[ एनके सिंह ]: मतदान समाप्त होते ही एक्जिट पोल के नतीजे आ गए, जो यह कह रहे हैैं कि मोदी सरकार की वापसी होने जा रही है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि चुनाव परिणाम वैसे ही आएं जैसे विभिन्न एक्जिट पोल दिखा रहे हैैं। असली नतीजे एक्जिट पोल से इतर भी हो सकते हैैं। चुनाव परिणाम आने के पहले ही विभिन्न विपक्षी दलों के नेता सक्रिय हो गए हैैं। साफ है कि उन्होंने अपनी उम्मीद नहीं छोड़ी है। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद का कहना है कि अगर संप्रग को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो कांग्रेस प्रधानमंत्री पद की कुर्बानी देकर समान विचार वाले दलों के गठबंधन को समर्थन देगी। चंद्रबाबू नायडू की विभिन्न दलों के नेताओं से मेल-मुलाकात के बीच सोनिया गांधी तमाम विपक्षी दलों की बैठक बुलाने जा रही हैैं।

चुनाव नतीजों को लेकर अनिश्चितता के चलते राजनीतिक विश्लेषकों की नजर राष्ट्रपति भवन की ओर भी जा रही है। चुनाव नतीजों के बाद चार स्थितियां बन सकती हैं: (1)कोई दल अकेले ही पूर्ण बहुमत यानी 273 सीटें हासिल कर ले। (2)चुनाव पूर्व गठबंधन बहुमत हासिल कर ले। इन दोनों स्थितियों में राष्ट्रपति दल या दल समूह को बुलाने को बाध्य होंगे, लेकिन अगर किसी भी दल या चुनाव पूर्व गठबंधन वाले समूह को बहुमत नहीं मिलता तो राष्ट्रपति को अपने विवेक का इस्तेमाल करना पड़ेगा। चूंकि ऐसे फैसलों में उनके पास मंत्रिमंडल की सलाह मौजूद नहीं लिहाजा उनका विवेक अपेक्षित होता है। इसी के साथ यह भी अपेक्षित होता है कि वह एक स्थाई सरकार दें।

दुर्भाग्य से 70 साल के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के लगभग एक दर्जन फैसले और दो प्रमुख आयोगों के गठन के बावजूद यह स्पष्ट रूप से व्याख्यायित नहीं है कि त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभा की स्थिति में किस क्रम से दल या दल-समूह को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना होगा। यही वजह है कि कई बार राज्यपाल मनमानी करते रहे हैैं। एसआर बोम्मई मामले में नौ-सदस्यीय संविधान पीठ का फैसला(1994) इस मुद्दे को छूकर आगे बढ़ गया। जस्टिस सरकारिया आयोग (1988) और जस्टिस पंछी आयोग (2010) ने भी अपना मत बहुत स्पष्ट नहीं किया।इसलिए स्थिति सुलझने की जगह उलझती गई। पुंछी आयोग ने तो यहां तक कहा कि अगर संविधान संशोधन के जरिये संसद ने चुनाव के बाद लोकसभा या विधानसभाओं में ऐसी स्थितियों के लिए जिसमें दल दावे-दर-दावे कर रहे हों, स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए तो भ्रम बढ़ता जाएगा।

चूंकि केंद्र-राज्य संबंध के लिए बना सरकारिया आयोग स्थिति स्पष्ट नहीं कर सका इसलिए बोम्मई केस में संविधान पीठ को इस मामले को पूरी तरह अपने संज्ञान में लेना चाहिए था, लेकिन वह भी यह कहने तक सीमित रही कि सबसे बड़ी पार्टी या दल समूह को बुलाना चाहिए। लिहाजा फैसले का यह अंश मात्र मंतव्य ही रहा, न कि बाध्यता।

सरकारिया आयोग ने ऐसे मामलों के लिए एक व्यवस्था तो दी, लेकिन वह भी अस्पष्ट ही साबित हुई। अगर किसी दल या दल समूह को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो आयोग के क्रम के अनुसार ऐसे दल या दलों को बुलाना चाहिए: (1) दलों का ऐसा गठबंधन जो चुनावपूर्व बना हो और सबसे अधिक संख्याबल वाला हो (2) सबसे बड़ी पार्टी जो अन्य दलों, निर्दलीय सदस्यों का समर्थन लेकर बहुमत पाने का दावा कर रही हो (3) चुनाव बाद बने गठबंधन को जिसमें सभी दल सरकार में शामिल होने को तैयार हों। (4) चुनाव पूर्व बना ऐसा गठबंधन जिसमें कुछ दल या सदस्य सरकार में शामिल होने के तैयार हों और कुछ बाहर से समर्थन करने को। उपरोक्त क्रम से यह नहीं पता चलता कि बड़े दल/या दल-समूह को कैसे बुलाना संभव होगा जब तक उसे सदन का विश्वास नहीं हासिल हो यानी बहुमत न हो।

दूसरा विरोधाभास यह है कि अगर दूसरे क्रम में सबसे बड़ी पार्टी मात्र दावा कर रही है जबकि क्रम तीन के तहत चुनाव बाद गठबंधन को स्पष्ट बहुमत दिखाई दे रहा है तो राष्ट्रपति या राज्यपाल कैसे दूसरे क्रम को वरीयता दे सकता है? पुंछी आयोग ने भी इस द्वंद्व को लगभग यथावत छोड़ दिया। उसने यह क्रम तय किया:(1)चुनावपूर्व गठबंधन को जिसकी संख्या सबसे ज्यादा हो (2) सबसे बड़ी पार्टी को अगर वह बहुमत का दावा कर रही हो। (3) चुनाव बाद गठबंधन को, अगर सभी दल या सदस्य सरकार बनाने में शामिल हों। (4) चुनावबाद का गठबंधन जिसमें कुछ सदस्य सरकार में शामिल हों और कुछ बाहर से समर्थन करें। यहां भी बहुमत और पूर्ण बहुमत पर आयोग अस्पष्ट है और चूंकि अकेली सबसे बड़ी पार्टी को क्रम दो में रखा गया है लिहाजा क्रम 2 और 3 में व्यावहारिक रूप से अस्पष्टता बनी रही।

चूंकि त्रिशंकु विधायिका की स्थिति में राष्ट्रपति /राज्यपाल की भूमिका के बारे में सुप्रीम कोर्ट के अन्य तमाम फैसले भी स्पष्ट मत नहीं दे सके। लिहाजा राष्ट्रपति को कोई दिशा नहीं मिल पाती और राज्यपाल आम तौर पर केंद्र सरकार के इशारे पर फैसले लेते हैैं। कुछ माह पहले कांग्रेस गोवा, मणिपुर और मेघालय चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनी, पर सरकार बनाई भाजपा ने। इसके ठीक उलट कर्नाटक में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन सरकार बनी चुनाव बाद गठबंधन में आए कांग्रेस-जेडी (एस) की। राष्ट्रपति के सामने भी यह समस्या आ सकती है कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी और चुनावपूर्व गठबंधन वाला राजग सबसे बड़ा गठबंधन हो, लेकिन अगर स्पष्ट बहुमत न मिले या यूं कहें कि अन्य कोई भी दल या सदस्य समर्थन देकर स्पष्ट बहुमत सुनिश्चित न करे तो राष्ट्रपति की भूमिका क्या होगी? खासकर उस स्थिति में जब शेष सभी दल एक गठबंधन बनाकर सरकार बनाने का दावा करते हुए राष्ट्रपति से मिलें। अगर यह स्थिति बनती है कि किसी भी दल या दल समूह को स्पष्ट बहुमत न मिले तो राष्ट्रपति के लिए परस्पर विरोधाभासी फैसले ही सहारा बनेंगे और उनका विवेक सर्वोपरि होगा। बोम्मई फैसले के प्रकाश में यह विवेक इस आधार पर प्रयुक्त होना चाहिए कि एक मजबूत सरकार बने।

संविधान के अनुसार चुनाव बाद राष्ट्रपति की भूमिका बढ़ जाती है, खासकर तब जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत न मिले। संविधान निर्माताओं को यह अंदेशा नहीं था कि भारतीय राजनीति इतने टुकड़ों में बंट जाएगी कि आयाराम-गयाराम की कुसंस्कृति और धनबल-छलबल का प्रभाव जनादेश को लील जाएगा, पर इन स्थितियों से निपटने की कहीं न कहीं इच्छा जरूर थी। चूंकि बोम्मई केस में त्रिशंकु सदन को लेकर राष्ट्रपति या राज्यपाल की भूमिका को लेकर कोई स्पष्ट गाइडलाइंस नहीं बनाई गई इसलिए देखना यह है त्रिशंकु सदन की स्थिति बनती है तो क्या होता है? जो भी हो, जनादेश के हरण की नौबत नहीं बनने देनी चाहिए।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एंव वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )

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