प्रो. रसाल सिंह। भारतवासियों और भारत सरकार के लिए जम्मू-कश्मीर आजादी के बाद से ही चर्चा और चिंता का विषय रहा है। आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में विलय के समय कुछ -अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधान- संविधान में किए गए थे। इन प्रावधानों को अनुच्छेद 370 और धारा 35 ए के नाम से जाना जाता रहा है। इन विशेष प्रावधानों के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को अन्य राज्यों की तुलना में अस्थायी रूप से कुछ अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई थी। जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सबसे पहले और सबसे जोरदार ढंग से इन अस्थायी, किंतु विशेष प्रावधानों का विरोध किया। विगत वर्ष पांच अगस्त को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने इन दोनों अस्थायी और संक्रमणकालीन प्रावधानों को समाप्त कर दिया।

इसके बाद 31 मार्च 2020 को केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (राज्य विधि का अनुकूलन) आदेश-2020 अधिसूचित किया था। इस आदेश के तहत राज्य में पूर्व प्रचलित कुछ कानूनों में आंशिक संशोधन और कुछ कानूनों को पूर्ण रूपेण निरस्त किया गया है। इसी आदेश में जम्मू-कश्मीर प्रशासनिक सेवा (विकेंद्रीकरण और भर्ती) अधिनियम-2010 के खंड 2 में आंशिक बदलाव करते हुए -स्थायी निवासी- शब्द के स्थान पर –अधिवासी- शब्द जोड़ा गया है। इसी संशोधित अधिनियम के खंड 3ए के अंतर्गत –अधिवासी- शब्द को परिभाषित किया गया है। इस परिभाषा के अनुसार कम से कम 15 वर्ष या उससे अधिक समय तक जम्मू-कश्मीर में रहने वाले व्यक्ति –अधिवासी- माने जाएंगे।

इसके अलावा केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के शिक्षण संस्थानों से अपनी 10वीं या 12वीं की पढ़ाई को मिलाकर कम से कम सात वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करने वाले भी अधिवासी माने जाएंगे। कम से कम 10 वर्षों तक जम्मू-कश्मीर में सेवा देने वाले केंद्रीय सेवाओं, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, अन्य उपक्रमों, केंद्रीय विश्वविद्यालयों, अन्य केंद्रीय स्वायत्तशासी निकायों आदि के कर्मचारी, अधिकारी और उनके बच्चे भी अधिवासी माने जाएंगे। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर के राहत एवं पुनर्वास आयुक्त कार्यालय में पंजीकृत विस्थापित भी अधिवासी माने जाएंगे। इस अधिवासन नीति का परिणाम यह होगा कि उपरोक्त श्रेणियों के सभी व्यक्ति निर्धारित प्रक्रिया को पूरा करके अपना अधिवास प्रमाण पत्र प्राप्त कर सकेंगे। ये सभी अधिवासी जम्मू-कश्मीर राज्य के नागरिकों के लिए निर्धारित सभी सुविधाओं के पात्र होंगे। जम्मू-कश्मीर के शिक्षण संस्थानों में प्रवेश, सभी प्रकार की सेवाओं, नौकरियों में भागीदारी कर सकेंगे और घर, जमीन-जायदाद खरीद सकेंगे।

हालिया लागू की गई इस नई अधिवासन नीति से लंबे समय से वंचित व उपेक्षित बहुत से तबकों को लाभ होगा। इन तबकों में वाल्मीकी समुदाय के ऐसे लाखों लोग हैं जिन्हें 1957 में पंजाब से लाकर जम्मू-कश्मीर में बसाया गया था। तत्कालीन सरकार द्वारा यहां के सफाईकर्मियों की लंबे समय से जारी हड़ताल को तोड़ने के लिए ऐसा किया गया था, लेकिन 1957 से 31 मार्च 2020 तक किसी ने अपना घर-द्वार छोड़कर आए इस अभागे दलित समुदाय की सुधि नहीं ली। इसी प्रकार इस नई नीति से पश्चिमी पाकिस्तान से उजाड़े और खदेड़े गए शरणार्थियों को भी उनके मानव अधिकार और नागरिक अधिकार मिल सकेंगे। यह नीति 1990 में कश्मीर घाटी से भगाए गए कश्मीरी पंडितों के जख्मों पर भी कुछ मलहम लगा सकेगी। कश्मीरी पंडितों का उनके घर में किया गया कत्लेआम और फिर क्रूर विस्थापन स्वातंत्र्योत्तर भारत का अपराधबोध है। इस पाप का परिमार्जन अतिआवश्यक है। इसी प्रकार यह नीति जम्मू-कश्मीर से बाहर विवाह करने वाली लड़कियों और उनके बच्चों के अधिकारों का संरक्षण भी सुनिश्चित करती है। इससे पहले उन्हें उनके इन अधिकारों से वंचित कर दिया जाता था। अब ऐसा नहीं हो सकेगा।

जम्मू-कश्मीर केंद्रित राजनीति करने वाले कई राजनीतिक दलों ने केंद्र सरकार की नई अधिवास नीति का विरोध किया है। वास्तव में ये दल विरोध तो अनुच्छेद 370 और धारा 35ए को हटाए जाने का भी कर रहे हैं, परंतु यह विरोध वैधानिक और सत्यप्रेरित न होकर राजनीतिक और स्वार्थ प्रेरित है। वे साधनों, संसाधनों और शासन-प्रशासन में अपना विशेषाधिकार और वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। उनका तर्क यह है कि इस नीति से जम्मू-कश्मीर की जनसांख्यिकी बदल जाएगी। बाहर के लोग यहां आकर बस जाएंगे और यहां के साधनों-संसाधनों को हड़प लेंगे।

वस्तुतः उपरोक्त सभी तर्क खोखले हैं। भारत में संघीय व्यवस्था है। एक राज्य के नागरिकों को कहीं भी बसने, जमीन-जायदाद खरीदने, नौकरी-व्यवसाय करने की आजादी और अधिकार संविधान प्रदत्त हैं। अपने ही देश के नागरिक –बाहरी- कैसे हो जाते हैं, किनके लिए और क्यों हो जाते हैं, यह विचारणीय प्रश्न है। आज भारत के कोने-कोने से आकर लोग जम्मू-कश्मीर की सेवा कर रहे हैं। यहां घरेलू कामगारों, ढांचागत निर्माण मजदूरों और कृषि मजदूरों के रूप में बहुत बड़ी तादाद उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि के प्रवासियों की है, बल्कि बहुत से उद्योग और निर्माण कार्य पूरी तरह उनके ऊपर ही निर्भर हैं। जो अपने जीवन का सर्वोत्तम यहां लगा रहे हैं, अगर वे यहां अपने अधिकार नहीं मांगेंगे तो और कहां मांगेंगे? क्या जम्मू-कश्मीर के नागरिक दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु में नौकरी और व्यवसाय नहीं करते? क्या वे भारत के अन्य शहरों में जमीन-जायदाद नहीं खरीदते? क्या देश के किसी भी कोने में उनके बसने, काम करने पर पाबंदी है? यदि अन्य राज्य भी अपनी-अपनी सीमाओं पर दीवारें खड़ी कर दें तो फिर एक राष्ट्र और राष्ट्रीयता का क्या अर्थ रह जाएगा? एक राष्ट्र में छोटे-छोटे स्वार्थों और सहूलियतों किलेबंदी की नीति और राजनीति अब अतीत का अध्याय है। युवा पीढ़ी नए अवसर और प्रतिस्पर्धा चाहती है। शिक्षण संस्थाएं और उद्योग चाहती है। इन चाहतों को पूरा करने के लिए पूंजी निवेश आवश्यक है। उसके लिए हमें –बाहरियों- का स्वागत करने का मनोभाव बनाना होगा।

[अधिष्ठाता, छात्र कल्याण, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय]