[शिवकांत शर्मा]। Agnipath Protests: अग्निपथ योजना सैन्य ढांचे में कौशल की ऐसी परख करने में सहायक सिद्ध होगी, जिसमें सेनाएं अग्निवीरों को चार साल तक परख सकेंगी। अग्निवीरों को सेना में वेतन के साथ-साथ अनुभव और कौशल विकास का अवसर मिलेगा। इस दौरान सबसे योग्य एक चौथाई अग्निवीरों को पूर्णकालिक सेवा में लिया जाएगा। यूरोप और अमेरिका के कई देशों में ऐसे कार्यानुभव और शागिर्दी की योजनाएं चलती हैं, जिनमें भर्ती होकर युवा रोजगार के लिए जरूरी हुनर सीखते हैं। रूस, इजरायल, ब्राजील, तुर्की, स्विट्जरलैंड और स्वीडन जैसे 60 से अधिक देशों में ऐसी अनिवार्य भर्ती योजनाएं हैं, जहां युवाओं को एक से दो साल तक सेना में काम करना पड़ता है और उन्हें वेतन भी नहीं मिलता।

सरकार का कहना है कि अग्निपथ योजना से सेना में युवा सैनिकों का अनुपात बढ़ेगा। चार साल परखने के बाद सबसे योग्य जवानों को रखने का मौका मिलेगा। पेंशन का लगातार बढ़ रहा बोझ हल्का होगा, जिससे होने वाली बचत को आधुनिक रक्षा उपकरणों पर खर्च कर सेना को अधिक सक्षम बनाया जा सकेगा। संप्रति भारतीय सेना के कुल बजट का 26 प्रतिशत पेंशन भुगतान पर खर्च होता है। जबकि दुनिया के सबसे बड़े रक्षा बजट वाले देश अमेरिका में रक्षा बजट का मात्र 10 प्रतिशत ही पेंशन पर और ब्रिटेन में यह 14 प्रतिशत है।

भारत में रक्षा बजट का आधे से ज्यादा हिस्सा वेतन और पेंशन पर खर्च होने लगा है, जिसकी वजह से आधुनिक रक्षा उपकरणों की खरीद नहीं हो पा रही है। सैनिकों की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन रक्षा साजोसामान पुराना पड़ता जा रहा है। पिछले तीस वर्षों में अमेरिका, रूस, चीन और ब्रिटेन जैसे सभी बड़ी सैन्य शक्तियों ने सैनिकों की संख्या घटाई है, लेकिन उन्हें अत्याधुनिक उपकरणों से लैस किया है। भारतीय सेना में इसका उलट हो रहा है। आधुनिक युद्ध के लिए देशों को बड़ी सेना के बजाय अत्याधुनिक उपकरणों से लैस चुस्त-दुरुस्त सेना की जरूरत होती है। अग्निपथ योजना इसी दिशा में बढऩे का एक कदम है।

अब सवाल उठता है कि भारत के युवा अग्निपथ योजना को लेकर इतना बवाल क्यों कर रहे हैं? इसकी पहली वजह तो यही है कि कोविड महामारी की वजह से पिछले दो वर्षों से सेना में भर्तियां नहीं हुई हैं। जो युवा दो वर्षों से सेना की स्थायी नौकरियों के लिए परीक्षाएं दे चुके थे या उनकी तैयारी कर रहे थे। उन्हें भर्ती के बाद सेना की स्थायी नौकरी और पेंशन जैसी दूसरी सुविधाओं के न मिलने की नाराजगी है।

अग्निपथ की भर्तियों में से एक चौथाई को सेना में स्थायी रूप से रखने की बात बचे तीन चौथाई को केवल चार साल तक रखने की बात में खो गई है। दूसरी वजह है अग्निवीर का प्रमाण पत्र, अनुभव और कौशल के बावजूद स्थायी और अच्छा रोजगार न मिल पाने का भय, जो पिछले पांच-छह वर्षों से लगातार बढ़ रही बेरोजगारी के कारण फैला है। उसमें कोविड महामारी का भी बड़ा हाथ रहा है, लेकिन असली वजह भारत के मैन्यूफैक्चरिंग और सार्वजनिक व भवन निर्माण क्षेत्र हैं, जहां पिछले पांच-छह वर्षों से रोजगारों की मंदी जारी है।

भारत में रोजगार की स्थिति पर नजर रखने वाली विभिन्न एजेंसियों के आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच-छह वर्षों में मैन्यूफैक्चरिंग रोजगारों की संख्या करीब 5.1 करोड़ से घटकर 2.7 करोड़ रह गई है। भवन निर्माण के क्षेत्र में यह लगभग 6.8 करोड़ से घटकर 5.2 करोड़ रह गई है। बहुसंख्यक कामकाजी आबादी वाले भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था के दो बड़े क्षेत्रों में लगभग चार करोड़ रोजगार घटने से बेरोजगार युवाओं में एक तरह की हताशा छा गई है।

सरकार की मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत जैसी योजनाओं के प्रोत्साहन के बावजूद रोजगार में मंदी की स्थिति कायम है। भारत में रोजगार तलाशने वालों की बड़ी संख्या उन लोगों की है जो कृषि क्षेत्र में गुजारा न चल पाने के कारण दूसरे क्षेत्रों में काम तलाशते हैं। उनके पास सेवा और तकनीकी क्षेत्रों में काम करने के लिए आवश्यक योग्यता नहीं होती। ऐसे लोगों को मैन्यूफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन में ही काम दिलाया जा सकता है।

चीन में अभी कामकाजी आबादी भारत से काफी कम है। फिर भी वहां मैन्यूफैक्चरिंग में 11 करोड़ से ज्यादा लोग कार्यरत हैं। यह भारत की तुलना में करीब चार गुने से भी अधिक है। इसीलिए भारत को मैन्यूफैक्चरिंग में रोजगार बढ़ाने के लिए युद्धस्तर पर काम करना होगा। इस मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट पूंजी का अभाव, लालफीताशाही और भ्रष्टाचार है। उद्योग लगाने के लिए बड़ी मात्रा में पूंजी जुटाने का जोखिम उठाना पड़ता है। उसके बाद स्थानीय, प्रादेशिक और केंद्रीय सरकारों, एजेंसियों और राजनीतिक हितों से जूझना पड़ता है। भारत में अधिकांश लोगों की क्रयशक्ति कम है इसलिए मैन्यूफैक्चरिंग के विकास के लिए चीन की तरह निर्यात को प्रोत्साहन देने वाली नीति आवश्यक है।

इसका दूसरा विकल्प है वस्त्र उद्योग, चमड़ा उद्योग और कुटीर उद्योग जैसे उद्योगों को बढ़ावा देना, जिनमें पूंजी कम लगती है और ज्यादा लोगों को रोजगार मिलता है। बांग्लादेश और वियतनाम ने यही रणनीति अपनाकर निर्यात के मामले में भारत से बाजी मार ली है। कुछ लोगों का तर्क है कि भारत का घरेलू बाजार काफी बड़ा है। इसलिए उसे बांग्लादेश और वियतनाम की तरह निर्यात पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है, लेकिन समस्या यह है कि भारत अपने घरेलू बाजार के लिए भी माल कहां बना पा रहा है? घरों और कारोबारों की छोटी से छोटी चीजें चीन से आ रही हैं, क्योंकि चीन उनका बड़े पैमाने पर निर्माण करता है और भारत के निर्माताओं से कम लागत पर बेच रहा है। इसलिए छोटे-छोटे कारखानों से भी काम नहीं चलेगा। बड़ी मात्रा में काम आने वाली रोजमर्रा की चीजों का चीन जितनी या कम लागत पर निर्माण करने के लिए बड़े कारखाने लगाने पड़ेंगे।

सबसे बड़ी समस्या शिक्षा प्रणाली की है। प्रायोगिक और पेशेवर शिक्षा को छोड़ दें तो भारत की सामान्य शिक्षा प्रणाली बच्चों को शारीरिक श्रम, काम-धंधे और कारोबार से दूर करती है। पढ़ लिखकर वे कुर्सी वाली नौकरी के सिवा कुछ करने का नहीं सोच पाते। सरकारी और आजीवन चलने वाली नौकरियों के लिए बढ़ रही मारामारी इसी का नतीजा है। यही कारण है कि देश के युवा अग्निपथ के विरोध में अग्निबाण की तरह खड़े हो गए हैं। उन्हें सेना की चुनौतियों और अग्निपथ से खुल सकने वाली संभावनाओं को सरलता और विस्तार से समझाने की जरूरत है।

(लेखक बीबीसी हिंदी सेवा के पूर्व संपादक हैं)

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