[ प्रो. हरबंश दीक्षित ]: संविधान के कुछ जानकार कश्मीर के अलगाववाद के लिए अनुच्छेद 370 से अधिक अनुच्छेद 35ए को जिम्मेदार मानते हैं। अनुच्छेद 35ए संविधान का एक अदृश्य और रहस्यमय भाग है। यह संविधान के मूल पाठ में शामिल नहीं है। इसे परिशिष्ट के रूप में जोड़ा गया है, लेकिन यह जम्मू-कश्मीर राज्य की शासन योजना का आधार स्तंभ है। संविधान का मूल उद्देश्य देश को एकजुट करना होता है, किंतु इसकी भूमिका इसके उलट है। यह जम्मू-कश्मीर में एक अलग समुदाय का निर्माण करता है जिन्हें स्थाई नागरिक कहा जाता है और केवल उन्हें ही राज्य सरकार को चुनने से लेकर संपत्ति खरीदने का अधिकार हासिल है।

सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि संविधान के इतने महत्वपूर्ण संशोधन में संसद की कोई भूमिका नहीं थी। न तो उसे सदन के पटल पर रखा गया और न ही उस पर बहस या मतदान हुआ। इसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 35ए में उल्लिखित विषयों पर बनाए गए कानून भारत के संविधान के अनुरूप होने जरूरी नहीं हैं। उनका उल्लंघन भी हो सकता है और अंतर्विरोध होने पर भारत के संविधान की जगह इन कानूनों को मान्यता दी जाएगी। इस अधिकार के तहत विधानसभा को जम्मू-कश्मीर के स्थाई नागरिकों की परिभाषा तय करने का अधिकार है। यहां केवल इन्हीं स्थाई नागरिकों को मतदान देने से लेकर संपत्ति खरीदने का अधिकार हासिल है।

शेष भारत ही नहीं, बल्कि जम्मू-कश्मीर में रहने वाले गैर स्थाई नागरिक भी इन तमाम अधिकारों से वंचित हैं। राज्य में संपत्ति अर्जित करने, बसने, शैक्षिक संस्थाओं में प्रवेश पाने तथा छात्रवृत्ति जैसे मामलों में केवल स्थाई नागरिकों को ही अधिकार प्राप्त है। इस उपबंध को सरसरी तौर पर देखने से ही तमाम बातें साफ हो जाती हैं। राज्य विधानसभा कानून बनाकर राज्य में रहने वाले गैर स्थाई नागरिकों को मूल अधिकारों से वंचित कर सकती है।

भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करते ही मूल अधिकारों के सुरक्षा कवच से वंचित किया जा सकता है। राज्य कानून बनाकर शेष भारत के लोगों और गैर स्थाई नागरिकों को वहां बसने एवं संपत्ति खरीदने में पूर्ण पाबंदी लगा सकता है। स्थाई नागरिकों की परिभाषा तय करके किसी विदेशी को भी स्थाई नागरिकता दी जा सकती है। राज्य के बाहर शादी करने वाली लड़कियों को उत्तराधिकार से वंचित किया जा सकता है और स्थाई नागरिकों से शादी करने वाली विदेशी लड़कियों को स्थाई नागरिक मान सकता है। इससे गैर स्थाई नागरिकों को सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य भी माना जा सकता है। उन्हें सरकारी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश पाने तथा छात्रवृत्ति हासिल करने का अधिकार नहीं है। ये अधिकार अलगाववाद को बढ़ावा देने की आधारशिला तैयार करते हैं।

अनुच्छेद 35ए से जुड़ी तमाम आशंकाएं निराधार नहीं हैं। अनुच्छेद 35ए को जोड़ने का आदेश 14 मई, 1954 को जारी हुआ। फिर 30 माह उपरांत 17 नवंबर, 1957 को जम्मू-कश्मीर का संविधान लागू हुआ। इसमें स्थाई नागरिक की परिभाषा तय की गई जिसमें दो तरह के लोगों को शामिल किया गया। पहले वे जो 14 मई, 1954 को राज्य की प्रजा थे और दूसरे वे लोग जो वैध तरीके से संपत्ति खरीदने के बाद 10 वर्षों से राज्य में रह रहे थे। इस परिभाषा के अनुसार ऐसे बहुत से लोगों को स्थाई नागरिकता से वंचित कर दिया गया जो उसके वास्तविक हकदार थे।

1947 में करीब 5764 परिवार पश्चिमी पाकिस्तान से आकर जम्मू में बस गए थे। उनमें से 80 प्रतिशत लोग वंचित समुदायों से थे। जिन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष मदद की जरूरत थी। नई परिभाषा के कारण विशेष मदद मिलनी तो दूर उन्हें तमाम अधिकारों से वंचित होना पड़ा, क्योंकि वे स्थाई नागरिक की परिधि से बाहर थे। आज उनकी चौथी पीढ़ी वहां रह रही है, लेकिन उन्हें न तो राज्य में होने वाले चुनावों में मतदान का अधिकार है, न ही सरकारी नौकरी पाने या कि सरकारी शिक्षण संस्थाओं में दाखिला लेने का अधिकार। वे भारत के प्रधानमंत्री तो बन सकते हैं, लेकिन वे राज्य में ग्राम प्रधान के लिए मतदान भी नहीं कर सकते।

यह पीड़ा गोरखा समुदाय के लोगों की भी है जो कई दशकों से राज्य में रह रहे हैं। उनसे भी बुरी स्थिति वाल्मीकि समुदाय के उन लोगों की है जिन्हें 1957 में राज्य सरकार द्वारा यहां लाकर बसाया गया थ। तब इस समुदाय के करीब 200 परिवारों को पंजाब से यहां लाया गया था। उन्हें विशेष तौर पर सफाई कर्मचारी के रूप में काम करने के लिए लाया गया था। उन्हें स्थाई नागरिकता इस शर्त पर दी गई थी कि वे और उनकी पीढ़ियां केवल सफाई कमचारी के रूप में ही काम करते रहेंगे। बीते 61 सालों से वे सफाई कर्मचारी के रूप में काम कर रहे हैं। तीन पीढ़ियों से वहां रहने के बावजूद उन्हें सरकारी व्यावसायिक संस्थानों में दाखिला नहीं मिलता। दूसरे संस्थानों से वे यदि उच्च शिक्षा हासिल भी कर लें तो भी उन्हें सफाई कर्मचारी के अलावा दूसरी नौकरी नहीं मिल सकती। बाल्मीकि समुदाय के लोगों पर इसकी दोहरी मार पड़ रही है। जहां राज्य में उन्हें दूसरी सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती वहीं दूसरे राज्यों में उन्हें मिल सकने वाले आरक्षण का भी लाभ नहीं मिलता।

अनुच्छेद 35ए के ही कारण अलगाववादी सोच रखने वाले लोगों को शेष भारत के लोगों के साथ भेदभाव का अवसर मिलता है। जम्मू कश्मीर के स्थाई नागरिकों को विशेष सुविधाओं का लालच देकर और इस विशेषाधिकार के खोने का भय दिखाकर अलगाववाद को पोषित करने की योजनाबद्ध कोशिश की गई है। महिलाओं के लिए तो यह अनुच्छेद और भी विभेदकारी है। अपनी पसंद के पुरुष से विवाह करने के अधिकार का उल्लंघन करता है। यदि वे राज्य के बाहर रहने वाले व्यक्ति से विवाह करती हैं तो उनका स्थाई नागरिक का विशेषाधिकार खत्म हो जाता है जिसके कारण वे उत्तराधिकार और संपत्ति के अधिकार से वंचित रह जाती हैं। उनके बच्चों को भी स्थाई नागरिकता से वंचित होना पड़ता है। यह सब कुछ हमारे संविधान में उन मूल अधिकारों के बावजूद हो रहा है जिसमें गैर नागरिकों को भी समानता और जीवन का अधिकार दिया गया है।

इस पर आश्चर्य हो सकता है कि आखिर एक ही देश में इतनी संवैधानिक विषमता क्यों है? इस भेदभाव से भी आश्चर्यजनक बात यह है कि उसे संविधान में संशोधन के माध्यम से नहीं बल्कि राष्ट्रपति के एक आदेश के माध्यम से जोड़ा गया है। संविधान के यदि एक पूर्णविराम में भी संशोधन करना हो तो उसके लिए अनुच्छेद 368 में तय प्रक्रिया से गुजरना होता है। संशोधन के प्रस्ताव को दोनों सदनों के विशेष बहुमत से पारित करवाना होता है, मगर अनुच्छेद 35ए के मामले में इसे गैर जरूरी माना गया।

[ लेखक रुहेलखंड विश्वविद्यालय में विधि संकाय के पूर्व प्रमुख एवं उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा सेवा आयोग के सदस्य हैं ]