हृदयनारायण दीक्षित। इतिहास का आदर्श सत्य होता है। यह तटस्थ होता है। यह विजित और पराजित में भेद नहीं करता। राष्ट्रबोध का मूलाधार इतिहास बोध है। इतिहास भूत के साथ अनुभूत भी होता है। इसका एक भाग अकरणीय होता है और बड़ा भाग अनुकरणीय। इतिहास संकलन में सत्य और तटस्थता का मूल्य है। भारत का इतिहास गौरवशाली है, मगर विदेशी सत्ता के दौरान इतिहास का विरूपण हुआ। स्वतंत्रता के बाद भी इतिहास के ये सामंत सक्रिय रहे हैं। कथित उदारवादियों व वामपंथियों ने इतिहास का विरूपण किया। वे राष्ट्रीय गौरव की प्रत्येक घटना और अवसर के विरुद्ध सक्रिय रहे हैं। संप्रति इतिहास के विद्वान विक्रम संपत द्वारा वीर सावरकर पर लिखी पुस्तक को लेकर हंगामा है। आदित्य मुखर्जी सहित कई वामपंथी विद्वानों व कांग्रेसजनों ने किताब व उसके लेखक संपत पर हमला बोल दिया। उन्होंने सावरकर द्वारा ब्रिटिश सत्ता से माफी मांगने का तथ्यहीन विषय उठाया है।

वामपंथी व कथित उदारवादी लंबे समय से भारत को सदा पराजित और आत्महीन देश बता रहे हैं। उन्होंने यहां के मूल निवासी आर्यो को विदेशी आक्रमणकारी बताया है। वे मोहम्मद बिन कासिम से लेकर तमाम विदेशी हमलावरों का महिमामंडन कर चुके हैं। उनके विवरण में शिवाजी के लिए जगह नहीं है। चोल और विजयनगर साम्राज्य भी उपेक्षित हैं। केरल के मरतड वर्मा और बंगाल के भास्कर वर्मा के पराक्रम की उपेक्षा है। बहराइच के राजा सुहेल देव ने महमूद गजनी के सिपहसालार और साले सैयद गाजी को हराया था। उनके लिए भी इतिहास में जगह नहीं।

1857 का स्वाधीनता संग्राम उनके विवेचन में सिपाही विद्रोह है। सावरकर ने इसे भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम बताया था। इतिहास के सामंतों की दृष्टि में भारत अंग्रेजी राज्य के पहले राष्ट्र नहीं था। जबकि गांधी जी ने ‘हिंदू स्वराज’ में इसका खंडन किया और लिखा कि ‘आपको अंग्रेजों ने बताया है कि उन्होंने ही भारत को राष्ट्र बनाया है। यह बात सरासर गलत है। अंग्रेजी राज के पहले भी भारत राष्ट्र था’, लेकिन ये इतिहास को विकृत करते रहे। ऐसे विकृत इतिहास में भारतीय पराक्रम की चर्चा कम है। बंकिम चंद्र ने लिखा है, ‘यहां पारसियों समेत यवन, शक, हूण, अरब और तुर्क आए। कुछ दिनों बाद खदेड़े गए।’ बंकिम चंद्र ने सही लिखा है, ‘अरबों ने जहां आक्रमण किए वहां जीते, लेकिन फ्रांस और भारत से पराजित होकर लौटे।’ बंकिम के विवेचन में राष्ट्रीय गौरवबोध है।

भारतीय गौरवबोध से जुड़े इतिहास पर हमला सामंतों का एजेंडा है। सावरकर पर प्रकाशित किताब में तथ्यगत विवरण हैं, लेकिन इतिहास के सामंतों को इसमें अपनी हार दिखाई पड़ती है। वे प्रत्येक घटना पर मनगढ़ंत टिप्पणियां करते रहते हैं। वह भारत के गौरवबोध को अपमानित करते हैं। योजनाबद्ध कल्पना करते हैं। कल्पना से बनी धारणा का प्रचार करते हैं। ऐतिहासिक सत्य पर अपनी असत्य धारणा आरोपित करते हैं। बेशक प्रत्येक व्यक्ति को किसी इतिहास विवेचन की अपनी शैली इस्तेमाल करने का अधिकार है, पर इतिहास लेखन के काम में तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना कतई उचित नहीं होता। इतिहास के यही सामंत राम और कृष्ण को काव्य कल्पना बताते थे। वे इस सवाल पर भी पराजित हो चुके हैं।

वास्तविक इतिहास का विरूपण उनका उद्देश्य है। इन्हीं महानुभावों ने भारत ओर यूरोप के मध्यकाल को एक इकाई माना है। सच यह नहीं है। दोनों के मध्यकाल अलग-अलग हैं। यूरोप के मध्यकाल में अंधकार है। तब यूरोप में लाखों महिलाएं डायन बताकर मारी गई थीं। जब यूरोप के कई क्षेत्रों में पुनर्जागरण का दौर था तब उसी कालखंड में भारत में दक्षिण से उत्तर तक भक्ति वेदांत का प्रवाह था। हजारों संत भक्ति गीत गा रहे थे, लेकिन वामपंथी सामंतों ने भक्तिकाल को वंचितों की प्रतिक्रिया बताया। ऐसा इतिहास भारत को आत्महीनता से भरता रहा है। हमलावरों का महिमामंडन और सावरकर जैसे राष्ट्रभक्तों का अपमान भारत के शरीर पर लगे घावों को बार-बार कुरेदता है।

यूरोपीय इतिहासकारों ने भारत पर अंग्रेजी राज्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए इतिहास लेखन किया है। यूरोपीय इतिहासकारों और वामपंथियों ने भारत को पिछड़ा और सदा पराजित देश बताया, लेकिन भारत का इतिहास पराक्रम से परिपूर्ण है। ब्रिटेन की लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कार्बिन ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद व ब्रिटिश राज्य के अन्याय का सही इतिहास लिखने की मांग की थी। भारत में विदेशी आक्रमणकारियों के अत्याचार भी छुपाए जाते हैं। जबकि ब्रिटेन के उदारवादी भी अपनी सत्ता द्वारा किए गए अन्याय को सार्वजनिक करने की मांग करते हैं। वहीं भारत के उदारवादी ब्रिटिश अत्याचारों और मोहम्मद बिन कासिम से लेकर गजनी, गौरी, बाबर और औरंगजेब सहित सभी हमलावरों के कारनामों पर मिट्टी डालते हैं। उधर मैक्समूलर जैसे यूरोपीय विद्वानों को भी ऋग्वेद के रचनाकाल से लेकर तमाम प्राचीन इतिहास में यहां राष्ट्र व्यवस्था नहीं दिखाई पड़ती। ऐलफिंस्टन ने 1839 में लिखा था, ‘भारतीय इतिहास में सिकंदर के आक्रमण के पूर्व किसी सार्वजनिक घटना की तिथि निश्चित नहीं की जा सकती।’ अल बरूनी के आरोप कठोर हैं, ‘हिंदू घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम पर अधिक ध्यान नहीं देते।’ ऐसे इतिहासकार भारत को इतिहासहीन बता रहे थे।

इतिहास में मनुष्य के कर्म होते हैं। भूल-चूक और जय-पराजय होती है। इतिहास मार्गदर्शन करता है। स्वाधीनता संग्राम के सभी शिखर पुरुष इतिहास बोध से प्रेरित थे। गांधी जी का इतिहास बोध पश्चिम की सभ्यता और सत्ता पर आक्रामक था। बिपिन चंद्र पाल के इतिहास बोध में राष्ट्र बोध था। नेता जी सुभाष चंद्र बोस का इतिहास बोध भी स्वाभिमान बढ़ाने वाला था। उनकी पुस्तक ‘द इंडियन स्ट्रगल’ पर प्रतिबंध लगा था। हाउस आफ कामंस में उस पर चर्चा हुई थी। नेता जी ने लिखा था, ‘हिंदू धर्म सबको जोड़ने का महत्वपूर्ण साधन रहा है। सभी हिंदू भारत को अपनी पुण्य भूमि मानते हैं।’ नेता जी ने प्राचीनकाल के दौरान भी भारत में संसदीय संस्थाओं की उपस्थिति बताई है। गांधी, सुभाष, तिलक और पाल जैसे ज्ञानी जन इतिहास बोध को लेकर सजग रहे हैं, लेकिन इसी इतिहास बोध पर वामपंथियों और उदारवादियों जैसे इतिहास के सामंतों का लगातार हमला है। इतिहास के सामंतों से जूझना सभी राष्ट्र भक्तों का कर्तव्य है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं)