[ ए. सूर्यप्रकाश ]: वर्ष 1996 में हुए आम चुनाव के बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो देश के राजनीतिक इतिहास में उनका नाम पहले ‘दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री’ के रूप में दर्ज हुआ। भाजपा के लोकसभा में सबसे अधिक सांसद चुनकर आए थे, लेकिन पार्टी बहुमत के जादुई आंकड़े से दूर रह गई थी। ऐसे में उनकी सरकार महज 13 दिन ही चल पाई, मगर अटल जी वक्त के पन्नों पर लिखी इबारत साफ तौर पर पढ़ पा रहे थे कि 13 दिनों के साथ सत्ता में एक लंबे दौर की शुरुआत तो हुई, बिल्कुल किसी बड़े खेल से पहले अभ्यास सत्र की तरह। हालांकि भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन तमाम अन्य सियासी दलों के लिए वह राजनीतिक रूप से ‘अछूत’ थी। ऐसे में किसी स्थिर सरकार के लिए ठोस गठजोड़ बना पाना मुश्किल था।

चुनाव में जीत के बावजूद बहुमत के मोर्चे पर मिली मात से भाजपा ने सबक भी लिया। जब संयुक्त मोर्चा सरकार गिरी और मार्च 1998 में लोकसभा चुनाव हुए तब तक पर्दे के पीछे काफी काम हो चुका था ताकि 1996 जैसे हालात से निपटा जा सके। अटल जी ने सभी जगह दूत भेजे और वह भाजपा को ‘छुआछूत’ के भाव से मुक्ति दिलाने में सफल भी हुए जिससे पार्टी जूझ रही थी। विरोधी विचारधारा वाली पार्टियों के तमाम नेताओं ने भी अटल जी को उदारमना नेता मानते हुए उनके नेतृत्व में आस्था जताई। ऐसे में अपने गठबंधन साथियों को एक ‘दक्षिणपंथी दल’ के साथ गलबहियां करने को लेकर सता रहे डर को दूर करने में अटल जी को वक्त नहीं लगा। उन्होंने भारतीय राजनीति में ‘अस्पृश्य’ मानी जाने वाली पार्टी को सत्ता की मुख्यधारा में लाकर खड़ा कर दिया। तब भाजपा के ऊपर से सियासी तौर पर अछूत होने का ठप्पा भी हट गया।

छोटे राजनीतिक दलों के लिए भी वाजपेयी के दिल में भरपूर सम्मान था। करुणानिधि, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक जैसे तमाम क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ उनके बढ़िया रिश्ते थे। वह क्षेत्रीय आकांक्षाओं को बहुत तवज्जो भी देते थे। यही वजह थी कि उन्होंने उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे अलग राज्यों की अर्से से चली आ रही मांग पर मुहर लगाने का काम किया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि ये सभी राज्य बिना किर्सी ंहसक प्रदर्शन या विरोध के ही अस्तित्व में आ गए। यह अटल जी की शासनकला का ही परिणाम था कि उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे तीन बड़े राज्यों का बंटवारा बिना किसी विवाद के इतने सुगम तरीके से संपन्न हो गया। यह संप्रग सरकार द्वारा आंध्र प्रदेश का बंटवारा कर बनाए तेलंगाना राज्य के लिए अपनाए गए अव्यवस्थित और अपरिपक्व तौर-तरीके से एकदम अलग था।

अटल जी देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अनन्य प्रशंसक थे। कहा तो यहां तक जाता है कि नेहरू ने शुरुआती दौर में ही अटल जी की प्रतिभा को पहचान लिया था और कुछ विदेशी मेहमानों से पहली बार सांसद बने वाजपेयी का परिचय भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में कराया था। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि अटल जी के व्यक्तित्व पर नेहरू का प्रभाव था। यह शायद उनकी शख्सियत का ही कमाल था कि अपनी आरएसएस-जनसंघ की पृष्ठभूमि के बावजूद उन्होंने विपरीत वैचारिक ध्रुवों वाले दलों के बीच भी स्वीकार्यता हासिल की। ऐसे में कोई उन्हें ‘दक्षिणपंथी नेहरू’ भी कह सकता है। जब उन्होंने ‘कदम मिलाकर चलना होगा’ जैसी कविता लिखी तो यह केवल एक कवि का दिवास्वप्न नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों वाले एक लोकतांत्रिक व्यक्ति के अंतर्मन की सशक्त, उदार एवं लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति भी थी।

भारत को परमाणु शक्तिसंपन्न राष्ट्र बनाने के लिए अटल जी इतने कृतसंकल्पित थे कि उन्होंने परमाणु वैज्ञानिकों से परामर्श लिया कि क्या वह संसद में बहुमत साबित करने से पहले ही परमाणु परीक्षण कर सकते हैं? यह 1996 में 13 दिन वाली सरकार के दौरान की ही बात है। हालांकि वह इसलिए संभव नहीं था, क्योंकि उसके लिए पर्याप्त वक्त नहीं था। वाजपेयी को यह विचार इसलिए सूझा था, क्योंकि परंपरा के अनुसार निवर्तमान प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने उन्हें परमाणु कार्यक्रम की वस्तुस्थिति से अवगत कराया था।

वास्तव में राव अपने प्रधानमंत्रित्व काल में ही परमाणु परीक्षण करना चाहते थे, लेकिन इस बीच किसी तरह अमेरिका को इसकी भनक लग गई। चूंकि वह भारतीय अर्थव्यवस्था को उदार बनाने की मुहिम में लगे हुए थे जिसके लिए उन्हें अमेरिकी समर्थन की दरकार थी, लिहाजा वह वाशिंगटन की नाराजगी नहीं मोल लेना चाहते थे। राव की यह मजबूरी इसलिए भी थी, क्योंकि जब उन्होंने देश की कमान संभाली तो भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत बेहद पतली थी। राव खुद वाजपेयी को अपना गुरु मानते थे।

बहरहाल राव ने वाजपेयी को इस मामले में परमाणु वैज्ञानिकों की पूरी तैयारी की जानकारी भी दी। ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं कि जब वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने मई 1998 में परमाणु परीक्षणों के लिए हरी झंडी दिखाई। तब उनकी गठबंधन सरकार में कई ऐसे चेहरे भी शामिल थे जिन्होंने लंबे अर्से तक उनका विरोध किया और पहली बार भाजपाई खेमे में पहुंचे थे। परमाणु परीक्षणों ने रातोंरात भारत का रुतबा बढ़ाकर उसे परमाणु हथियार की शक्ति संपन्न देश की मान्यता दिला दी, लेकिन अमेरिका इससे कुपित हो गया। उसने भारत पर तमाम प्रतिबंध लगा दिए।

अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन परमाणु हथियारों की होड़ बढ़ाने के लिए भारत की ओर अंगुली उठा रहे थे, लेकिन अटल जी अपने रुख पर अडिग रहे। वह जानते थे कि जल्द ही अमेरिका को महसूस होगा कि भारत उसके लिए एक बड़ा बाजार है और उन्होंने अमेरिका को समझाने के लिए जसवंत सिंह को अपना दूत बनाकर भेजा। अमेरिकी नेताओं का पारा नरम करने में सिंह ने बढ़िया काम किया।

परमाणु परीक्षणों ने वाजपेयी के विराट और वास्तविक रूप के दर्शन कराए कि वह साहसी और मजबूत नेता हैं जो वैश्विक स्तर पर भारत को अगली पांत में देखना चाहते हैं। वह इस बात को लेकर भी आश्वस्त थे कि पश्चिमी जगत को वह भारत की अहमियत समझाने में सफल होंगे। वह अपनी जिम्मेदारियों को कुशलता से निभाने वाले सशक्त नेता थे। इसी वजह से भारत कारगिल युद्ध में पाकिस्तान को परास्त कर पाया। आर्थिक मोर्चे पर भी उन्होंने बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाया। दूरसंचार एवं परिवहन क्रांति की बुनियाद रखी।

स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना ने विकास के नए प्रतिमान स्थापित किए तो पूर्वोत्तर के राज्यों पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अटल बिहारी वाजपेयी भारत को नेहरू और इंदिरा गांधी की वाम रुझान वाली मध्यमार्गी राजनीति से कथित दक्षिणपंथी राजनीति की राह पर ले जाने वाले सेतु बने। चूंकि यह बदलाव उतना तल्ख नहीं रहा इसलिए उन्हें भारतीय राजनीति के सभी धड़ों से दुलार और सम्मान मिला।

[ लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]