ब्रिगेडियर आरपी सिंह। आज बांग्लादेश अपनी आजादी की स्वर्ण जयंती मना रहा है। बांग्लादेश सृजन के बीज भारत विभाजन के साथ ही पड़ गए थे। ऐसा इसलिए, क्योंकि पाकिस्तान ने आरंभ से ही बंगाली मुसलमानों के प्रति भयंकर पक्षपात और उनकी अनदेखी करनी शुरू कर दी थी। यह सब जानबूझकर किया गया। दिसंबर 1970 में पाकिस्तान के आम चुनाव हुए थे। उसमें शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को पूर्वी पाकिस्तान की 169 में से 167 सीटें मिलीं, जिससे उन्हें 314 सदस्यीय पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में पूर्ण बहुमत मिल गया। वहीं पश्चिमी पाकिस्तान की 144 सीटों में जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को 86 सीटें ही मिलीं। सैन्य तानाशाह याह्या खान और भुट्टो ने मुजीबुर्रहमान को प्रधानमंत्री बनाने के बजाय 26 मार्च, 1971 की मध्यरात्रि को ‘आपरेशन सर्चलाइट’ नाम से सैन्य मुहिम छेड़ दी। शेख मुजीब को जेल में डाल दिया गया, लेकिन गिरफ्तारी से पहले ही उन्होंने बांग्लादेश की स्वतंत्रता का एलान कर दिया, जिसने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का उद्घोष किया।

मैं 26 मार्च से लेकर 16 दिसंबर को युद्ध के समापन तक उसमें सक्रिय रहा। 26 मार्च को मेरी यूनिट की तैनाती भारत-पूर्वी पाकिस्तान सीमा पर हुई। निर्वासित बांग्लादेश सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में सुरक्षा का प्रभार मेरे पास ही था। 20 अप्रैल से मैंने शरणार्थी शिविरों में सामान्य प्रशासन का सहयोग किया। जुलाई के पहले हफ्ते में मुङो मुक्ति वाहिनी के अधिकारी प्रशिक्षण प्रभाग में प्रशिक्षक बनाया गया, जिसमें सौ से अधिक अधिकारी प्रशिक्षित किए गए। शेख मुजीब के बेटे और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के भाई शेख कमाल भी उसमें मेरे कैडेट थे। मेरी यूनिट सेना मुख्यालय के लिए रिजर्व के तौर पर थी और हमने युद्ध के आरंभिक चरण में हिस्सा नहीं लिया। मैंने स्वेच्छा से 850 स्वतंत्रता सेनानियों के उस दस्ते की कमान संभाली, जिसने 4 से 15 दिसंबर के बीच रंगपुर सेक्टर के एक बड़े हिस्से को मुक्त कराया।

संघर्ष के वे 266 दिन भीषण रक्तपात के साक्षी बने। इस दौरान तीस लाख बांग्लादेशियों की हत्या हुई। चार लाख से अधिक महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुए और 70 हजार से अधिक ‘वार बेबीज’ पैदा हुए। नरसंहार से बचने के लिए एक करोड़ से अधिक बांग्लादेशियों ने भारत में शरण ली। युद्ध के दौरान तमाम वृद्ध जनों से मेरा संवाद हुआ, जिन्होंने सिहरन पैदा करने वाले वृत्तांत सुनाए। उन्होंने बताया कि पाकिस्तानी सैनिकों ने कैसे उनकी आंखों के सामने ही उनके जिगर के टुकड़ों को मार डाला। बहू-बेटियों के साथ वीभत्स दुष्कर्म किया। बच्चों को हवा में उछालकर उन्हें संगीनों से चीर दिया। पाकिस्तानी निर्ममता का काला चिट्ठा ऐसा है, जिसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है। भारत में घुसने के प्रयास में कंधे पर अपने बच्चे की लाश को लादे हुए एक मां को देखकर मेरी आंखें पथरा गईं। रूह को थर्रा देने वाले क्रूरता के उस कलंकित अध्याय की कड़वी यादें आज भी मेरे जेहन में ताजा हैं। पाकिस्तान सरकार इस पूरे प्रकरण पर न केवल मौन साधे रही, बल्कि उसने जनता तक भी इस पाशविकता की

खबरें नहीं पहुंचने दीं, जिसका ही परिणाम है कि आम पाकिस्तानी आज तक उससे बेखबर हैं।

बांग्लादेशियों के इतिहास के सबसे अंधियारे दौर में भारत ने उनका पूरा साथ दिया। मुजीब सरकार को कोलकाता से संचालन के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं। भारतीय सेना ने हरसंभव सहयोग दिया। 30 नवंबर को पूर्वी कमान के प्रभारी ले.ज. जेएस अरोड़ा के नेतृत्व में भारत-बांग्लादेश बल की संयुक्त कमान का गठन हुआ।  बांग्लादेश की मुक्ति के लिए भारतीय सेना ने मुक्ति वाहिनी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। 4 दिसंबर से संयुक्त बलों ने चौतरफा धावा बोला। भारतीय नौसेना ने बंगाल की खाड़ी की नाकेबंदी कर दी तो वायु सेना ने पाकिस्तानियों को आसमान में ही खदेड़ दिया। बांग्लादेश को मात्र 12 दिनों में स्वतंत्र करा लिया गया और पाकिस्तान के 93,500 सैनिकों को शर्मनाक रूप से आत्मसमर्पण करना पड़ा। यह जीत सभी धाराओं के विपरीत मिली। अमेरिका ने अपनी नौसेना के सबसे घातक सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना कर दिया था।

ब्रिटेन ने भी रायल नेवी आर्माडा को अरब सागर की ओर भेजा। सोवियत सेनाओं के दखल से दोनों देशों के बेड़ों को वापस जाना पड़ा।

युद्ध के बाद 93,500 युद्ध अपराधी भारतीय शिविरों में रहे। शेख मुजीब की जनवरी 1972 में जेल से रिहाई हुई। उन्होंने युद्ध अपराधियों के ट्रायल की औपचारिक प्रक्रिया शुरू की। भारत ने पहले दौर में जनरल नियाजी सहित 150 युद्ध अपराधियों को सौंपने पर सहमति जताई। हालांकि 2 जुलाई, 1972 को शिमला समझौते के दौरान भुट्टो इंदिरा गांधी को बरगलाने में सफल हुए कि पाकिस्तान युद्ध अपराधियों के खिलाफ अपने यहां ही मामले चलाएगा। शेख मुजीब के लिए भुट्टो के पास अलग तिकड़मी योजना थी। पश्चिमी पाकिस्तान में सेवारत बांग्लादेशी सैन्य अधिकारियों को भुट्टो ने प्रताड़ना केंद्रों में रखा। भुट्टो के अनुरोध पर चीन ने बांग्लादेश की संयुक्त राष्ट्र सदस्यता निरस्त करने को लेकर वीटो तक कर दिया।

दरअसल युद्ध अपराधियों को रिहा करना बहुत बड़ी भूल थी। कुछ वरिष्ठ अधिकारियों को छोड़कर अधिकांश की सेवा बहाल रखी गई। वे आइएसआइ-सीआइए के साझा षडयंत्रों का हिस्सा बन गए। ऐसी ही एक साजिश में 15 अगस्त 1975 को शेख मुजीब और उनके 27 रिश्तेदारों की हत्या कर दी गई। उन्होंने पंजाब में सिख उग्रवाद को भी भड़काया, जिसके परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी की हत्या हुई। यही वे लोग थे जिन्होंने जम्मू-कश्मीर में आतंक की विषबेल बोई और अफगानिस्तान में तालिबान को तैयार किया। करीब 90 युद्ध अपराधी अभी भी जीवित हैं। उन्हें लेकर बांग्लादेश सरकार के हाथ त्रिपक्षीय समझौते के कारण बंधे हुए हैं। ऐसे में नागरिकों को ही आवाज उठानी होगी। अगर नाजियों को 75 साल बाद 2020 में माफी मांगने के लिए बाध्य किया जा सकता है तो बांग्लादेश के खिलाफ अत्याचार के लिए 50 साल बाद पाकिस्तान से वैसी ही माफी और मुआवजे के लिए भी दबाव बनाया जाना चाहिए। इस नेक अभियान में प्रत्येक भारतीय की भागीदारी आवश्यक है।

(लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं)