[ तरुण गुप्त ]: हमारे जैसे विविधता भरे देश और कई खांचों में बंटे बहुरंगी समाज में हमेशा कुछ न कुछ ऐसे मसले चर्चा के केंद्र में रहेंगे जिन पर सभी वर्गों के बीच सहमति लगभग असंभव है। यदि बीते कुछ दिनों में अखबारों और समाचार चैनलों पर आर्थिक आरक्षण को लेकर हुए विमर्श पर गौर करें तो यही कहा जा सकता है कि इस मुद्दे पर दोनों खेमों की ओर से जुबानी जंग जारी रहेगी। बीते कुछ दिनों के घटनाक्रम पर नजर डालें तो यह भी लगेगा कि समाज में विभाजक रेखाएं खींचने वाला आरक्षण का मुद्दा कैसे राजनीतिक दलों को एक सूत्र में पिरोने वाली कड़ी के रूप में उभरा है। आखिर ऐसा विरले ही देखने को मिलता है कि संसद के दोनों सदन किसी संविधान संशोधन विधेयक पर लगभग आम सहमति से मुहर लगा दें। इसमें एक विरोधाभास वाली अजीब स्थिति भी दिखी कि विपक्षी दलों ने इस मसले पर सरकार को कोसने के बावजूद संसद में विधेयक के पक्ष में मतदान किया।

विपक्ष का मुख्य आरोप है कि आरक्षण के दायरे में विस्तार राजनीतिक अवसरवाद है और इसके पीछे मंशा सवर्ण जातियों के मतदाताओं को लुभाना है जो कथित तौर पर भाजपा से कुपित हैं, जिसकी कीमत पार्टी को हालिया विधानसभा चुनावों में चुकानी पड़ी। यह संभव है कि केंद्र के उस फैसले पर जनता ने तल्ख प्रतिक्रिया दी हो जिसमें सरकार ने एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून के कड़े प्रावधानों को विधायी प्रक्रिया के जरिये फिर से बहाल किया था, लेकिन अगर विरोधी इसी बात को लेकर निशाना साध रहे हैं कि आम चुनाव से ठीक पहले सरकार ने यह कदम उठाया तो देश में पहली बार ऐसा नहीं हो रहा है। न ही इसे लोकलुभावनवाद का खराब उदाहरण कहा जा सकता है। आखिर चुनाव मैदान में विजय हासिल करना ही तो सभी दलों की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गई है।

कुछ लोग इस संविधान संशोधन की वैधानिकता पर भी सवाल उठा रहे हैं। उनकी दलील है कि यह दांव संभवत: न्यायिक समीक्षा में खरा नहीं उतर पाएगा। आने वाले दिनों में बौद्धिक तबके में इस पर गहन चर्चा की उम्मीद है। संसद की सर्वोच्चता और संप्रभुता भी इसमें दांव पर लगी हैं। पहले भी ऐसे कई अवसर आए हैं जब जनता को कुछ अदालती आदेशों की नीयत में तो कोई खराबी नहीं लगी, लेकिन साथ ही यह भी महसूस हुआ कि उन मसलों का समाधान संसद में कहीं बेहतर ढंग से निकल सकता था। चाहे धारा 377 की समाप्ति हो या व्यभिचार से जुड़ा कानून या राजमार्गों के किनारे शराब की बिक्री का मसला, इन पर लोगों को यही लगा कि भले ही यह न्यायिक अतिक्रमण न भी हो तब भी इससे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की रेखा अवश्य धुंधली होती प्रतीत हुई।

आर्थिक आरक्षण के विरोध में यह तर्क भी दिए जा रहे हैं कि संविधान निर्माताओं ने ऐसे आरक्षण के विचार को खारिज किया था। आखिर बुद्धिजीवी वर्ग कब तक संविधान सभा में हुई चर्चा का ही हवाला देता रहेगा? संविधान निर्माताओं की बुद्धिमता और मंशा का पूरा सम्मान करते हुए क्या यह कहना उचित होगा कि राजनीतिक चातुर्य और संवैधानिक दूरदर्शिता केवल संविधान सभा के सदस्यों के पास ही थी? क्या समाज सतत परिवर्तनशील नहीं है? स्वतंत्रता के तुरंत बाद की स्थितियां शायद सात दशक बाद उतनी प्रासंगिक न रह गई हों।

संविधान के मूल ढांचे की परिभाषा भी एक बड़ी कसौटी बन गई है। संविधान के मूल ढांचे में केवल स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव और निजी स्वतंत्रताओं को ही रखा जाना चाहिए। शेष अन्य सभी पर स्थिति के अनुरूप विचार किया जाना बेहतर है। प्रशासनिक क्रियाकलापों और विधायिका एवं कार्यपालिका के रोजमर्रा के कामकाज पर मूल ढांचे का लिटमस टेस्ट नहीं आजमाया जाना चाहिए। किसी भी संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य में अगर कोई प्रस्ताव इतने भारी बहुमत से पारित हो, जैसा कि आर्थिक आरक्षण मामले में हुआ तब उसे बिना किसी बाधा के कानून बन जाना चाहिए।

समानता का मूल सिद्धांत हमारे संविधान में विद्यमान है। इसका महिमामंडन भी हुआ है जो सही भी है। इसमें कोई समझौता नहीं किया जा सकता। इस मोर्चे पर कुछ विधायी कदमों के साथ ही कुछ न्यायिक हस्तक्षेप भी हुए हैं। इस विचार को और विस्तार देते हुए कहा जा सकता है कि आदर्श समाज में किसी भी प्रकार का आरक्षण समानता के सिद्धांत को ही चुनौती देता है। हमारे समाज में कुछ वर्गों के साथ ऐतिहासिक भेदभाव और अन्याय के कारण ही आरक्षण की व्यवस्था की गई थी जिसका प्रावधान समानता के सिद्धांत के आलोक में अपवाद के तौर पर लागू किया गया था। यदि सत्तर वर्षों तक अपवाद वाली व्यवस्था कायम रहकर एक नियम बन जाती है तो यह उसकी सफलता पर ही सवाल खड़े करती है।

आरक्षण की शुरुआत 1951 में स्वतंत्रता के तुरंत बाद हुई थी। इसे सभी के लिए एक समान परिवेश बनाने के मकसद से लागू किया गया था, जिसमें अगले दस वर्षों में इसकी समीक्षा का भी प्रावधान था। यह समीक्षा कभी नहीं हो पाई, बल्कि 1951 में एससी-एसटी के लिए जो 22.5 प्रतिशत आरक्षण था उसे 1990 में ओबीसी को सम्मिलित करके 49.5 प्रतिशत कर दिया गया। सरकारी नौकरियों में लागू इस आरक्षण का 2006 में विस्तार करते हुए उच्च शिक्षा में भी लागू कर दिया गया। निजी शिक्षण संस्थानों में भी इसे हरी झंडी दिखाने के बाद निजी क्षेत्र के उद्यमों में भी इसे लागू करने की चर्चा अब दबे स्वरों में हो रही है।

यदि आरक्षण का मकसद समान अवसरों के परिवेश का निर्माण करना है तो पूरा ध्यान प्राथमिक, उच्च-प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर दिया जाना चाहिए। शिक्षा का अधिकार जितना महत्वपूर्ण है उतनी ही अहम सही शिक्षा भी है। यहां मूल में गुणवत्ता है। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में संरक्षणवाद के बजाय स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर ध्यान देना जरूरी है ताकि उनका स्तर सुधरकर निजी स्कूलों के बराबर हो सके। भारत में सरकारी स्कूलों में छात्रों की क्षमताओं से जुड़ी तमाम रिपोर्ट उनकी दयनीय दशा को ही बयान करती हैं। अगर आरक्षण जैसी व्यवस्था को सार्थक बनाना है तो इसका लाभ उन जरूरतमंद छात्रों को 18 वर्ष से पहले ही विभिन्न स्तरों पर दिया जाना चाहिए ताकि उसके बाद वे स्वयं सक्षम होकर अपने लिए सही विकल्प चुन सकें।

किसी भी किस्म का आरक्षण चाहे वह सामाजिक, शैक्षणिक या आर्थिक आधार पर हो, उसकी पहली शिकार बनती है योग्यता। हमें उच्च शिक्षण संस्थानों में अधिक सीटों और अपनी शिक्षित आबादी के लिए अधिक नौकरियों की दरकार है। यदि उचित कदम नहीं उठाए गए तो आक्रोश, असंतुष्टि के साथ ही एक वर्ग विशेष का विदेश पलायन जारी रहेगा। बुनियादी ढांचे के साथ ही कारगर जमीन अधिग्र्रहण एवं श्रम सुधार और प्रभावी शिक्षा नीति अपरिहार्य हो चली है। आरक्षण एक अस्थाई व्यवस्था थी। यदि सत्तर वर्षों में कोई व्यवस्था वांछित बदलाव नहीं ला पाई तब या तो वह विचार सही नहीं था या फिर उस पर सही ढंग से अमल नहीं हो पाया। इस नजरिये पर नई दृष्टि की दरकार है। हम अपने जनप्रतिनिधियों से बेहतर विचारों की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रबंध संपादक हैं ]