तरुण गुप्त। चुनावी महापर्व के दौरान राजनीतिक विश्लेषण और अटकलों के साथ-साथ सूचनाओं के प्रवाह के चलते लोग अक्सर या तो किसी एक खेमे से जुड़कर ध्रुवीकृत हो जाते हैं या फिर दुविधा के शिकार बन जाते हैं। ऐसे में सबसे पहले यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी मतदाता अनिवार्य रूप से मतदान करें। मतदान से बचना या फिर नोटा विकल्प चुनना कर्तव्य से विमुख होना है। इससे निराशा का आभास होता है। अगर किसी समाज के कुछ लोग शंकालु हो जाएं तो भी वह प्रगति कर सकता है, लेकिन उसमें निराशा के लिए कोई  जगह नहीं हो सकती। अब मतदान के सैद्धांतिक पहलुओं को किनारे रखकर उसके गणितीय आंकड़ों पर चर्चा करते हैं।

मान लीजिए किसी निर्वाचन क्षेत्र में सौ लोग रहते हैं और उनमें से 70 प्रतिशत यानी 70 मतदाता हैं। वहां यदि 60 प्रतिशत मतदान हुआ तो इसका अर्थ है केवल 42 ने मत दिया। भारत में बहुदलीय तंत्र और फस्र्ट पास्ट द पोस्ट यानी सबसे अधिक मत हासिल करने पर जीत वाली प्रणाली होने की वजह से अक्सर यह दिखता है कि महज 33 प्रतिशत यानी लगभग 14 वोट पाने वाला प्रत्याशी भी जीत सकता है। सौ में 30 लोग बालिग नहीं हैं जबकि 28 मतदाताओं ने अपना मत प्रयोग नहीं किया। जिन 42 ने वोट दिया उनमें से भी 28 ने उस प्रत्याशी को खारिज किया और किसी अन्य का चयन किया, परंतु केवल 14 वोटों के दम पर ही उस प्रत्याशी का चुनाव हो जाता है। आखिर ऐसा विधि निर्माता कितने सच्चे अर्थों वाला जनप्रतिनिधि होगा? अधिकांश लोगों ने उसके बजाय किसी अन्य को वरीयता दी, लेकिन फर्स्ट पास्ट द पोस्ट और बहुदलीय प्रणाली की जुगलबंदी उनकी पसंद पर पानी फेर देती है।

हमारी विविधता और संघीय ढांचे को देखते हुए द्वि-दलीय व्यवस्था की ओर कदम बढ़ाना व्यावहारिक नहीं होगा और फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम भले ही आदर्श न हो, लेकिन लोकतंत्र चलाने के लिए यही बेहतरीन विकल्प है। फिर भी लक्ष्य यही होना चाहिए कि जनप्रतिनिधि वही बने जिसका चुनाव ज्यादा से ज्यादा लोगों के मतों से हो। इसका सबसे सरल तरीका यह है कि अधिक से अधिक मतदान किया जाए। वास्तव में यही एकमात्र पहलू है जो हमारे नियंत्रण में है। अगर हम शत प्रतिशत मतदान सुनिश्चित करने के साथ ही उपरोक्त उदाहरण के अन्य अनुपातों को यथावत रखें तब भी इतना तो हो ही जाता है कि पहले जो प्रत्याशी 14 वोट पाकर जीत रहा था उसका आंकड़ा बढ़कर 23 तक जा सकता है। हालांकि यह भी आदर्श स्थिति नहीं, लेकिन इस अपूर्ण संसार में अभीष्ट की अधिक प्राप्ति अवश्य होगी। इसके लिए इलेक्ट्रॉनिक मतदान का प्रावधान करना होगा ताकि अधिक से अधिक लोग मतदान कर सकें। हालांकि जब तक ऐसा नहीं होता तब तक सभी मतदाताओं को चाहिए कि वे अपने मत का प्रयोग हर हाल में करें। एक ऐसे संसदीय चुनाव में जहां लगभग अखिल भारतीय स्तर पर मौजूदगी वाले दो राष्ट्रीय दल एवं विभिन्न भौगोलिक अंचलों में ढेरों क्षेत्रीय दल भी चुनावी प्रतिस्पर्धा में जुटे हों वहां किसी एक विकल्प को चुनना खासा जटिल हो जाता है और यह सवाल खड़ा हो जाता है कि वोट करें तो किसके लिए?

आम धारणा यह है कि स्पष्ट जनादेश वाली स्थिर सरकार ही निर्णायक नेतृत्व के लिए आवश्यक है। हालांकि समय के साथ इसका विरोधाभासी दृष्टिकोण भी विकसित हुआ है। कुछ जानकारों का मानना है कि एक पार्टी की सरकार में तानाशाही प्रवृत्ति पनपने की आशंका होती है। पूर्ण बहुमत वाली सरकारों के संदर्भ में उनका यह भी तर्क है कि वे लोकतांत्रिक संस्थानों को समुचित सम्मान न देकर उनके राजनीतिकरण की कोशिश करती हैं। ये जानकार गठबंधन सरकारों का इस आधार पर महिमामंडन करते हैं कि वे भारत के संघीय ढांचे का कहीं बेहतर प्रतिनिधित्व करती हैं और उनमें दबाव एवं जुड़ाव के अंतर्निहित तंत्र से किसी को तानाशाह बनने से भी रोका जा सकता है। ये तर्क कम कुतर्क ज्यादा हैं। ऐसे लोगों में एक तबका अपने हितों से प्रेरित है, जो मौजूदा सरकार और उसके शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ अपनी नफरत के भाव के चलते एकजुट है। किसी पूर्ण बहुमत सरकार के स्थान पर अस्थिरता को प्राथमिकता देना तार्किक कम और व्यक्तिगत धारणा और द्वेष आधारित अधिक प्रतीत होता है।

अक्सर कहा जाता है कि अतीत में भारत ने गठबंधन सरकारों के दौर में तेज वृद्धि हासिल की। इसकी भी पड़ताल करते हैं। 1989 से 1999 के बीच पांच आम चुनाव हुए। इस दौरान छह प्रधानमंत्री बने। चुनावों के चलते सरकारी खजाने पर पड़े बोझ के अलावा हम अस्थिर सरकारों के कारण चुकाई जाने वाली आर्थिक कीमत से भी परिचित हैं। कोई यह दलील भी दे सकता है कि 1991-96 के दौरान नरसिंह राव सरकार, 1998 से 2004 के बीच वाजपेयी सरकार के दो कार्यकाल और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस साल रही संप्रग सरकार गठबंधन की होने के बावजूद कमोबेश स्थिर रहीं और उन्होंने कई मोर्चों पर शानदार प्रदर्शन किया। इन सरकारों की विशेषताओं और विफलताओं पर विस्तार से चर्चा करने के बजाय हम यह देखें कि इनमें एक अहम समानता यह थी कि ये गठजोड़ असंगत मिश्रण नहीं थे और इनका नेतृत्व ऐसी मजबूत पार्टियां कर रही थीं जो अपने बल पर बहुमत से दूर होने के बावजूद संख्या बल में काफी दमदार थीं। इस लिहाज से गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए उपयुक्त थीं। गठबंधन सरकारों की वास्तविक तस्वीर देखने के लिए हमें 1989 से 1991 के बीच वीपी सिंह सरकार और चंद्रशेखर सरकार, 1996-1998 के बीच देवेगौड़ा और गुजराल सरकार और उससे भी पहले 1977-80 के बीच मोरारजी देसाई और चरण सिंह सरकार के प्रदर्शन पर भी नजर डालनी होगी। हमें असफल प्रयोगों को विस्मृत नहीं करना चाहिए।

यह सही है कि पूर्ण बहुमत वाली एकदलीय सरकार को तानाशाह नहीं बनने दिया जा सकता। निगरानी और नियंत्रण का संतुलन कायम रहना चाहिए और इसके लिए संविधान ने स्वतंत्र न्यायपालिका, प्रमुख लोकतांत्रिक अंगों की संस्थागत स्वायत्तता, मुखर मीडिया, मूल अधिकार और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की व्यवस्था की है। लोकतंत्र को और बेहतर बनाने के लिए स्थिरता से समझौता करने के बजाय उसे और प्रभावी बनाया जा सकता है। बहुमत न मिलने पर तत्काल चुनाव टालने और सरकारी खर्च बचाने के लिए गठबंधन सही हो सकता है, लेकिन चुनाव से पहले ही खंडित जनादेश की अभिलाषा और उसके पक्ष में तर्क देना मूर्खता ही कहा जाएगा। यह तो 23 मई को ही स्पष्ट होगा कि जनादेश बहुमत वाली सरकार के लिए होगा या फिर गठबंधन के लिए, लेकिन याद रखें कि पूर्णता सिर्फ कल्पनाओं में होती है। क्या केवल इस कारण हम उत्कृष्टता के लिए प्रयास करना बंद कर दें?