[ सुरेंद्र किशोर ]: प्रशंसा, प्रगति, उपलब्धि और शक्ति को संभाल लेना किसी भी व्यक्ति के लिए दुष्कर काम रहा है। राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्रों के ढेरों शक्तिशाली लोगों के इतिहास को देखकर यह साफ नजर आता है। जो संभाल लेते हैं, लोग उनका यश गाते हैं। लोग उन्हें श्रद्धा से याद करते हैं। उनके निधन के बाद आम लोग उनकी प्रतिमाएं लगाते हैैं। जो नहीं संभाल पाते उनमें से किसी का मंत्री पद छूट जाता है तो किसी को जेल की रोटी खानी पड़ती हैै। कोई हाशिये पर जाकर विस्मृत हो जाता है। किसी अन्य के साथ कुछ और होता है। उम्र के आखिरी पड़ाव में जब होश ठिकाने आते हैं तब तक देर हो चुकी होती है। निधन के बाद उनकी प्रतिमाएं लगाने के लिए आमतौर पर सिर्फ उनके रिश्तेदार ही उपलब्ध होते हैं। यह और बात है कि कुछ ऐसी हस्तियों के संदर्भ में कानून अपना काम करता है, कुछ अन्य के बारे में नहीं करता। कुछ लोगों के लिए दिक्कतें तब बढ़ जाती हैं जब वे समझ लेते हैं कि कानून के हाथ इतने लंबे नहीं हैं कि वे मुझ तक पहुंच सकें।

एक कहावत है, ‘कुछ लोग महान पैदा होते हैं। कुछ लोग त्याग-तपस्या से महान बनते हैं, पर कुछ लोगों पर महानता थोप दी जाती हैं।’ जिन लोगों पर महानता थोपी जाती है उनके भटकने की संभावना अधिक रहते हैं। दरअसल नेताओं खासकर सांसदों-विधायकों को खुद ही तय कर लेना होता है कि उन्हें वेतन-भत्ते के रूप में कितने पैसे लेने हैं। इस क्षेत्र के कई लोगों के दिमाग अपार पैसों ने भी खराब कर दिए हैं। पैसे से भी मद पैदा होता है जो भटकाव पैदा करता है। तुलसी दास ने भी लिखा कि ‘प्रभुता पाई काहि मद नाहीं!’ हालांकि इसी देश में एक दूसरी दुनिया भी है। भले छोटी है। कई बार सांसद और विधायक रहे धनबाद के एके राय की बुढ़ापे में देखभाल उनके एक मित्र का परिवार कर रहा है।

एके राय ने शायद ही किसी से शिकायत की हो कि पैसे के अभाव में उनकी ठीक से देखभाल नहीं हो पा रही है। इंजीनियर रहे इस नेता ने न तो शादी की और न ही अपने बुढ़ापे के लिए कोई धन जोड़ा। ऐसे कई नेता हैैं। बिहार के दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उपमुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे। कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोपड़ी देख कर बहुगुणा रो पड़े थे। स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर अपने बाल-बच्चों के लिए घर के नाम पर वही छोड़ गए थे, जबकि वह 1952 से ही विधायक थे और एक अपवाद को छोड़कर कभी कोई चुनाव नहीं हारे। परिणामस्वरूप हर साल उनके जन्मदिन और पुण्य तिथि पर उन्हें याद करने के लिए विभिन्न दलों और संगठनों के बीच बिहार में होड़ मची रहती है।

दूसरी ओर अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक ताकत का गलत इस्तेमाल करने वालों को देखिए। वे सदा अपने बाल-बच्चों के लिए अपार धन एकत्र करने के चक्कर में रहते हैं। उनमें से कई लोगों की जवानी भले ठीक से कट गई हो परंतु बुढ़ापे में उन्हें कष्ट या फिर अपयश भोगते देखा जा सकता है। यह जानते हुए भी कि कफन में जेब नहीं होती, ऐसे लोग अपनी जेब को बोरा का दर्जा दे देते हैं। किसी न किसी तरह की सत्ता के साथ दौलत, शराब और शबाब की भूमिका विनाशकारी साबित होती है। हालांकि वैसे लोग भी हैं जिन्हें प्रभुता पा लेने के बावजूद मद नहीं होता, पर महत्वपूर्ण क्षेत्रों के सारे लोग ऐसे भाग्यशाली नहीं होते।

डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने कहा था कि राजनीति करने वालों को अपना परिवार खड़ा नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसके साथ मोह पैदा हो जाता है। खुद लोहिया ने परिवार खड़ा नहीं किया। नतीजतन अन्याय के खिलाफ उनके समझौताविहीन संघर्ष में उनके हाथ रोकने वाला कोई नहीं था। कहा गया है कि ‘सीजर की पत्नी को संदेह से ऊपर होना चाहिए’, पर यह कहावत तो लोकलाज का ध्यान रखने वालों के लिए है। हमारे देश में तो समय-समय पर अधिकतर सत्तावानों ने लोकलाज को तिलांजलि दी है और आज भी दे रहे हैं। इस समस्या पर कैसे काबू पाया जाए, इस पर सोच-विचार आज अधिक जरूरी है।

सत्तावान का मतलब सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र के सत्तावानों से नहीं है। वोट बैंक की राजनीति के इस दौर में अनेक नेताओं के लिए लोकलाज शब्द अप्रासंगिक होता जा रहा है, पर अच्छी बात यह है कि कुछ लोगों, संगठनों और समूहों के लिए अब भी लोकलाज प्रासंगिक है। पिछले दिनों लोकलाज के कारण ही केंद्रीय सत्ता अपने मंत्री एमजे अकबर से इस्तीफा लेने को मजबूर हुई। किसी भी कीमत पर सत्ता तक पहुंचने की कोशिश करने वाले विवादास्पद लोगों से इस देश की राजनीति खुद को बचा ले तो यह देश के भविष्य के लिए बेहतर होगा। विभिन्न क्षेत्रों के ऐसे व्यक्तियों की पहचान मुश्किल नहीं है। ऐसे लोग समय-समय पर अपनी ही पिछली राजनीतिक धारणाओं-मान्यताओं को भुलाकर नए गठबंधन के साथ होते रहे हैं। कई मामलों में ऐसे लोगों का विवादास्पद अतीत सर्वज्ञात भी होता है। इतने बड़े देश में कोई व्यक्ति न तो जरूरी है और न ही अपरिहार्य ही। राजनीतिक दल यह बात ध्यान में रखें तो उन्हें कभी किसी विवादास्पद प्रकरण को लेकर उलझन में नहीं पड़ना पड़ेगा।

गठबंधन की राजनीति कई बार किसी दल के शीर्ष नेतृत्व को समझौते करने को विवश करती है परंतु यदि थोड़ा राजनीतिक खतरा मोल लेने की क्षमता हो तो गरिमा गिराने वाले समझौतों से बचा जा सकता है। यदि कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री अपनी गठबंधन सरकार के किन्हीं दलों की मोल-तोल की प्रवृत्ति से परेशान है तो वह ऐसे दलों और नेताओं को निशाना बनाते हुए नए चुनाव की घोषणा कर सकता है।

चुनाव प्रचार में वह लोगों से कह सकता है कि हम जनता के भले के लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं, पर ये दल और नेता हमें वैसा नहीं करने दे रहे हैं और देश को अस्थिर करने के काम में लगे हुए हैं। ऐसे में आसार इसी के हैैं कि उसके दल को बहुमत मिल जाएगा, क्योंकि अधिकतर लोग भले के लिए ही वोट देते हैं। कुछ पिछले चुनावी इतिहास भी यही कहते हैं। यदि ऐसे चुनाव होने लगें तो केंद्र कौन कहे, कई राज्यों में भी मोल-तोल करने वाले स्वार्थी दलों और नेताओं से मुक्ति पाई जा सकेगी।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैैं ]