सुरेंद्र किशोर। विधानसभा चुनाव के बाद बंगाल में जो हुआ या अभी भी हो रहा है, वैसा स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। क्या इससे पहले किसी मुख्यमंत्री ने इस देश के गृह मंत्री को सार्वजनिक रूप से गुंडा कहा? बिल्कुल नहीं, किंतु ममता ने ऐसा कहा। इससे पहले ममता ने 2016 में कोलकाता में सेना के अभ्यास पर सख्त एतराज जताया था। उससे लगा कि उनमें या तो अलगाववादी प्रवृत्ति उभर रही है या फिर मोदी सरकार के विरोध में उन्होंने अपना मानसिक संतुलन ही खो दिया है।

ममता ने आरोप लगाया था कि सेना हमारी सरकार को अपदस्थ करना चाहती है। याद रहे कि तब कोलकाता के टोल प्लाजा पर सेना की तैनाती हुई थी। सेना ने कहा था कि हमारे लोग सिर्फ कोलकाता में ही नहीं, बल्कि देश के कुल नौ राज्यों के 80 स्थानों में ऐसा अभ्यास कर रहे हैं। तत्कालीन रक्षा मंत्री के अनुसार इसकी सूचना बंगाल पुलिस को दे दी गई थी। कालांतर में भी ममता केंद्र और उसकी संस्थाओं से टकराव पर आमादा रही हैं। उन्होंने तमाम केंद्रीय योजनाओं को बंगाल में लागू करने से भी परहेज किया है।

कई बार तो ऐसा लगता है कि ममता बनर्जी को इस देश की न्यायपालिका में भी विश्वास नहीं। अदालती आदेश पर सीबीआइ सारदा और रोज वैली पोंजी घोटालों की जांच कर रही है। इस संबंध में पूछताछ के लिए सीबीआइ कोलकाता पुलिस आयुक्त के आवास पर पहुंची तो सीबीआइ टीम के साथ ही बदसुलूकी हुई। उस पूरे अभियान की कमान भी ममता ने ही संभाली हुई थी। वह सीबीआइ के खिलाफ धरने पर बैठ गईं। क्या आपने इससे पहले कभी किसी मुख्यमंत्री को एक आरोपी अफसर के पक्ष में धरने पर बैठने के बारे में देखा-सुना था? प्रधानमंत्री मोदी जब चक्रवात प्रभावित बंगाल में राहत के लिए अहम बैठक के लिए पहुंचे तो ममता ने न केवल खुद उस बैठक से कन्नी काटी, बल्कि अपने मुख्य सचिव को भी उसमें शामिल नहीं होने दिया।

ममता सरकार और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने विपक्ष विशेषकर भाजपा के खिलाफ जैसी निर्ममता की उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। बंगाल में केंद्रीय मंत्रियों तक के साथ र्दुव्‍यवहार किया गया। चुनाव से पहले, चुनाव के दौरान और चुनाव बाद बंगाल के हालात देखकर तो यही लगता है कि बंगाल और कश्मीर के बीच अंतर मिटता जा रहा है। हालात इतने भयावह हो गए कि राज्य में भाजपा समर्थकों को अपनी जान बचाने के लिए पड़ोसी राज्यों में शरण लेनी पड़ी। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कलकत्ता हाई कोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इस राज्य प्रायोजित ¨हसा की पड़ताल का निर्देश दिया। हद तो तब हो गई जब जांच के लिए गई आयोग की टीम को भी हमलों का शिकार होना पड़ा।

कलकत्ता हाई कोर्ट ने बंगाल पुलिस को निर्देश दिया है कि वह चुनावी ¨हसा के सभी पीड़ितों के केस दर्ज करे। देखना है कि बंगाल पुलिस अदालती आदेश का पालन करके पीड़ितों को न्याय दिलाती है या नहीं? राज्य के मुख्य विपक्षी दल के प्रति शत्रुवत व्यवहार लोकतंत्र के लिए बहुत शर्मनाक है। इस परिदृश्य को देखते हुए यही लगता है कि भविष्य में जब केंद्र सरकार बंगाल में नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और एनआरसी लागू करने की कोशिश करेगी तो बंगाल में अभूतपूर्व ¨हसा देखने को मिल सकती है। इन मुद्दों पर ममता का विरोध इस तथ्य के बावजूद है कि 2005 में उन्होंने ही लोकसभा में अवैध घुसपैठियों का मुद्दा उठाया था। तब राज्य में वाम सरकार थी, जो घुसपैठियों को संरक्षण दे रही थी। अब स्थिति बदल गई है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के एकमुश्त वोट चूंकि ममता की पार्टी को मिलने लगे हैं इसलिए उनका रवैया बदल गया है। ममता अब कह रही हैं कि अगर बंगाल में सीएए और एनआरसी लागू हुआ तो राज्य में खून की नदियां बहेंगी। बंगाल विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतों की अभूतपूर्व एकजुटता का एक बड़ा कारण यह भी रहा। केरल में भी इस बार ऐसी ही एकजुटता दिखी। केरल के मार्क्‍सवादी मुख्यमंत्री पी. विजयन ने कहा है कि वह सीएए और एनआरसी लागू नहीं करेंगे। इन मुख्यमंत्रियों के ऐसे दावे पूरी तरह भ्रामक ही हैं, क्योंकि नागरिकता का मसला राज्यों के क्षेत्रधिकार में आता ही नहीं है।

घुसपैठ की समस्या पर 1992 में केंद्र सरकार ने संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई थी। बैठक में बंगाल से मुख्यमंत्री ज्योति बसु और बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद शामिल हुए थे। तब तय हुआ था कि बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ समन्वित कार्रवाई की जाएगी। उन दिनों बंगाल में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या करीब 50 लाख थी, जिसके अब करीब एक करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। तृणमूल कांग्रेस ने अभूतपूर्व ढंग से अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच अतिवादियों का जमकर तुष्टीकरण किया है। बंगाल में सत्ता में आने के बाद ममता ने राज्य के 35 हजार इमामों के लिए हर माह 2500 रुपये मानदेय का प्रविधान किया। उनकी सरकार ने उर्दू को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया। इसके अलावा भूमिहीन-गृहविहीन इमामों के लिए जमीन देने की घोषणा की और 10 हजार मदरसों को सरकार से संबद्ध किया। तृणमूल कांग्रेस ने प्रतिबंधित संगठन सिमी के नेता रहे एक व्यक्ति को राज्यसभा का सदस्य भी बनवाया। वहीं दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के समय ममता सरकार ने विवादास्पद रुख अपना लिया।

2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तो ममता बनर्जी ने वे सभी काम किए और बयान दिए जो मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ जाते हों, ताकि बंगाल के अल्पसंख्यक मतदाताओं की तृणमूल कांग्रेस के साथ एकजुटता मजबूत हो। कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने हालिया चुनाव नतीजों के बाद कहा कि हमारे समर्थक मुसलमानों ने तृणमूल कांग्रेस को वोट दे दिए। माकपा ने भी अपने मतदाताओं को तृणमूल के पाले में भेज दिया। एक मजबूत वोट बैंक की ताकत से लैस ममता केंद्र सरकार से दो-दो हाथ करने पर अमादा है। शेष भारत के लोग बंगाल में केंद्र सरकार को इस तरह असहाय देखकर इंदिरा गांधी को याद करने लगते है, लेकिन इंदिरा सरकार और मोदी सरकार के बीच एक बड़ा फर्क यह है कि मोदी के पास राज्यसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)