[ शुकदेव प्रसाद ]: पांच दिन पहले रक्षा अनुसंधान में एक गौरवमयी उपलब्धि के बाद इसरो ने एक और कीर्तिमान रचा। इसरो के ध्रुवीय राकेट पीएसएलवी-सी45 ने पहली बार विभिन्न पेलोड को तीन विभिन्न कक्षाओं में सफलतापूर्वक स्थापित किया। इस राकेट ने भारतीय उपग्रह ‘एमिसैट’ को 749 किमी की ऊंचाई वाली कक्षा में स्थापित किया। यह भारत का पहला उपग्रह है जो सेना के लिए अंतरिक्ष से दुश्मन की गतिविधियों पर नजर रखेगा। इस उपग्रह को ‘इसरो’ के अध्यक्ष के. सिवन ने ‘आकाश में सेना की आंख’ की संज्ञा दी है। इस मिशन का सबसे उल्लेखनीय पक्ष यह है कि इसरो के इतिहास में यह सबसे लंबी उड़ान है जो तीन घंटे में समाप्त हुई।

उपग्रह एमिसैट को उसकी निर्धारित कक्षा में स्थापित करने के बाद ध्रुवीय राकेट के चौथे चरण (पीएस 4) के इंजन को बंद कर दिया गया। प्राय: एक घंटे के बाद इसकी मोटर को फिर प्रज्जवलित किया गया। इसके बाद इसने चार देशों के 28 लघु उपग्रहों को 504 किमी की निम्न कक्षा में स्थापित किया। इनमें अमेरिका, स्विट्जरलैंड और लिथुअनिया जैसे देशों के उपग्रह हैं। खास बात यह है कि यह सारा काम मात्र पांच मिनट में संपन्न हो गया। सामन्य प्रक्रिया यह है कि राकेट का चौथा चरण भी जलकर विनष्ट हो जाता है, लेकिन इस बार इस चरण को कुछ वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है।

यह तीसरा अवसर है जब हम पीएसएलवी के चौथे चरण को अंतरिक्ष संबंधी परीक्षणों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। अगले छह महीने तक यह चौथा चरण अंतरिक्ष आधारित प्रयोगों के लिए देश को अपनी सेवाएं प्रदान करता रहेगा। इसरो ने इस प्रक्षेपण में एक और कीर्तिमान बनाया। इस उड़ान में धुवीय राकेट का नव संस्करण इस्तेमाल किया गया जो इलेक्ट्रॉनिक मेधा से संपन्न है। इसे पीएसएलवी-क्यू एल नाम दिया है। अब ध्रुवीय राकेट के तीन मॉडल हमारे पास हैं जो क्रमश: स्टैंडर्ड माडल, कोर एलोन और एक्स-एल (एक्स्ट्रा लार्ज) कहलाते हैं, लेकिन पहली बार इसरो ने ध्रुवीय राकेट के प्रथम चरण के साथ चार स्ट्रैपआन मोटरों का इस्तेमाल किया है। इस उड़ान के साथ इसरो ने मील का एक और पत्थर कायम किया है।

हमारा ध्रुवीय राकेट अपने चौथे चरण के साथ जो प्रयोग करेगा उसमें पहला प्रयोग इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी का है जो आयन मंडल का अध्ययन करेगा। यह भी पहली बार संभव हुआ कि इस संस्थान ने अपना पेलोड अंतरिक्ष में भेजा। निष्कर्षत: हम देखते हैं कि भारत अब अंतरिक्ष और रक्षा अनुसंधान में महारत हासिल कर चुका है। भारत ने जो अप्रतिम उपलब्धियां हासिल की हैं उनसे भारत का गौरव वद्र्धन ही नहीं हुआ, अपितु उसने विकसित देशों के समक्ष एक नया उदाहरण पेश किया है। ऐसा ही उदाहरण 27 मार्च को तब पेश किया गया था जब ए-सैट मिसाइल का सफल परीक्षण किया गया था।

दरअसल जब कोई उपग्रह बेकार हो जाता है या उसके सोलर पैनल काम करना बंद कर देते हैं तो उसकी कक्षा क्रमश: छोटी होने लगती है। ऐसे में वह ज्यों-ज्यों पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करने लगता है तो पृथ्वी के बढ़ते गुरुत्वाकर्षण और वायुमंडल के घर्षण के कारण जलकर नष्ट हो जाता है। लेकिन इससे एक खतरा भी पैदा हो जाता है। दरअसल उसमें भरे हुए रासायनिक पदार्थ अत्यंत घातक होते हैं जो मनुष्य समेत अन्य जीवधारियों के स्वास्थ्य के लिए संकट उत्पन्न करते हैं। इस समस्या के निदान के लिए हाल के वर्षों में कुछ राष्ट्रों ने एंटी-सैटेलाइट मिसाइलों का विकास किया है। इसके जरिये उन्होंने धरती की ओर आ रहे ऐसे उपग्रहों को सफलतापूर्वक नष्ट कर दिया है। यह हमारे लिए गौरव का क्षण है कि भारत ने पहले प्रयास में ही ऐसी सफलता प्राप्त कर ली।

विगत में अमेरिका और रूस ने भी शीत युद्ध के दौरान ऐसी क्षमता अर्जित की थी। चीन ने भी ऐसी क्षमता 2007 में अर्जित कर ली थी। अमेरिकी स्टार वार्स (नक्षत्र युद्ध) की तर्ज पर भारत ने अपना यह कार्यक्रम 2008-09 में ही आरंभ कर दिया था। हालांकि अमेरिका इस प्रणाली को आज तक तैनात नहीं कर सका है। जब रोनाल्ड रीगन ने इसको आरंभ किया था तो परीक्षण के दौरान एक बैलिस्टिक मिसाइल क्वाजालीन अटाल दक्षिण प्रशांत से दागी गई। वहां से 7700 किलोमीटर दूर वेंडनबर्ग हवाई अड्डे से एक एंटी मिसाइल ने उड़ान भरी और धरती पर गिरने से पूर्व ही हवा में उसे मार गिराया। यह प्रणाली तैनात होती कि एक बड़ी घटना घट गई।

हुआ यह कि अमेरिकी शटल चैलेंजर ने उड़ान भरी और उड़ान भरने के कुछ ही सेकेंडों बाद उसमें आग लग गई। उसी के साथ उसमें सवार सातों अंतरिक्ष यात्री भी जलकर खाक हो गए। अत: इस प्रणाली को अविश्वनीय करार देते हुए रीगन ने निरस्त कर दिया। आगे चलकर बिल क्लिंटन जब अमेरिकी राष्ट्रपति बने तो उन्होंने इसको समाप्त करने का एलान किया, लेकिन जाते-जाते उनका राष्ट्रवाद जोर मारने लगा तो उन्होंने इसे नेशनल मिसाइल डिफेंस नाम से पुन: आरंभ किया, मगर दुर्भाग्यवश एक परीक्षण के दौरान उड़ने वाली बैलिस्टिक मिसाइल के बूस्टर अलग ही नहीं हुए और वह औंधे मुंह सागर में जा समाई। फलस्वरूप एंटी बैलिस्टिक मिसाइल ने वेंडनबर्ग हवाई अड्डे से उड़ान ही नहीं भरी। बिल क्लिंटन को जब यह सूचना मिली तो वह एक विश्वविद्यालय में छात्रों को संबोधित कर रहे थे। वहीं से उन्होंने यह बयान जारी किया कि चूंकि यह प्रणाली अभी परिपक्व नहीं हुई है अत: फिलहाल हम इसे स्थगित कर रहे हैं।

भारत ने अपनी प्रणाली को बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम (बीएमडीएस) नाम दिया है। इसका उद्देश्य यह है कि शत्रु की तरफ से आने वाली मिसाइलों को जमीन पर गिरने से पूर्व उन्हें आसमान में ही नष्ट कर दिया जाए, भले ही वे परमाणु बमों से लैस ही क्यों न हों। भारत की इस प्रक्षेपास्त्र रोधी प्रणाली की दो श्रेणिया हैं। पहली श्रेणी में लक्ष्य 2000 किलोमीटर तक की दूरी से आने वाली मिसाइलों को आकाश में ध्वस्त करना है और दूसरी श्रेणी में ऐसी मिसाइलों को नष्ट करना है जो 5000 किलोमीटर की दूरी से आ रही हों। इसके अलावा भारत की प्रक्षेपास्त्र रोधी प्रणाली द्विस्तरीय है। इसका उद्देश्य यह है कि दुश्मन की ओर से आ रही मिसाइल को 50 किलोमीटर से अधिक की ऊंचाई पर मार गिराया जाए। यदि किन्हीं कारणों से ऐसा न हो सके तो उसे 30 किलोमीटर की ऊंचाई पर मार गिरा दिया जाए।

भारत की प्रक्षेपास्त्र रोधी प्रणाली द्विचरणीय है और अमेरिकी प्रणाली एक चरणीय। इसमें दुश्मन की मिसाइल को वायुमंडल के बाहर ही नष्ट करना होता है। हम कह सकते हैैं कि भारतीय प्रक्षेपास्त्र रोधी प्रणाली अमेरिकी प्रणाली से श्रेष्ठ है।

( लेखक विज्ञान मामलों के लेखक हैं )