रामिश सिद्दीकी। भारत में लोकतंत्र के महाकुंभ का आगाज हो चुका है। विभिन्न चुनावी मुद्दों के बीच जो मुद्दा हमेशा दिखता है वह है ध्रुवीकरण का। शायद ही कोई राजनीतिक दल हो जिस पर वोटों के धु्रवीकरण का आरोप न लगता हो। इस आरोप के बीच मुस्लिम वोट का सवाल सदैव मौजूद रहता है। देश में कई राजनीतिक दल ऐसे हैं जो मुस्लिम वोट की अधिक चिंता करने के लिए जाने जाते हैं। क्या ऐसे दलों से कभी यह पूछा गया कि उन्होंने मुस्लिम समाज के हितों की रक्षा किस तरह की?

आम धारणा है कि उत्तर प्रदेश में सपा- बसपा-रालोद के बीच जो गठबंधन तैयार हुआ उसके केंद्र में मुस्लिम वोट बैंक ही है। इसकी पुष्टि मायावती के चुनावी भाषण से हो गई। इस गठबंधन की पहली रैली सहारनपुर जिले के एक छोटे शहर देवबंद में हुई। देवबंद विश्वभर में इस्लामी मदरसा दारुल उलूम के लिए प्रसिद्ध है जो मिस्न के अल-अजहर के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा इस्लामी मदरसा है। अब दारुल उलूम अपने फतवों के कारण अधिक चर्चा में रहता है, लेकिन आजादी की लड़ाई में इस संस्था की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। दारुल उलूम के संस्थापक केवल उलमा नहीं थे, बल्कि वे स्वतंत्रता सेनानी भी थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

भारत के विभाजन की जब विकट स्थिति पैदा हुई तब यहीं के उलमा जिन्ना की बांटने वाली विचारधारा के सामने एक दीवार बनकर खड़े रहे। यहां के उलमा ने कहा कि राष्ट्र की बुनियाद धर्म नहीं बन सकती। वे मानते थे कि राष्ट्रवाद अलग है और धर्म को मानना अलग। कोई भी धर्म अपने राष्ट्र के प्रति कर्तव्य के रास्ते में बाधा नहीं होता। दारुल उलूम का जिक्र इसलिए, क्योंकि जिस संस्था ने स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी वह अब चुनावी राजनीति का जरिया सा बन गया है। प्रत्येक चुनावों में देवबंद का इस्तेमाल दो समुदायों के बीच भेदभाव पैदा करने के लिए किया जाता है।

भारत के संविधान ने इस देश के प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार दिया है कि वे जिस भी राजनीतिक दल को चाहते हैं, उसे वोट दें, लेकिन मुस्लिम समाज किसी एक दल या गठबंधन के पक्ष में मतदान करने के लिए जाना जाता है। लोकतंत्र में मतदान विशेष समुदाय की भलाई के लिए नहीं होता। यह देश की भलाई के लिए होता है, लेकिन मुस्लिम समुदाय के सामने यह स्थिति पैदा कर दी जाती है कि वह अपनी और अपने मजहब की सुरक्षा की चिंता करते हुए वोट दे। इस चक्कर में यह समाज अपने ही अन्य जरूरी मुद्दों की अनदेखी कर देता है। परिणाम यह होता है कि मुसलमानों के वोट का लाभ इस समाज का ठेकेदार बनने वाले लोग उठा लेते हैं। सरकारें देश की सुरक्षा, प्रशासनिक और अन्य तमाम मामलों के प्रबंधन के लिए चुनी जाती हैं, वे लोगों की सोच के स्तर को बदलने के लिए नहीं चुनी जातीं।

पिछले कई दशकों से मुस्लिम समाज को एक ही झूठ पर वोट देने के लिए उकसाया जाता है कि अगर किसी विशेष दल के लोग सत्ता में आए तो उनके लिए जीवन मुश्किल हो जाएगा और यह चुनाव उनके अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है। जब कुछ राजनीतिक दल मुस्लिम समाज और अन्य समाज को लेकर अपना चुनावी गणित बैठाते हैं तो इसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दे दिया जाता है और जब यही काम कोई दूसरा करता है तब उसे ध्रुवीकरण का नाम दे दिया जाता है। यह स्वाभाविक है कि जब कोई एक समाज गोलबंद होगा तो प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरा समाज भी गोलबंद होने की कोशिश करेगा या फिर कोई अन्य उसे गोलबंद करने की कोशिश करेगा। इस्लामिक धार्मिक ग्रंथों में कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया गया है कि मुसलमानों का नेता केवल मुस्लिम ही हो सकता है।

दरअसल, इस्लाम में राजनीतिक व्यवस्था को लेकर कहीं कोई चर्चा ही नहीं है। विश्वभर में इस्लाम की जैसी राजनीतिक छवि बनी है उससे पूरी दुनिया में लोग यह सोचने पर मजबूर हो गए हैं कि क्या इस्लाम ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की बात करता है जहां इस्लाम के मानने वालों के हाथ में सत्ता होनी चाहिए? हजरत यूसुफ के जीवन का स्मरण आवश्यक है। हजरत ने पैगंबर से अपने लिए कभी कुछ नहीं मांगा, न ही किसी के लिए अपने मन में कभी द्वेष रखा।

उनकी इसी पवित्रता के कारण मिस्न के उस समय के शासक फिरौन के दरबार में उन्हें एक राजनीतिक पद पर नियुक्त किया गया। एक राजनीतिक पद पर रहते हुए उन्होंने हमेशा न्याय और करुणा के साथ फैसले किए। उन्होंने कभी भी इस्लामी शासन स्थापित करने या अपने गैर मुस्लिम राजा को हटाने के लिए आवाज नहीं उठाई। उन्होंने अपने पद को बचाने के लिए अपने लोगों को नकारात्मक सोच में कभी नहीं झोंका जो आज हम भारत के कथित मुस्लिम हितैषी नेताओं में देखते हैं।

भारत में लगभग 60-70 हजार पारसी हैं, जो पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं, लेकिन उनमें से किसी ने कभी नहीं कहा कि हम सुरक्षित नहीं हैं या हमारा धर्म खतरे में है। पारसियों के अलावा भी भारत में अलग-अलग धर्मों के लोग हैं जो संख्या में बहुत कम हैं, लेकिन कभी उनमें यह सोच नहीं देखी गई कि वे भारत में असुरक्षित हैं। दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय है जो भारत में 18 करोड़ से भी अधिक है, फिर भी लगातार असुरक्षा के साये में जीता है। आखिर उन्हें खतरा किससे है और क्यों? क्या उन्होंने कभी महसूस किया कि उनकी इस सोच का वास्तविक लाभ किसको मिल रहा है? एक समुदाय जो इतनी बड़ी तादाद में है, उसे खतरा कैसे महसूस हो सकता है? इस सोच का एक बड़ा कारण समाज में फैली अशिक्षा और सही नेतृत्व का अभाव है।

धार्मिक और राजनीतिक नेता बड़ी संख्या में मदरसों का निर्माण और समर्थन तो करते हैं, लेकिन देश में उच्च शिक्षा संस्थानों का निर्माण कैसे हो और मुस्लिम युवा उच्च शिक्षा में आगे कैसे आएं, इसकी चिंता नहीं करते। यह चिंता इसलिए नहीं की जाती, क्योंकि मुस्लिम समाज ने अपनी छवि एक वोट बैंक की बना रखी है। आज मुस्लिम समाज को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है जो उसमें कर्तव्य के प्रति जागरूक बनने की सोच विकसित कर सके। सच्चर समिति जैसी दर्जनों समितियां भी किसी समुदाय को बेहतर नहीं बना सकतीं, अगर वह समाज वोट बैंक की अपनी छवि को तोड़ने के लिए आगे नहीं आता।

 (लेखक फोरम फॉर पीस एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट के अध्यक्ष हैं)