[अश्विनी कुमार]। अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सभी पुनर्विचार याचिकाएं खारिज कर दी हैं। अब याचिकाकर्ताओं के पास क्यूरेटिव पिटीशन का विकल्प बचा है। पता नहीं इस विकल्प का इस्तेमाल किया जाएगा या नहीं? जो भी हो भारत जैसे देश में जहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण चरम पर होने के साथ ही धार्मिक गतिविधियों का बोलबाला हो और जहां इनसे जुड़ी भावनाओं को भुनाकर एक खास किस्म की राजनीति खूब पनप रही हो, वहां अयोध्या मामले में आया फैसला निश्चित रूप से एक बड़ी राहत कहा जा सकता है।

अदालत ने बहुत खास पहलुओं के साथ इस मामले में फैसला सुनाया। उसने इतिहास के चश्मे से प्राचीन भारत में आए यात्रियों के ब्योरे के साथ-साथ पुरातत्व और विधिक बिंदुओं का संज्ञान लिया। आमतौर पर इसे संतुलित निर्णय बताते हुए कहा जा रहा है कि इसके माध्यम से अदालत ने इंसाफ किया।

वहीं, आलोचकों की दलील है कि इस फैसले में विधि के सिद्धांतों का उल्लंघन किया गया। वे मानते हैं कि अदालत ने समान नागरिकता के संवैधानिक संकल्प को पूरा नहीं किया। उनके मुताबिक यह निर्णय ‘उचित क्षतिपूर्ति’ के पैमाने पर भी खरा नहीं उतरता और यह किसी धर्मनिरपेक्ष एवं बहुलतावादी राजव्यवस्था में किसी राजनीतिक संघर्ष का स्थाई समाधान नहीं है।

संतुलन साधते हुए अदालत ने किया फैसला

यहां तक कहा जा रहा है कि बहुसंख्यक भावनाओं के आगे न्यायिक कसौटी को तिलांजलि दे दी गई। अधिकांश न्यायिक फैसलों की व्यापक समीक्षा होती है। उन पर तमाम सवाल उठते हैं। इस लिहाज से यह कोई अपवाद नहीं कि इस मामले में भी कोई प्रश्न न उठाया जाए। भले ही दावा किया गया हो कि निर्णय ‘तथ्यों एवं साक्ष्यों के आधार’ पर हुआ, फिर भी यह आलोचकों के गले नहीं उतर रहा। दोनों पक्षों को न्याय देने के लिहाज से संतुलन साधने में अदालत ने फैसला किया कि विवादित स्थल को राम मंदिर निर्माण के लिए दिया जाए। 

वहीं, मुस्लिम पक्ष को 1934 और 1939 में मस्जिद को हुए नुकसान एवं 1992 में उसके विध्वंस की क्षतिपूर्ति के रूप में अयोध्या में एक महत्वपूर्ण स्थान पर ही पांच एकड़ जमीन देने का आदेश दिया। इस मामले में ‘पूर्ण न्याय’ करने के मकसद से सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत मिली स्वविवेक के अधिकार की शक्ति का उपयोग किया। अदालत ने विवादित जमीन को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए यह पाया कि मुस्लिम पक्ष 1857 से पहले आंतरिक चबूतरे पर अपने नियंत्रण के पक्ष में ठोस दलील पेश नहीं कर सका, जिस पर सोलहवीं शताब्दी में निर्माण हुआ था।

अदालत की निर्णायक भूमिका का करना होगा आकलन 

सदियों से लंबित मामले पर फैसले की व्यापक पड़ताल समीचीन लगती है। इसमें न्यायिक प्रक्रिया विशेषकर अदालत की निर्णायक भूमिका का आकलन करना होगा। हमें एक प्रश्न अवश्य पूछना चाहिए कि इस मामले से जुड़े ऐतिहासिक संदर्भों और भावनाओं को देखते हुए क्या अदालत न्याय के निर्णायक माध्यम की भूमिका में खरी उतरी है? विधि, समानता एवं भली मंशा वाले फैसले को लेकर अदालत ने अपने निष्कर्ष के पक्ष में तमाम विस्तृत कारण गिनाए हैं। मालिकाना हक पर निर्णय को लेकर उसकी राय है कि इससे सामाजिक जुड़ाव एवं धार्मिक सौहार्द बढ़ेगा।

क्षेत्रीय एवं धार्मिक पहचानों का संगम 

अदालत इस तथ्य से भलीभांति परिचित थी कि इस निर्णय की व्यापक समीक्षा होगी। इसे ध्यान में रखते हुए उसने कहा, ‘न्याय ही वह बुनियाद है जो किसी भी न्यायिक कवायद की कड़ी को जोड़ती है और उसी पर विधि व्यवस्था की वैधानिकता टिकी होती है।’ उसका कहना है कि, ‘भारत में तमाम क्षेत्रीय एवं धार्मिक पहचानों के संगम से बहुभाषिक एवं बहुसांस्कृतिक स्वरों का कोलाहल है। भारतीय नागरिकों को व्यक्तिगत रूप में एवं भारत को एक राष्ट्र के तौर पर इनके भीतर शांति के भाव को अवश्य महसूस करना चाहिए। ऐसे समाज के लिए पूर्ण संतुलन साधने की दिशा में हमें न्याय, समानता एवं भली मंशा का समावेश करना होगा।’ (पैरा 674) इसमें संदेह नहीं कि व्यावहारिक एवं न्यायोचित समाधान तलाशने को लेकर अदालत की उत्कंठा प्रत्यक्ष दिखती है।

समानता के सिद्धांत का लिया सहारा 

ऐसे में न्यायिक यथार्थवाद की जिस बुनियाद पर अदालत ने जो ठोस निष्कर्ष निकाला उसकी आधारभूत संकल्पना में खोट निकालना मुश्किल है। ऐतिहासिक गलती को सुधारने के लिए उसने समानता के सिद्धांत का सहारा लिया। इसमें उसे ‘न्याय के संवैधानिक मूल्य, भाईचारा, मानवीय गरिमा और धार्मिक मान्यताओं की समानता’ की राह में संभावनाएं और तार्किकता दिखी (पैरा 788)। इस फैसले के एक खास पहलू ने इसे और मजबूती प्रदान की। वह था सभी न्यायाधीशों द्वारा सर्वसम्मति से निर्णय करना। ऐसी आम सहमति विरले ही देखने को मिलती है। इसमें अदालत यथार्थता एवं प्रयोगधर्मिता, स्थायित्व एवं परिवर्तनशीलता और तर्क एवं भावनाओं के बीच सही संतुलन स्थापित करती है। इजरायली विधिवेत्ता अहरोन बराक ने इन पहलुओं का उल्लेख ‘द जज इन डेमोक्रेसी’ में किया है।

किसी राष्ट्रीय चुनौती के समाधान के लिए यदि हम सर्वोच्च न्यायिक संस्था में भरोसा रखते हैं तो फिर उसकी न्यायिक दक्षता एवं बुद्धिमता को भी स्वीकार करना होगा, भले ही उसका निर्णय आदर्श न हो। यही आगे बढ़ने का सबसे सही तरीका है। हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि न्यायाधीश भी आम इंसान हैं। वे स्वयं को इतिहास या समाज से अलग नहीं कर सकते। वे सामयिक धाराओं से भी अप्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते जो वक्त-वक्त पर अपनी करवटें बदलती रहती हैं।

सत्य और न्याय के मायने भी होते हैं तय 

इन धाराओं के हिसाब से अक्सर सत्य और न्याय के मायने भी तय होते हैं। न्याय की सामान्य स्वीकार्य अवधारणा के अनुसार न्यायाधीश कानून को जीवंत बनाए रखते हुए अतीत, वर्तमान और भविष्य को आबद्ध रखते हैं। ऐसे में अपने कर्तव्यों के दायरे में सही संतुलन साधने के लिए वे सामाजिक संवेदनाओं एवं आस्था के ज्वार से जुड़े दावे को लोकतांत्रिक सिद्धांतों से आवरणबद्ध करते हैं। यहां शांति एवं सामाजिक सौहार्द सुनिश्चित करने की मंशा के साथ अदालत ने सही लक्ष्य संधान किया है।

अदालत पर बढ़ता अनावश्यक बोझ

यह निर्णय ‘अनियमित भावनाओं’ का परिणाम नहीं, बल्कि ‘सामाजिक ढांचे को दुरुस्त रखने की मौलिक आवश्यकता’ की ओर उन्मुख है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय का निर्णायक पड़ाव उसकी अचूकता की पुष्टि नहीं करता, लेकिन कानून पर उसके बाध्यकारी प्रवर्तन को लेकर केवल संवैधानिक अराजकता की कीमत पर ही सवाल उठाए जा सकते हैं। राष्ट्र की चेतना के संरक्षक के रूप में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका को लेकर कुछ सवाल भले ही उठते हों, लेकिन एक मजबूत फैसले से जुड़े मामले को दोबारा खोलने की व्यर्थ कोशिश उन दरारों को चौड़ा करने का ही काम करती जिन्होंने हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को आहत किया। पहले ही बोझ तले दबी अदालत पर भी इससे और अनावश्यक बोझ बढ़ता।

(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)