डॉ. जयजित भट्टाचार्य। हर गुजरते दिन के साथ जेट एयरवेज का संकट और गहराता जा रहा है जिससे न केवल मुसाफिरों की परेशानी बढ़ रही है, बल्कि कंपनी के तमाम कर्मियों के सामने रोजगार का संकट उत्पन्न हो गया है। इस पूरे घटनाक्रम से भारत में नागर विमानन कारोबार के ढांचे पर भी नए सिरे से सवाल खड़े हो रहे हैं। आखिर देश में विमान यात्रियों की बढ़ती संख्या और विमानन बाजार में तकरीबन 24 प्रतिशत की सालाना वृद्धि के बावजूद ऐसे कौन से कारण हैं कि एक के बाद एक विमानन कंपनियों पर ग्रहण लगता जा रहा है? क्या वजह है कि सभी विमानन कंपनियां मुनाफे के लिए तरस रही हैं? इंडिगो जैसी अलग कारोबारी ढांचे वाली कंपनी और नए कारोबारी दर्शन के साथ शुरू हुई एयर विस्तारा को भी परिचालन के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। कारोबारी प्रबंधन के जानकारों से लेकर नियामक तक विमानन कंपनियों में संकट की आहट को आखिर समय रहते क्यों नहीं भांप पा रहे हैं? क्या इस क्षेत्र के लिए सरकार की ओर से कारगर नीतियां नहीं बनाई जा रही हैं? इनकी पड़ताल करनी होगी।

शुरुआत कड़ी प्रतिस्पर्धा के साथ करते हैं। अपना दायरा बढ़ाने के लिए कंपनियों को ज्यादा उड़ानें संचालित करनी पड़ती हैं। ज्यादा उड़ानों से सीटें भी स्वाभाविक रूप से बढ़ेंगी तो उन्हें सस्ते में भी बेचना होगा, क्योंकि खाली उड़ान भरने से कंपनियों को मुनाफा तो दूर लागत की भरपाई तक मुश्किल हो जाएगी। यह कुछ वैसे ही है कि अगर आपने फूल बेचे नहीं तो वे सड़ जाएंगे। उन्हें एक से बढ़कर एक पेशकश करनी पड़ती हैं जो उनके बहीखातों की शक्ल बिगाड़ती हैं। विमानों में इस्तेमाल होने वाले ईंधन एयर टरबाइन फ्यूल यानी एटीएफ पर भारी-भरकम टैक्स भी कंपनियों के लिए एक आफत है। भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां एटीएफ पर ऊंचा कर वसूला जाता है। विमानन कंपनियों के लिए एटीएफ की अहमियत इसी से समझी जा सकती है कि उनकी लागत में करीब 40 प्रतिशत हिस्सा एटीएफ का होता है। अगर एटीएफ पर ज्यादा टैक्स देना होगा तो कंपनियों की कमाई में सेंध लगना स्वाभाविक है। इसका सरकार को भी एक नुकसान यह होता है कि अधिकांश विदेशी कंपनियां भारत में एटीएफ भराने से अमूमन गुरेज करती हैं तो जो थोड़ा बहुत कर मिलता वह भी हाथ से निकल जाता है। इसी तरह देसी कंपनियों के विमान भी विदेशी उड़ानों पर वहीं से एटीएफ भराकर लौटते हैं। अधिकांश कंपनियों की बीमारी की जड़ इसी एटीएफ में छिपी है।

अक्सर एटीएफ के लिए वित्तीय संसाधन न होने के कारण उनकी सेवाएं तक ठप हो जाती हैं। विमानन कंपनियों की बदहाली में इन कंपनियों का प्रबंधन ढांचा भी कम जिम्मेदार नहीं। ऐसा नहीं है कि भारत में विमानन सेवाएं दुनिया में सबसे सस्ती हैं, फिर भी इन कंपनियां का वित्तीय गणित गड़बड़ाने में प्रबंधन ढांचे की अनदेखी नहीं की जा सकती। कई उद्योगों में भारत को इसलिए बढ़त हासिल है कि उनके लिए यहां सस्ता श्रम सुगमता से उपलब्ध है, लेकिन विमानन उद्योग की तस्वीर अलग है। यहां पायलट का वेतन अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है जबकि भुगतान क्षमता वैसी नहीं है। हालांकि विमानन सेवाओं की संवेदनशीलता को देखते हुए इसे खारिज भी नहीं किया जा सकता।

एयरपोर्ट शुल्क भी भारत में विमानन उद्योग पर भारी पड़ रहा है। बड़ी तादाद में यात्री होने के बावजूद एयरपोर्ट संचालक कंपनियां ऊंचा शुल्क वसूल रही हैं। दिल्ली हवाई अड्डे का ही उदाहरण लें जहां सालाना लगभग छह करोड़ यात्री सफर करते हैं। क्षमता उपयोगिता पर दृष्टि डालें तो वर्ष 2017 में यह 90 प्रतिशत थी जो वैश्विक औसत से काफी ऊंची थी। ऐसे में इतनी भारी संख्या यानी वॉल्यूम ग्रोथ होने के बावजूद एयरपोर्ट पर भारी शुल्क अखरता है जबकि हाई वॉल्यूम होने के कारण यह कम होना चाहिए जैसे दूरसंचार में है। अक्सर विमानों में आने वाली तकनीकी खराबी भी कंपनियों पर भारी पड़ती है। कुछ वक्त पहले एयरबस नियो ए 320 विमानों के इंजन में आई कमी से कुछ कंपनियां अभी उबरी भी नहीं थीं कि अब बोइंग 737 मैक्स में आई तकनीकी खामी ने इनका गणित गड़बड़ा दिया। विमानों के जमीन पर खडे़ हो जाने से उड़ानों का तानाबाना ही बिगड़ जाता है। पहले से मुश्किल में फंसी कंपनी के लिए ऐसा संकट कोढ़ में खाज ही साबित होता है। हालांकि इसे एक अस्थाई बाधा ही कहा जा सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में विमानन कारोबार की बहुत अहमियत है। इसमें तेजी उत्साह बढ़ाने वाली है, पर यह भी एक विडंबना है कि इसी बाजार की अधिकांश कंपनियां बदहाल हैं। एयर इंडिया पर ही 50 हजार करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज है। बड़े जोश-खरोश के साथ शुरू की गईं सहारा और किंगफिशर जैसी कंपनियां काल-कवलित हो गईं। जेट जैसी 25 साल पुरानी कंपनी अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। उस पर करीब साढ़े आठ हजार करोड़ रुपये का कर्ज है। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि जेट के मसले पर बीते शनिवार को पीएमओ में आपात बैठक बुलाई गई, क्योंकि सरकार पर यात्रियों से लेकर कर्मियों, बैंकों से लेकर कंपनी का चौतरफा दबाव है। हालांकि बीते दो-तीन वर्षों में सरकार ने विमानन उद्योग को सहारा देने के लिए कुछ बड़े कदम उठाए हैं? जैसे एमआरओ यानी मेंटेनेंस, रिपेयर एंड ओवरहॉल के लिए सही नीति बनाई है। इससे कंपनियों के लिए विमानों का रखरखाव आसान और किफायती होगा। इससे बड़े पैमाने पर रोजगार का भी सृजन होगा। सरकार ने नागर विमानन में शत प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को भी मंजूरी देकर कारोबारियों की राह आसान ही की है। उड़ान योजना बनाकर बाजार को विस्तार देने का भी काम किया है। इसमें वह अपनी ओर से वित्तीय अंशदान भी कर रही है।

हालांकि अभी भी काफी कुछ किए जाने की आवश्यकता है। अगले दो-तीन वर्षों में भारत अमेरिका और चीन के बाद दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा विमानन बाजार बन जाएगा। इस अवसर को भुनाने के लिए अभी से तैयारी करनी होगी। साथ ही दुबई और सिंगापुर जैसा कोई सुपर-कनेक्टर एयरपोर्ट भी विकसित करना होगा ताकि लंबी दूरी की विदेशी उड़ानें भारत के उस हवाई अड्डे पर उतरें। इसके लिए दीर्घकालीन नीतियां बनानी होंगी। अगर एटीएफ पर करों को तार्किक बनाने के साथ ही हवाई अड्डे के शुल्क को सुसंगत बना दिया जाए तो भी विमानन कंपनियों को फौरी राहत मिल सकती है। जेट मामले पर सरकार की संजीदगी और नियामक डीजीसीए की सक्रियता सराहनीय है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए ऐसा तभी होता है जब कोई संकट दस्तक देता है। बेहतर हो कि ऐसे संकट आकार ही न लें।

(लेखक सेंटर फॉर डिजिटल इकोनॉमी पॉलिसी रिसर्च के प्रेसिडेंट हैं)