[अद्वैता काला]। सरसंघचालक के विजयादशमी भाषण को लेकर खासी उत्सुकता रहती है। स्वाभाविक है कि इस बार भी यह कोई अपवाद नहीं था। डॉ. मोहन भागवत के विजयादशमी भाषण के बाद तमाम तरह की चर्चाओं के दौर शुरू हो गए।

सरसंघचालक के विजयादशमी भाषण की परंपरा बहुत पुरानी है जो प्रथम सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के समय से चली आ रही है। पहले संबोधन में करीब 15 स्वयंसेवक शामिल हुए थे जिन्होंने समाज के भीतर काम करते हुए राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य से जुड़ने की राह चुनी थी।

एकजुट राष्ट्र का आह्वान

सरसंघचालक संघ परिवार के संरक्षक एवं मार्गदर्शक होते हैं। अपने इस वार्षिक संबोधन में वह स्वयंसेवकों के लिए प्राथमिकताओं का खाका खींचते हैं। साल दर साल इसके बिंदु भले बदल जाते हों, लेकिन मूल भाव वही रहता है। यह मूल भाव है समावेशन। इस वर्ष संघ के 94वें स्थापना दिवस पर सरसंघचालक ने ऐसे एकजुट राष्ट्र का आह्वान किया जो विविधता भरा हो और जिसमें तमाम पहचान समाहित हों। एक व्यक्ति के रूप में भी हमारी तमाम पहचान होती हैं जो भाषा, संस्कृति, लिंग और धार्मिक आधार से तय होती है, लेकिन जैसे तमाम नदियां अलगअलग प्रवाहित होकर सागर में एकाकार हो जाती हैं वैसे ही इन सभी पहचानों को राष्ट्रवाद की एक धारा में अवश्य ही मिल जाना चाहिए।

स्वार्थी लोग भारत को कर रहे बदनाम

बीते कुछ वर्षों में विशेषकर 2014 में प्रधानमंत्री मोदी को मिले पूर्ण जनादेश के बाद इन पहचानों को नुमाया करना और विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच संघर्ष को तूल देने की तमाम कोशिशें हुई हैं। डॉ. भागवत ने इस गंभीर मसले पर स्पष्ट लहजे में बात रखी। उन्होंने विशेष रूप से मॉब लिंचिंग यानी भीड़ की हिंसा से जुड़े विमर्श की चर्चा की, जिसे कुछ निहित स्वार्थी लोग भारत को बदनाम करने के लिए गढ़ रहे हैं। सामाजिक तनाव एवं हिंसा दुर्भाग्यवश भारतीय समाज का हिस्सा रहे हैं।

 

पश्चिम देशों से है लिंचिंग का संबंध 

हालांकि बीते छह वर्षों में देश में ऐसा कोई भयावह दंगा नहीं हुआ जिसमें जान-माल की भारी हानि हुई हो। यह मोदी सरकार की खास उपलब्धि है कि देश में शांति का माहौल कायम रहा और सांप्रदायिक संघर्ष की कोई चिंगारी नहीं भड़की। हालांकि छिटपुट हिंसा के कुछ मामले जरूर सामने आए जिन्हें स्वार्थी तत्वों ने लिंचिंग का नाम दिया। भागवत ने लिंचिंग को पश्चिमी अवधारणा बताया और वह गलत भी नहीं हैं। लिंचिंग का संबंध पश्चिम खासकर अमेरिका से है जहां अमेरिकी गृहयुद्ध के आसपास ऐसी घटनाएं सामने आईं। तब दासप्रथा के समर्थक अश्वेतों को निशाना बनाकर नस्ली श्रेष्ठता स्थापित करने का प्रयास करते। ऐसे माहौल में ही इस किस्म के जघन्य अपराध अंजाम दिए जाते थे।

लिंचिग का बुनते हैं तानाबाना

हालांकि भारत में जहां हम सभी का मूल एक ही है तो ऐसा संदर्भ सर्वथा अनुचित है। लिंचिंग एक ऐसा अत्याचार है जहां पीड़ितों को अलग-अलग निगाह से देखा जाता है। इसकी तमाम मिसालें भी हैं। इस साल मई से ही अब ऐसे तकरीबन 37 मामले सामने आए जहां मुस्लिमों ने हिंदुओं पर हमला किया, पर ये सुर्खियों में नहीं छाए। ऐसा मीडिया के पक्षपाती रुख और कुछ निहित स्वार्थी तत्वों के चलते होता है जो अपने एजेंडे के चलते अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इन अपराधों को उस लहजे में परोसते हैं जिसे पश्चिम में आसानी से समझा जा सके। इस तरह वे लिंचिंग का तानाबाना बुनते हैं जिसमें पीड़ितहमलावर की पहचान हमेशा मायने रखती है।

एक तबका पेश कर रहै है गलत छवि 

लिंचिंग एक भारी-भरकम शब्द है जिसका आशय एक खास तबके के लोगों के योजनाबद्ध ‘सफाये’ से है। जबकि तथ्य यह है कि देश में ऐसे अपराध 2014 से पहले भी होते आए हैं और यहां तक कि भारत का विभाजन भी ऐसी घटनाओं का परिणाम था। तब मुस्लिम अपने लिए अलग मुल्क पाकिस्तान की मांग कर रहे थे। यह प्रश्न अवश्य उठना चाहिए कि ऐसे लोगों का क्या एजेंडा है जो बड़े ढीठ तरीके से अपनी सुविधा के अनुसार एक तबके की गलत छवि पेश करते हैं? ऐसे लोग तब मुंह फेर लेते हैं जब वही तबका पीड़ित होता हैं।

अगर हम ऐसी लड़ाइयों को बंद करना चाहते हैं तो हमें दोषारोपण की कवायद से ऊपर उठकर समस्या के मूल में जाना होगा। असल में समस्या लोगों की उस मानसिकता में है जो यह सोचते हैं कि वे कानून अपने हाथ में लेकर अपने हिसाब से इंसाफ कर सकते हैं।

अस्पताल में हिंसक घटनाएं 

हिंसक भीड़ के ऐसे वाकये हमने अस्पतालों में भी देखे हैं। हाल में अपने एक करीबी की देखभाल के लिए मैं अस्पताल गई तो वहां ऐसे बोर्ड देखे जिसमें लोगों को अस्पताल स्टाफ के साथ हिंसक तरीके से पेश आने को लेकर हिदायत दी गई थी। यह स्वाभाविक रूप से उसकी प्रतिक्रिया थी जिसमें लोगों ने अपने प्रियजनों की मौत के बाद डॉक्टरों और नर्सों पर हमले किए थे। हिंसक भीड़ की उस घटना का भी उदाहरण लें जिसमें असम में बच्चा चोरी की अफवाह में दो लोगों को धर लिया गया।

ऐसी घटनाओं की जितनी निंदा की जाए, उतनी कम है। ये मामले चिंतित करते हैं, लेकिन हिंसक भीड़ के इन मामलों को लिंचिंग नहीं कहा गया। इस तरह आप देखेंगे तो उन्हीं मामलों को लिंचिंग करार दिया गया जहां पीड़ित मुस्लिम हों। जब कोई पीड़ित हिंदू होता है तो आखिर उसे लिंचिंग क्यों नहीं कहा जाता? सभी भारतीयों को यह प्रश्न अवश्य करना चाहिए, भले ही उनका मजहब कुछ भी हो। इसका जवाब इसके पीछे छिपे उस एजेंडे को उजागर करेगा जिसका मकसद दो वर्गों के बीच विभेद पैदा करना है और इस सबके पीछे सिर्फ और सिर्फ राजनीति है।

दुष्प्रचार करने वालों का एजेंडा हुआ नाकाम 

वर्ष 2019 में पीएम मोदी को मिला जनादेश बेहद निर्णायक है। सरसंघचालक ने एकदम सही कहा कि अगर 2014 की जीत पूर्ववर्ती सरकार से जनता के मोहभंग का परिणाम थी तो यह जनादेश मौजूदा सरकार के प्रदर्शन पर मुहर लगाता है। बढ़ी सीटें यही दर्शाती हैं कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस निरंतर होने वाले दुष्प्रचार को देख रहे हैं और पीएम मोदी जिस दिशा में देश को ले जा रहे हैं, वे उसमें भरोसा जता रहे हैं। संक्षेप में कहें तो यह दुष्प्रचार कारगर नहीं रहा। दो वर्गों को बांटने के इस खतरनाक खेल से व्यापक सांप्रादायिक हिंसा नहीं भड़की। मुस्लिम भाई भी इस उकसावे में नहीं आए। ऐसे में दुष्प्रचार करने वालों का एजेंडा नाकाम हुआ और आगे भी इसकी यही परिणति होगी।

भाईचारे की भावना का देना होगा बढ़ावा

हालांकि इन खतरनाक परिस्थितियों में कुछ निहित स्वार्थी एवं राजनीतिक हितों के वशीभूत लोग भारत की विकास गाथा को पटरी से उतारना चाहते हैं। एक आम भारतीय होने के नाते इस समय हमें भाईचारे और सहयोग की भावना सुनिश्चित करनी होगी। विजयादशमी के अवसर पर सरसंघचालक ने अपने संबोधन में यही संदेश दिया कि हमें समावेशन और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना चाहिए। ऐतिहासिक रूप से उनके संबोधन की मंशा भले ही स्वयंसेवकों को प्रेरित करने की हो, लेकिन उसमें हम सभी के लिए सीख और संदेश निहित है।

(स्तंभकार जानी मानी पटकथा लेखक हैं)

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