आशीष व्यास। राजस्थान के कोटा में नवजात बच्चों की मौत के बाद देश भर में शिशु स्वास्थ्य जब मुद्दा बन रहा था, मध्य प्रदेश में भी छोटे बच्चों की सांसों पर संकट गहराने लग गया। शहडोल जिला अस्पताल में आठ घंटे में छह बच्चों ने जैसे ही दम तोड़ा, स्वास्थ्य नीति और प्रबंधन की समीक्षा शुरू हो गई। लेकिन अभी एक सप्ताह भी नहीं बीता है और इस पूरे मामले को फिर पुरानी सुस्ती ने अपने साथ शामिल कर लिया है। दरअसल शहडोल में दम तोड़ने वाले बच्चों में से दो वार्ड में और चार एसएनसीयू में भर्ती थे। एसएनसीयू में भर्ती बच्चों की उम्र एक महीने से भी कम थी, वहीं बच्चा वार्ड में भर्ती बच्चों की उम्र दो-तीन महीने ही थी। इन बच्चों को निमोनिया हुआ था।

लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना में शिक्षा-स्वास्थ्य वैसे भी सरकारों के बुनियादी दायित्व में शामिल हैं। लेकिन मध्य प्रदेश के साथ यह दुर्भाग्य है कि सरकारें जरूर बदलती रहीं, लेकिन स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा परंपराओं को ढोता रहा। तात्कालिक आवश्यकता इस बात की है कि मध्य प्रदेश परिणामदायक उदाहरण सामने रख अपनी लड़ाई शुरू करे, क्योंकि यहां बच्चों को बीमारी से लड़ने का अवसर ही नहीं मिल रहा है। बात कुपोषण से शुरू होती है, वहीं खत्म भी हो जाती है।

वर्ष 1990 से 2016 के बीच ‘डिजीज बर्डेन प्रोफाइल’ पर हुए एक अध्ययन के अनुसार मध्य प्रदेश में होने वाली मौतों में 13.7 फीसद 14 साल तक के बच्चे हैं। इसमें से करीब 36 प्रतिशत मौत डायरिया, रेस्पायरेटरी इंफेक्शन (श्वसन पथ संक्रमण) से होती है। इसका सीधा संबंध कहीं न कहीं कुपोषण, साफ-सफाई के अभाव और गरीबी से है। जन्मजात परेशानियों के कारण 37 फीसद नवजात की मौत हो जाती है। इसके अलावा तीन से सात प्रतिशत बच्चे मलेरिया व अन्य रोग, दिल की बीमारी सहित अन्य विकृतियों की वजह से असमय आंखें मूंद लेते हैं। आंकड़े गवाही देते हैं कि कुल मौतों में करीब 75 फीसद मौतें कुपोषण या इससे जुड़े हुए कारणों से हो रही हैं।

हाल ही में इंदौर में जुटे देश भर के शिशु रोग विशेषज्ञों का भी यही मानना है कि मध्य प्रदेश के लिए कुपोषण ही बीमारियों का गढ़ है। इंडियन पीडियाटिक्स एसोसिएशन की मध्य प्रदेश इकाई के पूर्व अध्यक्ष डॉ. वीपी गोस्वामी मानते हैं, ‘हम कुछ ऐसी बीमारियों पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं, जो प्रदेश में भौगोलिक परिस्थितियों के कारण मौजूद हैं। जैसे, पहाड़ी इलाकों पचमढ़ी, बैतूल सहित कई आदिवासी बहुल जिलों के बच्चों में आज भी आयोडीन की कमी पाई जाती है। प्रदेश के लगभग 18 जिलों के पानी में फ्लोराइड की समस्या है। पीथमपुर सहित आदिवासी इलाकों में तिवड़ा (अरहर दाल के विकल्प के रूप में इस्तेमाल होने वाला दलहन) के ज्यादा इस्तेमाल से बच्चों में अपंगता भी देखी गई।’

इंडियन पीडियाटिक्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. बकुल पारिख सुझाव देते हैं, ‘हमें बहुत ज्यादा खर्च करने की जरूरत नहीं है। सरकार उपकरण खरीदने में जितना खर्च कर रही है, उतना समाज-अभिभावकों को जागरूक करने, बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़े डॉक्टरों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने और टीकाकरण में खर्च करे, तो बहुत हद तक हालात पर नियंत्रण पाया जा सकता है। 20 फीसद बच्चे मोटापा, उच्च रक्तचाप के शिकार हो रहे हैं। अभी से नियंत्रण नहीं किया गया, तो ये बीमारियां 2050 तक महामारी का रूप ले लेंगी।’

बच्चों की मौत के बाद शुरू हुई राजनीति फिलहाल अनिर्णय की शिकार है। शायद इसीलिए भी राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर थमने लगा है। बेहतर यही होगा कि प्रदेश के भविष्य को बचाने-बढ़ाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ मिलकर प्रयास किए जाएं।

सीएए पर कांग्रेस विधायकों का उल्टा राग

मध्य प्रदेश में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के समर्थन-विरोध के बीच धरना-प्रदर्शन और रैलियां लगातार निकाली जा रही हैं। भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर के साथ प्रदेश के कई बड़े जिलों से लेकर गांव-कस्बों में हुए जमावड़े ने राजनीतिक दलों को भी चौकन्ना कर दिया है। कांग्रेस जहां देश भर में सीएए का विरोध कर रही है, वहीं मध्य प्रदेश के दो कांग्रेस विधायकों की धारणाओं ने इस मुद्दे पर पार्टी के लिए संकट खड़ा कर दिया है। दोनों कांग्रेस विधायकों ने अपने-अपने तर्क के साथ सीएए का समर्थन किया है। मंदसौर जिले के सुवासरा से विधायक हरदीप सिंह डंग का स्पष्ट रूप से मानना है, ‘पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि देशों के दुखी लोगों को भारत में सुविधा मिलती है तो उसमें बुराई क्या है।’

डंग की वैचारिक डगर पर चलते हुए पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भाई और विधायक लक्ष्मण सिंह ने भी सीएए पर राजनीति बंद करने की सलाह दे डाली। उन्होंने ट्वीट किया, ‘नागरिकता कानून की राजनीति बंद करो। अब तो मुसलमान भी कह रहे हैं कि बंद करो। वे कह रहे हैं कि हमारे रोजगार की व्यवस्था करो। रस्सी को ज्यादा खींचने से वह टूट जाती है।’ लक्ष्मण सिंह ने इसके पहले भी सीएए के समर्थन में अपनी राय सार्वजनिक की थी। बीते दिसंबर में उनका यह ट्वीट भी काफी सुर्खियां बटोर चुका है, ‘राष्ट्रीय नागरिकता कानून संसद में पारित हो चुका है। सभी दलों ने अपने विचार व्यक्त कर दिए हैं। इस विषय पर ज्यादा टिप्पणी, बयान व्यर्थ हैं। इसे स्वीकार करो और आगे बढ़ो।’ कांग्रेस के लिए चिंता और चुनौती का विषय यह है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से लेकर प्रदेश में मुख्यमंत्री तक, जिस सीएए का विरोध कर रहे हैं, उसके पक्ष की पंक्ति में सामने आए दो विधायक अब राजनीतिक बहस के नए केंद्र बन गए हैं।

शिक्षा पर भारी ‘सरकारी’ राजनीति 

स्वास्थ्य के साथ शिक्षा से जुड़ा एक मुद्दा भी देश-प्रदेश में बहस का विषय बन गया है। वीर सावरकर एनजीओ ने बीते वर्ष नवंबर में रतलाम जिले के शासकीय हाईस्कूल मलवासा में बच्चों को निशुल्क रजिस्टर बांटे थे, ताकि वे परीक्षा की तैयारी कर सकें। रजिस्टर के मुख्य पृष्ठ पर विनायक दामोदर सावरकर की फोटो थी। कमलनाथ सरकार ने इसे कर्तव्यों के निर्वहन में घोर लापरवाही व गंभीर अनियमितता माना और प्राचार्य आरएन केरावत को निलंबित कर दिया। प्राचार्य को निलंबित करने से स्कूली बच्चों के साथ-साथ कर्मचारी संगठन भी नाराज हैं। उनका तर्क है कि केरावत राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हैं और इनके स्कूल में 10वीं का परिणाम हर वर्ष 100 फीसद रहता है। लेकिन सरकारी जिद बनी हुई है। जानकार अब यह नसीहत दे रहे हैं कि बच्चों को अनुकरणीय व्यक्तित्व का पाठ पढ़ाते समय गुरुजी यह भूल गए थे कि प्रदेश का राजनीतिक विचार अब बदल गया है।

(लेखक मध्य प्रदेश में नई दुनिया के संपादक हैं)

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