जो ट्रंप ने पाक पर कसा था। अतीत में भी बाइडन पाक को लेकर कुछ दरियादिल रहे हैं, पर तबसे अब तक काफी कुछ बदल चुका है। आतंक के गढ़ पाकिस्तान पर अब मेहरबानी करना बाइडन के लिए आसान नहीं होगा, क्योंकि अमेरिका में लगभग आम सहमति बन चुकी है कि चीन और पाकिस्तान जैसे देश अमेरिका के लिए समस्या और सिरदर्द अधिक हैं।

( लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं )