डॉ. सुशील कुमार सिंह। USA Protest: अमेरिका की सड़कों पर इन दिनों जिस तरह की हिंसा कायम है, उसका कारण केवल पुलिस की एक मात्र हैवानियत नहीं, बल्कि वर्षो से यहां विद्यमान श्वेत और अश्वेत का भेदभाव है। इस रंगभेद के चलते समय-समय पर अमेरिका के कल-पुर्जे ढीले होते रहे हैं और दुनिया में इस बदनामी के दाग से वह मुक्त नहीं हो पा रहा है। इस संबंध में ऐतिहासिक पड़ताल यह दर्शाती है कि अमेरिका 230 वर्ष पहले जब स्वतंत्र हुआ था, तब उसकी अर्थव्यवस्था अपने शैशवकाल में थी, और उसका स्वरूप कुछ आदिम अर्थव्यवस्था जैसा था।

तब अमेरिका निर्मित माल और पूंजीगत सहायता के लिए यूरोप पर आश्रित था। मगर एक शताब्दी के भीतर उसकी अर्थव्यवस्था की गाड़ी अपनी पटरियों पर तेजी से दौड़ने लगी। यही नहीं, आर्थिक सर्वोच्चता की दौड़ में उसने कई देशों को पीछे छोड़ दिया। यह बात और है कि श्वेत और अश्वेत के भेद के साथ यह दौड़ निरंतरता लिए हुए थी। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षो में अन्य देशों की तुलना में अमेरिका की जीडीपी सबसे अधिक हो गई और समय के साथ इस सर्वोच्चता को बनाए रखने में वह सफल भी रहा।

मौजूदा समय में जिस नस्लवाद से अमेरिका गुजर रहा है, उससे एक बार यह विश्वास करना कठिन होता है कि यह दुनिया का सबसे ताकतवर देश है। हैरत यह है कि एक श्वेत पुलिस वाला एक अश्वेत नागरिक की गर्दन को तब तक दबा कर रखता है, जब तक उसके प्राण नहीं निकल जाते हैं। वैसे भी सभ्य समाज में सजा देने का ऐसा कोई प्रावधान शायद ही किसी को स्वीकार है। बस यहीं से अमेरिका एक बार फिर नस्लभेद की भेंट चढ़ गया है। इस घटना ने कोरोना वायरस से व्यापक पैमाने पर जूझ रहे अमेरिका को एक नई आग में झोंक दिया है जिसकी लपटें 150 से अधिक शहरों तक पहुंच चुकी हैं। व्हाइट हाउस की सुरक्षा भी दांव पर लगी हुई है। स्थिति इतनी भयावह हो गई कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को कुछ समय के लिए बंकर में छिपना पड़ा। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अश्वेतों का गुस्सा एकाएक न होकर अनेक वर्षो का परिणाम है।

ट्रंप के रवैये की चौतरफा आलोचना : अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के प्रमुख शहरों में हो रहे हिंसक प्रदर्शनों को रोकने का आह्वान कर रहे हैं। उन्होंने चेतावनी देते हुए यह भी कहा है कि यदि राज्यों के गवर्नर ने नेशनल गार्ड को लगाने से मना किया तो वह सेना की तैनाती करेंगे। गौरतलब है कि ट्रंप किसी समस्या से निकलने के लिए दूसरी नई समस्या को विकसित करने में माहिर हैं, जो उनके लिए मुसीबत का सबब भी बनता रहा है। इन दिनों चौतरफा घिरे ट्रंप एक बार फिर कइयों के निशाने पर हैं। माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के सीईओ सत्य नाडेला, गूगल के सुंदर पिचई और पेप्सिको की पूर्व सीईओ इंदिरा नूई समेत पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ट्रंप के रवैये पर सवाल उठा रहे हैं। समस्या को जिस तरह ट्रंप दबाव के साथ हल करने का प्रयास करते हैं, शायद यही कारण है कि उनकी चौतरफा आलोचना होती रही है।

कोरोना महामारी के बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन से नाराजगी के चलते उससे नाता तोड़ने वाले ट्रंप के इस कृत्य पर भी अमेरिका के भीतर और बाहर कई सवाल उठे हैं। इसी साल नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव होना है और ट्रंप इस चुनाव में एक बार फिर व्हाइट हाउस का रास्ता तलाशना चाहेंगे, मगर पहले कोरोना से निपटने में सामने आई विफलता और अब नस्लभेद की आग ने उनके रास्ते में नई मुसीबत खड़ी कर दी है।

अमेरिका की असाध्य बीमारी नस्लभेद : इस समय पूरी दुनिया की निगाह अमेरिका पर बनी हुई है। करीब एक सप्ताह से अमेरिका जल रहा है। लोग सड़कों पर हैं और ट्रंप सेना का सहारा लेने की बात कह रहे हैं। नस्लवाद अमेरिका की सबसे बड़ी महामारी है जिसका टीका अब तक नहीं खोजा जा सका है। नई-नई बीमारियों से निजात पाने वाले अमेरिका ने नस्लवाद को मानो असाध्य बीमारी मान लिया है। अमेरिका में करीब 18 फीसद अश्वेत हैं जिन्हें गाहे-बगाहे निरंतर भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इससे जुड़ी घटनाएं आए दिन सुíखयों में रहती हैं, लेकिन इस बार यह व्यापक रूप से फैल गया। दरअसल अमेरिका में रंगभेद का इतिहास बहुत पुराना है। वर्ष 1619 में जब पहली बार अमेरिका में अफ्रीकी मूल के लोगों को गुलाम बनाकर लाया गया था, तब से इसकी कड़ी जुड़ती है। इस घटना को हुए 400 साल हो गए, पर यह जिन्न आज भी सभ्य अमेरिका में जिंदा है।

अमेरिका में अश्वेतों के आगमन का इतिहास : अमेरिका बरसों तक उपनिवेशवाद के रूप में रहा है और इसी उपनिवेशवाद के पहले चरण के दौरान 1619 में कुछ अश्वेत लोगों को लाकर जेन्सटाउन में बसाया गया था। आरंभ में तो ये लोग वेस्टइंडीज से लाए गए, किंतु बाद में 1674 में रॉयल अफ्रीकन कंपनी ने अश्वेत लोगों को अफ्रीका से जहाजों में भर-भरकर लाना शुरू कर दिया। आरंभ में सारे अश्वेत मजदूर, दास बनाकर लाए गए, मगर ज्यों-ज्यों आíथक कारणों से मजदूरों की मांग बढ़ती गई, अश्वेतों की स्थिति बदहाल होती गई। सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में वर्जीनिया में एक दास नियमावली बन चुकी थी जिसके चलते दासों को उस व्यक्तिगत संपत्ति की तरह माना जाने लगा जिसे बाजार में खरीदा और बेचा जा सकता है। अश्वेत लोगों की इस दयनीय स्थिति के दुष्परिणाम तो आने ही थे। इसी वजह से अश्वेत और गोरे अमेरिकियों में विभाजन की रेखा अस्तित्व में आई जिसने अमेरिका में नस्लवादी और रंगभेदी इतिहास को जन्म दिया। इसका कच्चा चिट्ठा आज भी अमेरिका की सड़कों पर एक दस्तावेज के रूप में उभरा हुआ है। हैरत यह भी है कि सैकड़ों साल बीतने के बाद अमेरिकी स्वतंत्रता के घोषणापत्र में गुलामों के व्यापार के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। उसमें स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांत पर जो बल दिया गया था वह गुलामों के लिए नहीं था।

पुलिस की ज्यादती और अश्वेतों के प्रति भेदभाव : अमेरिका के इतिहास में आंदोलन का बड़ा चेहरा रहे मार्टनि लूथर किंग जूनियर जो भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते थे। उन्होंने कहा था कि आने वाले दिनों में क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि मेरे बच्चे नस्लभेद से मुक्त अमेरिका में सांस ले पाएंगे। दरअसल मार्टनि लूथर किंग का यह भी दृष्टिकोण था कि आंदोलनों में हिंसा की कोई जगह नहीं है और एक बार उन्होंने यह भी कहा था कि दंगे वे लोग करते हैं जिनकी आवाज नहीं सुनी जाती है। उक्त कथन के आलोक में घटे प्रकरण को देखें तो मार्टनि लूथर किंग के कथन सत्यता की पुष्टि करते हैं। एक पुलिसवाला एक अश्वेत के गर्दन को अपने घुटने से आठ मिनट तक दबाए रखता है और तिल-तिल कर उसकी सांस उखड़ जाती है। यदि यह हकीकत है तो मार्टनि लूथर किंग की बातें अमेरिका की फिजा के हिसाब से कहीं अधिक पुख्ता सुबूत की तरह है। अमेरिका में हो रहे दंगे और प्रदर्शन यही बताते हैं कि अश्वेतों को वह न्याय और वह स्थान नहीं मिला जो उन्हें मिलना चाहिए। अमेरिका में रंगभेद अभी भी सिर चढ़ कर बोल रहा है, जबकि उसके संविधान को बने 230 साल से अधिक हो चुके हैं। यहां रंगभेद इतना मजबूत है कि अधिकांश अश्वेत नागरिक आज भी अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।

कोरोना संकट के बीच पिछले करीब एक सप्ताह से अमेरिका के 140 शहर आग में झुलस रहे हैं और इसका दायरा बढ़ता ही जा रहा है। हालांकि रंगभेद की त्रसदी यहां वर्षो से कायम है और अश्वेतों के साथ भेदभाव की घटनाएं अक्सर सामने आती रही हैं, लेकिन उन्हें बेहद कुशलता से निपटाने के कारण बात ज्यादा नहीं बिगड़ पाती थी। इस बार इस मामले ने तूल पकड़ लिया और मामला उलझता चला गया जिसके गंभीर नतीजे आज अमेरिका भुगत रहा है।

चीन पर हिंसा भड़काने का संदेह : अमेरिका में जो दंगे हो रहे हैं, उसमें कुछ हद तक अमेरिका और चीन के बीच की तल्खी को भी एक वजह के रूप में माना जा रहा है। बात छन-छन कर यह भी आ रही है कि चीन के प्रति अमेरिका का कड़ा रुख डोनाल्ड ट्रंप के लिए एक मुसीबत बन गया है। व्हाइट हाउस के घेराव और हमले के दौरान कुछ विरोधियों को चीनी भाषा में बात करते हुए सुने जाने की बात भी कही जा रही है। संभव है कि चीन ने ट्रंप विरोधी गुट को हवा देने का काम किया होगा। फिलहाल नस्लभेद की इस लड़ाई में सबसे ज्यादा नुकसान अमेरिका को तो हो ही रहा है, साथ ही दुनिया में इसका संदेश बिल्कुल गलत जाएगा जो राष्ट्रपति ट्रंप के व्यक्तित्व के लिहाज से कहीं अधिक नकारात्मक है। अमेरिका और चीन कोरोना के चलते जिस तरह आमने-सामने हैं उसे देखते हुए कुछ भी घटित हो सकता है।

इतना ही नहीं, जब दुनिया कोरोना की महामारी से जूझ रही है, तब चीन लद्दाख में भारत के लिए मुसीबत का सबब बन गया है और एक बार फिर द्विपक्षीय संबंध रसातल में चले गए हैं। चीन अपनी आंतरिक समस्याओं से जूझने का रास्ता फिलहाल भारत से उलझने के मार्ग से निकाल रहा है। जबकि अमेरिका नासूर बनी समस्या से इन दिनों दो-चार हो रहा है। अगस्त 1965, जुलाई 1967 और अप्रैल 1968 के दौर को देखें तो वहां रंगभेद की लड़ाई जिस तरह से चरम पर थी, वर्तमान घटना नस्लभेद की उस स्याही को कहीं और अधिक गाढ़ी कर रही है। जिस तर्ज पर हाल में अमेरिका में घटना घटी है, उसी तर्ज पर दिसंबर 1979 में चार श्वेत पुलिस अधिकारियों ने मोटरसाइकिल सवार एक अश्वेत को पीट-पीटकर मार दिया था।

हालांकि सुनवाई के बाद उन पुलिसकíमयों को बरी कर दिया गया था, लेकिन तब भी अश्वेतों ने हिंसा की घटनाओं को अंजाम दिया था। वैसे उस समय इन घटनाओं का स्तर बहुत कम था। वर्ष 1992 में अश्वेत रंगभेद की हिंसा ने एक बार फिर 59 लोगों की जान ली थी। अगस्त 2014 में भी एक पुलिसवाले ने एक अश्वेत किशोर को मौत के घाट उतार दिया था। उस समय भी हिंसा और तनाव का माहौल बना था। पड़ताल बताती है कि श्वेत पुलिसकर्मियों के निशाने पर अश्वेत अक्सर रहे हैं और हजारों की तादाद में मौत इसी तरह हुई है जिसके चलते अमेरिका हिंसा की चपेट में रहा है और वहां के अश्वेत नागरिक स्वयं को रंगभेद का शिकार होने से नहीं बचा पा रहे हैं।

[वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन]