[ हर्ष वी पंत ]: तमाम अटकलों के बाद मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को लेकर आखिरकार अपने पत्ते खोल दिए। सरकार ने एक ही झटके में भारतीय संघ के साथ इस राज्य के रिश्तों की तस्वीर बदल दी। गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को करीब-करीब समाप्त करने का एलान किया। अब इसमें केवल एक प्रावधान शेष रहेगा और यह राज्य जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के रूप में दो केंद्रशासित प्रदेशों में विभाजित हो जाएगा। इस पहल पर जहां सरकार को बसपा, आप, बीजद और वाइएसआर कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों का साथ मिला तो वहीं जदयू जैसी उसकी सहयोगी पार्टी ने इसके विरोध में सदन से बहिर्गमन का रास्ता चुना। जैसे कि उम्मीद थी, कश्मीर के नेताओं ने इसे ‘असंवैधानिक’ बताते हुए इसके गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी।

चुनावी घोषणापत्र में था अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने का उल्लेख

एक तरह से देखा जाए तो इस कदम पर उतनी हैरानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि भाजपा ने 2019 के चुनावी घोषणापत्र में अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाने का उल्लेख किया था। साथ ही इस मसले पर उसने अपनी भावनाएं कभी छिपाई भी नहीं। भाजपा के पूर्व संस्करण भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण के पक्ष में मुहिम चलाई थी। इसके चलते शेख अब्दुल्ला सरकार ने 1953 में उन्हें श्रीनगर में गिरफ्तार करा लिया था और जेल में ही उनका निधन हो गया। तब से यह मुद्दा पार्टी के नेताओं के बीच और उसकी विचारधारा में छाया रहा।

जोखिम लेने से कतराते नहीं

दूसरे कार्यकाल के लिए मोदी सरकार को मिले प्रचंड जनादेश ने सुनिश्चित कर दिया था कि अब यह मुद्दा उसके नए एजेंडे के केंद्र में होगा। किसी भी सरकार के लिए यह मुद्दा विस्फोटक होता, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर से दिखा दिया कि वह जोखिम लेने से कतराते नहीं। इसके लिए पिछले कुछ हफ्तों में चरणबद्ध ढंग से जमीन तैयार की गई। देश पर इसके दीर्घकालिक परिणाम देखने को मिल सकते हैं। अगर मोदी सरकार इससे उचित रूप से निपट सकी तो यह उसकी एक बहुत बड़ी उपलब्धियों में शुमार होगी।

जम्मू-कश्मीर में चुनाव जल्द

जम्मू-कश्मीर में जल्द ही चुनाव होने हैं। यह भारत की लोकतांत्रिक विश्वसनीयता के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है कि चुनाव नियत समय पर हों। इस बीच राज्य में तथाकथित मुख्यधारा के राजनीतिक दलों की साख रसातल में है। अलगाववादी नेतृत्व का असली चेहरा भी उजागर हो चुका है कि वे पाकिस्तान की कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं हैं। लोग ‘मुख्यधारा’ के राजनीतिक दलों से भी त्रस्त हैं जिनके निष्प्रभावी और भ्रष्ट कुशासन ने राज्य को खोखला कर दिया है। वे किसी तरह का सकारात्मक बदलाव लाने में नाकाम रहे हैैं। वहीं मोदी सरकार के लिए यह माकूल मौका था कि वह इस यथास्थिति को चुनौती दे।

मध्यस्थता का शिगूफा

‘आफ-पाक’ थियेटर में चल रहे नाटक का भी इस घटनाक्रम में एक दिलचस्प जुड़ाव है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के हालिया अमेरिका दौरे में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता का शिगूफा छेड़ा था। इससे भारतीय नीति निर्माता यह समझ गए कि कश्मीर पर अब आर-पार का समय आ गया है। अगर कश्मीर को लेकर अमेरिका और पाकिस्तान एक हो जाएं और भारतीय हितों की अनदेखी का अंदेशा उभर आए तब भारत के पास हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की गुंजाइश नहीं रह जाती।

भारत का आंतरिक मामला

भारत के अफगानिस्तान में भी व्यापक हित जुड़े हुए हैं। कभी-कभी खेल बनाने के बजाय खेल बिगाड़ने वाली भूमिका से भी सामने वाले को संदेश देना पड़ता है कि आपकी आवाज भी मायने रखती है और उसे अनदेखा करना आपको भारी पड़ सकता है। कश्मीर को लेकर मोदी का यह कदम बिल्कुल इसी श्रेणी में आता है, भले ही वह योजनाबद्ध हो या आकस्मिक। इस कदम ने पाकिस्तान पर ‘कुछ’ करने का जबरदस्त दबाव बढ़ा दिया है। अमेरिका की इस प्रतिक्रिया के बाद उसकी परेशानी और बढ़ गई होगी कि यह भारत का आंतरिक मामला है।

इस्लामाबाद ने अनुच्छेद 370 को हटाने का किया विरोध

इस्लामाबाद ने अनुच्छेद 370 को हटाने का पुरजोर विरोध किया है। उसकी दलील है कि नई दिल्ली द्वारा इसे एकतरफा हटा देने से कश्मीर विवाद की स्थिति नहीं बदल सकती। उसके ऐसे रुख को देखते हुए लगता है कि भारत के इस कदम की काट में वह हरसंभव तिकड़म आजमाएगा। आसार यही हैं कि वह प्रत्येक वैश्विक मंच पर कश्मीर के मुद्दे को उठाने की कोशिश करेगा। अगले महीने प्रस्तावित संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक में भी ऐसा हो सकता है। अब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी इसमें कितनी दिलचस्पी दिखाती है, यह एक बिल्कुल अलग मसला है।

बड़ा बदलाव

भारत में भी तमाम लोगों को यह फैसला पचा पाना मुश्किल लग रहा है। हम यथास्थिति को लेकर इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि इस स्तर का बड़ा बदलाव हमारे बौद्धिक तबके को चुनौती देता है, मगर यह भी एक हकीकत है कि हम जैसे तमाम लोग इसे नजरअंदाज करेंगे, क्योंकि कश्मीर में यथास्थिति बहुत पहले ही अझेल हो चुकी थी। यह भारतीय राजनीतिक वर्ग और नीति निर्माताओं की शिथिलता ही थी कि वे यथास्थिति को चुनौती देने से कतराते रहे। जम्मू-कश्मीर की तथाकथित समस्या हमेशा से राज्य की जनता और शेष भारत के बीच का एक द्विपक्षीय मसला रही है। बीते सत्तर वर्षों में शेष भारत एक तरह की नीतियों के साथ चल रहा है जबकि कश्मीर के लिए नीतियां अलग रहीं। उनका परिणाम उत्साहजनक नहीं रहा।

शेष भारतीयों का जम्मू-कश्मीर में हिस्सा

उन नीतियों को बदलने का वक्त आ गया था। जैसे जम्मू-कश्मीर के लोगों का शेष भारत में हिस्सा है वैसे ही शेष भारतीयों का भी जम्मू-कश्मीर में हिस्सा होना चाहिए। मोदी सरकार का हालिया कदम यही रेखांकित करता है कि वह न केवल भारत की खंडित परिधि को सुगठित करने के लिए गंभीर हैं, बल्कि वह उस राज्य की आकाक्षांओं को लेकर भी संजीदा है जो अपने तमाम संसाधनों के बावजूद हिंसा और खराब राजनीति का शिकार है। ऐसा करने के लिए अतीत की गलतियों को सुधारना सबसे पहला आवश्यक कदम है।

( लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं )

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