कैप्टन आर विक्रम सिंह। बालाकोट हमले के एक माह बाद इस साहसिक सैन्य कार्रवाई की चर्चा चुनावी शोरगुल में थम सी गई है, लेकिन यह याद रखना आवश्यक है कि बालाकोट हमारी सैन्य रणनीति में गुणात्मक परिवर्तन का नया प्रतीक होने के साथ हमारी ‘युद्ध संस्कृति’ में स्थाई बदलाव का स्पष्ट संकेत भी है। पुलवामा हमला पाकिस्तान का एक ऐसा कृत्य था जिसके निहितार्थ राजनीतिक थे। लगता है कि इसका उद्देश्य ऑपरेशन ‘ऑलआउट’ वाली सरकार को वापसी से रोकना था। पाकिस्तान ने शायद यह सोचा होगा कि भारत अधिक से अधिक उड़ी हमले के बाद की गई सर्जिकल स्ट्राइक जैसा कदम उठा सकता है।

शायद इसीलिए जैश ए मुहम्मद ने तत्काल हमले की जिम्मेदारी भी ले ली। इसके बाद सीमा पार सब कमांडो हमले के इंतजार में बैठ गए होंगे। पुलवामा हमले के जरिये पाकिस्तान ने एक ऐसी चुनौती प्रस्तुत की थी जिसका जवाब न दे पाने पर सत्ताधारी दल की विजय की संभावनाओं पर प्रश्नचिन्ह लग जाता। पाकिस्तान की यह भी सोच रही होगी कि परमाणु युद्ध के भय के चलते हमेशा की तरह भारत बड़ी प्रतिक्रिया नहीं कर पाएगा। कुल मिलाकर पुलवामा की मंशा मोदी सरकार की हार की पृष्ठभूमि लिखने की जान पड़ती थी। पाकिस्तान को इस बात की कल्पना भी न रही होगी कि पुलवामा हमले का जवाब बालाकोट के जंगलों में स्थित जैश के आतंकी प्रशिक्षण शिविर पर एयर स्ट्राइक से दिया जाएगा।

इस अकल्पनीय कार्रवाई ने सामरिक विशेषज्ञों को चकित किया। पाक की शक्ति का आभासी आधार ‘न्यूक्लियर झांसा’ अर्थहीन हो गया। बालाकोट स्ट्राइक ने भारतीय राजनीतिक-सैन्य प्रतिष्ठान की मानसिक बाधा को तोड़ दिया है। इस एयर स्ट्राइक में बालाकोट का आतंकी प्रशिक्षण केंद्र ही नहीं, बल्कि रणनीतिक संयम की वह नीति भी ध्वस्त हो गई जो परमाणु प्रतिक्रिया की आशंका से भयभीत होकर हमने गढ़ रखी थी। दरअसल यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। अभी हमें पाकिस्तान से यह सुनने को नहीं मिला है कि हमारे पास परमाणु बम है। उन्हें यह स्पष्ट हो गया है कि ‘नॉनस्टेट एक्टर्स’ का ढकोसला अब चलने वाला नहीं है। आतंकवाद से परेशान दुनिया हमारे साथ आई। पाकिस्तान के गुनाहों की पहचान इतनी स्पष्ट रूप से पहली बार हुई।

हमले के बाद पाकिस्तान के युद्धक विमानों ने सीमा पार की, लेकिन किसी लक्ष्य को निशाना नहीं बना सके। हमारे मिग-21 के बदले में उसने अपना एफ-16 गंवाया। विंग कमांडर अभिनंदन की त्वरित वापसी से पाकिस्तान की मजबूरियों की झलक मिली। पाकिस्तान की सीमा पार करने की इस औपचारिक सी प्रतिक्रिया ने यह सिद्ध कर दिया कि दक्षिण एशिया का शक्ति संतुलन स्थायी रूप से भारत के पक्ष में आ चुका है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि बालाकोट हमले से पाकिस्तान में आतंक का कारोबार समाप्त नहीं होने वाला। आतंकवाद ने जेहाद की शक्ल ले ली है और जेहाद मजहब से खुराक ले रहा है।

बालाकोट के बाद पाकिस्तानी तंत्र भारत में क्षेत्रीय विभाजनकारी शक्तियों को उकसाने का काम कर सकता है। वह खालिस्तानी तत्वों को फिर से हवा दे सकता है और विभिन्न भारत विरोधी तत्वों को समर्थन भी दे सकता है। हो सकता है कि वह सांप्रदायिक आतंकी-नक्सली धुरी को विकसित करे। इधर बालाकोट का आंतरिक प्रभाव देश के बढ़ते आत्मविश्वास के रूप में सामने आया है। शक्ति संतुलन के इस परिवर्तन से दक्षिण एशिया और अफ-पाक क्षेत्र भी प्रभावित हुए बिना न रह सकेगा। चीन का महत्वपूर्ण आर्थिक-रणनीतिक कॉरिडोर सी-पैक पाकअधिकृत गिलगित-बालटिस्तान से गुजरता है। इसके भविष्य पर परिवर्तित हो रहे शक्ति समीकरण का प्रभाव पड़ना अवश्यंभावी है। यदि हमने भविष्य में पाक अधिकृत कश्मीर को मुक्त कराने के लिए राजनीतिक-सामरिक दबाव बनाए रखा तो चीन को अपनी इस महत्वाकांक्षी परियोजना में भारत को, भारत की शर्तों पर हिस्सेदारी देने की पहल करनी पड़ेगी।

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने धमकी जैसी चेतावनी देते हुए कहा था कि अगर युद्ध प्रारंभ हो गया तो खत्म करना किसी के नियंत्रण में नहीं होगा, लेकिन जिस देश के पास मात्र दो महीने का विदेशी मुद्रा भंडार हो और आर्थिक दीवालियापन का खतरा सिर पर मंडरा रहा हो उसके लिए तो एक सप्ताह का युद्ध भी दुष्कर है। हवाई युद्ध, मिसाइल युद्ध के जमीनी युद्ध में परिवर्तित होने के बावजूद स्थितियां भारत के विरूद्ध नहीं जाने वाली थीं। हमें कश्मीर में अपने सीमा क्षेत्रों को विशेष कर सियाचिन, कारगिल, और हाजीपीर आदि को रक्षा अनुकूल बनाने का मौका जरूर मिल जाता। सीमित युद्ध का लाभ हमें ही मिलता। बड़े युद्ध से बचते हुए शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में झुका लेना हमेशा श्रेयस्कर होता है। इस दृष्टि से बालाकोट अपने उद्देश्यों में अत्यंत सफल अॉपरेशन कहा जाएगा। यदि फिर कभी पुलवामा जैसा हमला हुआ तो सीमित युद्ध के हालात बन जाएंगे। हमारी सभी सेनाओं के एक्शन ग्रुप को इतना सक्षम होना पड़ेगा कि वह शत्रु की क्षमताओं को ध्वस्त करने की त्वरित कार्रवाई कर सके।

बालाकोट में पराक्रम के बाद पाकिस्तान के गिरते सामरिक-आर्थिक महत्व का प्रभाव कश्मीर में भी परिलक्षित होना चाहिए। कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद पिछले तीस वर्षों में जेहादीकरण कश्मीर की राजनीति और प्रशासन का हिस्सा बन गया है। हुर्रियत, जिसके नेताओं को आम कश्मीरी जनता वोट तक नहीं देती, का आतंक इतना बड़ा है कि उसकी अपील पर हफ्तों तक बाजार बंद रहते हैं। आम आदमी की जिंदगी को आतंक के साये से बाहर ले आना एक बड़ा लक्ष्य है। इसके लिए कश्मीर के क्षेत्रीय प्रशासनिक स्वरूप में भी परिवर्तन आवश्यक है। जम्मू-कश्मीर समजातीय, समभाषाई एवं समधर्मी राज्य नहीं है। कश्मीर घाटी, जम्मू, डोडा, पश्चिमी कश्मीर, लद्दाख में स्वाभाविक भिन्नताएं हैं।

जब तक जम्मू-कश्मीर के आंतरिक प्रशासनिक ढांचे को आधारभूत रूप से विकेंद्रित करते हुए बदला नहीं जाएगा तब तक राजनीति-आतंकवाद-जेहाद के समीकरण को ध्वस्त करना संभव न हो पाएगा। अभी लद्दाख को अलग कमिश्नरी के रूप में स्वीकार करते हुए प्रशासनिक विकेंद्रीकरण का कार्य प्रगति में है। यही प्रकिया पश्चिमी कश्मीर, चेनाब घाटी के जिलों को लेकर अपनाई जा सके तो प्रशासन एवं विकास की शक्तियां जमीनी स्तर पर आमजन को स्पर्श करते हुए अपनी भूमिका का निर्वहन कर पाएंगी।

अगर हम अपने इतिहास को खंगालें तो पाएंगे कि हमलावरों के विरूद्ध इस देश ने कभी भी बालाकोट जैसी प्रतिक्रिया नहीं दी है। हम तो पानीपत के मैदानों तक में शत्रु सेनाओं के आने की प्रतीक्षा करने के आदी रहे हैं, पर बालाकोट की कार्रवाई शक्ति की भाषा में एक सशक्त राष्ट्र का अपने शत्रु को स्वाभाविक जवाब है। हमने नवंबर 2008 के मुंबई हमले का शर्मनाक दौर देखा है। सक्षम नेतृत्व के चलते ही बालाकोट हो पाया। अब हम अपनी प्रकृति, अपना डीएनए बदल रहे हैं जिससे फिर हमारी सरकारें चुनौतियों के सम्मुख कभी कायरों की तरह व्यवहार न कर सकें। इस बदलती प्रकृति को देश की आम जनता को भी आत्मसात करना चाहिए।

  (लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)