प्रदीप सिंह। सत्य को कभी-कभी पीछे हटना पड़ता है, ताकि उससे बड़े सत्य की जीत हो सके। भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नुपुर शर्मा की एक टिप्पणी पर इस्लाम के मानने वालों की प्रतिक्रिया ने देश की राजनीति को एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। इस घटना ने पूरी दुनिया को एक बार फिर बताया कि इस्लाम के बारे में सही या गलत किसी तरह की प्रतिकूल टिप्पणी का एक ही अंजाम है-दुनिया के सारे इस्लामी देशों का सामूहिक विरोध। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि बात सही है या गलत? कोई गैर-मुसलमान इस्लाम के बारे में कुछ नहीं बोल सकता। दूसरी स्थापना यह हुई कि हिंदू धर्म के बारे में कुछ भी बोलने की पूरी छूट है।

आपको कृषि कानून विरोधी आंदोलन की याद है। उस समय एक साथ कई टूल किट काम कर रही थीं। नुपुर शर्मा प्रकरण में भी ऐसा ही हो रहा है। एक बात मानकर चलिए कि कतर की प्रतिक्रिया स्वत:स्फूर्त नहीं थी। एक अंतरराष्ट्रीय खेमा, जो भारत की बढ़ती ताकत को पचा नहीं पा रहा, वह मौके की तलाश में था। मौके के इंतजार में भारत में बैठे वे लोग भी थे, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार और संघ परिवार का विरोध करने के बहाने खोजते रहते हैं। पिछले आठ साल से वे यही कर रहे हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि नुपुर के बयान ने इन लोगों को मौका दे दिया। नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। उस बयान को तथ्यों से हटाकर एक भावनात्मक रूप देकर अवसर में बदलने का अभियान चलाया गया। वास्तव में एक नई टूल किट इस समय काम कर रही है, जो मुस्लिम बिरादरी ही नहीं, इस्लामी देशों को भारत के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रही है। इसमें जितने किरदार सामने नजर आ रहे हैं, उससे ज्यादा पर्दे के पीछे हैं।

अमेरिका और यूरोपीय देशों को हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर जिस तरह जवाब दे रहे हैं, उसकी भाषा और कथ्य, दोनों इन देशों को रास नहीं आ रहे। भारत अमेरिका को कह रहा है कि मानवाधिकार और नस्लवादी हिंसा पर अपने गिरेबान में झांकिए। यूरोप से कह रहा है कि अपने सोचने का नजरिया बदलिए, हम वही करेंगे, जो हमारे देश हित में होगा। चीन की घुड़की का जवाब भी उसी की भाषा में दिया जा रहा है। यह सब पहली बार हो रहा है। यह नया भारत बहुत से लोगों को सुहा नहीं रहा है। अखर रहा है।

चीन और कतर की आर्थिक हैसियत की कोई तुलना नहीं है। भारत चीन से नहीं दबा तो कतर से क्यों दब जाएगा? कतर और दूसरे इस्लामी देशों की प्रतिक्रिया पर भारत सरकार के जवाब को जो भारत की हार मान रहे हैं, उन्हें शायद भू-राजनीतिक यानी जियो पालिटिकल बदलावों की जानकारी नहीं है या हो सकता है कि जानकारी हो, पर वह उनके एजेंडे के अनुकूल न हो, इसलिए उसे नजरअंदाज कर रहे हों। कतर सहित इस्लामी देशों के एतराज के पीछे दो बातों पर गौर कीजिए। पहली बात यह कि कतर और दूसरे कई इस्लामी देशों पर अमेरिका के प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अमेरिका ही नहीं यूरोप के लिए भी यह भारत पर दबाव बनाने का मौका है। उसका भरपूर फायदा उठाया जा रहा है। ये जो भारतीय सामानों के बहिष्कार की खबरें आ रही हैं, यह फौरी उबाल है। यह दूध के उबाल से भी जल्दी शांत हो जाएगा।

दूसरा तथ्य यह है कि इतनी तीखी प्रतिक्रिया की बड़ी वजह है। कतर सहित कई देशों में इस समय इस्लामी देशों का नेता बनने की होड़ लगी हुई है। लंबे समय से यह नेतृत्व सऊदी अरब के हाथ में है। सऊदी अरब इसे बचाए और बनाए रखना चाहता है। इसलिए एक के बाद एक इस्लामी देश निंदा, आलोचना के लिए सामने आ रहे हैं। इन प्रतिक्रियाओं का मजहब या उसके प्रति निष्ठा से कोई लेना देना नहीं है। इस्लामी देशों के नेता यह अच्छे से जानते हैं कि मजहब के नाम पर भावनाएं भड़काना आसान है। यदि मजहब की चिंता होती तो नुपुर ने जो बोला, उससे ज्यादा बोलने वाला जाकिर नाइक किसी इस्लामी देश का मेहमान न होता। मजहब की चिंता होती तो चीन के शिनजियांग में उइगर मुसलमानों और इस्लाम के साथ जो हो रहा है, उस पर सुई पटक सन्नाटा न होता। इसीलिए कतर और दूसरे देशों के बयान स्वत:स्फूर्त नहीं हैं। कतर को पता है कि भारत को उसके तेल और गैस की जितनी जरूरत है, करीब-करीब उतनी ही उसे भारत के गेहूं की है। कतर के पास दो चीजें तेल और गैस ही हैं देने के लिए। भारत के पास बहुत सी चीजें हैं।

भारत सरकार जियो पालिटिक्स की अपनी रणनीति पर चल रही है। उसे पता है कि यह तात्कालिक समस्या है। जल्दी सुलट जाएगी। सरकार की असली मुश्किल घरेलू मोर्चे पर है। उसे अपने हिंदू समर्थकों को समझाने में मुश्किल हो रही है। वे इसे उग्र इस्लामी ताकतों के आगे आत्मसमर्पण मान रहे हैं। वे इस तथ्य को समझने को तैयार नहीं कि नुपुर शर्मा और नवीन जिंदल के खिलाफ कार्रवाई इसलिए करनी पड़ी, क्योंकि वे पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता हैं। उनके बयान को पार्टी और सरकार का आधिकारिक बयान मानकर ही हमला हो रहा था। नई टूल किट के सदस्य इस कार्रवाई को अपनी विजय मानकर स्थिति को और ज्यादा उलझाने की कोशिश कर रहे हैं। इस टूल किट के सदस्यों के लिए यह जश्न का मौका है। इनके समर्थक बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि यह आधी विजय है, इसलिए लगे रहो।

हिंदुत्व के जो पुरोधा समझ रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी ने हिंदुत्व से समझौता कर लिया है, उन्हें अपनी गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए। पिछले आठ वर्षों में सनातन संस्कृति और राष्ट्रहित के लिए मोदी ने जितना किया है, किसी और नेता ने आजादी के बाद से उतना नहीं किया है। वह भावना में बहकर सारे किए धरे पर पानी नहीं फेर सकते। यही वजह है कि भाजपा प्रवक्ताओं के विरुद्ध कार्रवाई का आमतौर पर लोगों ने समर्थन किया है। इस पूरे प्रकरण का एक अच्छा नतीजा भी निकलेगा। अब हिंदू देवी-देवताओं पर अभद्र टिप्पणी करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में नहीं रहेगा, क्योंकि ‘लेवल प्लेइंग फील्ड’ जरूरी है। इसका रास्ता हिंदू धर्म को कोसने वालों ने ही बना दिया है। इसलिए मानकर चलिए कि तुष्टीकरण का सिलसिला खत्म होने वाला है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)