[ राजीव सचान ]: कोलकाता में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के रोड शो के दौरान विद्यासागर कॉलेज में समाज सुधारक ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा क्षतिग्रस्त किए जाने की घटना ने पश्चिम बंगाल ही नहीं सारे देश का ध्यान खींचा। जहां पश्चिम बंगाल में यह प्रतिमा भंजन चुनावी मुद्दा बन गया वहीं शेष देश में तमाम लोग इस सवाल से दो-चार होते दिखे कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर थे कौन? सोशल मीडिया में ऐसी टिप्पणियां देखने को मिलीं जिनसे यह आभास हुआ कि कई लोग ईश्वरचंद्र विद्यासागर के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित ही नहीं। उम्मीद की जाती है कि इनमें से बहुत से लोगों ने यह जानने की कोशिश की होगी कि आखिर ईश्वरचंद्र विद्यासागर का योगदान क्या है?

यह सही है कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने एक शिक्षाविद् और समाज सुधारक के तौर पर बंगाल में अधिक छाप छोड़ी, लेकिन वह इतनी बड़ी शख्सियत थे कि उनके नाम-काम से सारे देश को परिचित होना चाहिए। उनका योगदान केवल इतना ही नहीं है कि उन्होंने विधवा विवाह की मुहिम छेड़ी और अपने बेटे का विवाह एक विधवा से करके एक मिसाल कायम की। उन्होंने बांग्ला भाषा के व्याकरण को दुरुस्त करने के साथ इस धारणा को दूर करने का काम किया कि केवल ब्राह्मण ही संस्कृत पढ़ सकते हैैं। उन्होंने अपने विद्यालय में वह नियम बदला जो यह कहता था कि केवल ब्राह्मण ही संस्कृत पढ़ने के अधिकारी हैैं।

संस्कृत का विद्वान होने के बावजूद उन्होंने हिंदू समाज की कुरीतियों को खत्म करने का काम किया। इसी के तहत उन्होंने लड़कियों की शिक्षा की जरूरत पर बल दिया और कम उम्र में उनके विवाह की प्रथा का विरोध किया। उन्होंने खास तौर पर लड़कियों के लिए कई स्कूल स्थापित किए। यही मुहिम आगे चलकर विधवा विवाह के चलन का कारण बनी। जिस विद्यासागर कॉलेज में उनकी प्रतिमा खंडित हुई वह भी उन्होंने 1872 में स्थापित किया था। यह देश का पहला ऐसा कॉलेज था जिसे भारतीयों ने अपने बलबूते शुरू किया था। वास्तव में इसी कारण उन्हें समय से आगे की सोच रखने वाली शख्सियत के तौैर पर जाना जाता है, लेकिन क्या यह एक विडंबना नहीं कि यह हम तब जान रहे हैैं जब उनकी प्रतिमा टूटी?

ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक मात्र ऐसी हस्ती नहीं जिनके बारे में आज की पीढ़ी ज्यादा नहीं जानती या फिर न के बराबर जानती है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर सरीखे समाज सुधारकों, मनीषियों के साथ योद्धाओं की एक लंबी कतार है जिनसे देश अपरिचित-अनजान सा है। इनमें से कई ऐसे हैैं जिन्हें इतिहास में भी ढंग से जगह नहीं मिली। नि:संदेह कुछ ऐसे हैैं जो प्रतिमाओं में कैद हैैं या फिर जिनके नाम से रास्ते-चौराहे और भवन आदि हैैं, लेकिन यह कहना कठिन है कि आज की पीढ़ी उनके बारे में अच्छे से जानती है। कई हस्तियां ऐसी भी हैैं जिनके नाम-काम से पुरानी पीढ़ी तो परिचित है, लेकिन नई पीढ़ी अपरिचित।

हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि इसके आसार न के बराबर हैैं कि आने वाली पीढ़ियों को ईश्वरचंद्र विद्यासागर और ऐसी ही अन्य अनेक हस्तियों से परिचित होने का अवसर मिलेगा। यह अंदेशा इसलिए, क्योंकि नैतिक शिक्षा के तहत महापुरुषों के जीवन के बारे में पढ़ाई को अब जरूरी नहीं समझा जाता। रही-सही कसर इतिहास के एकांगी स्वरूप ने पूरी कर दी है। इस मान्यता में एक बड़ी हद तक सच्चाई है कि भारत का इतिहास वस्तुत: दिल्ली के शासकों का इतिहास है। दिल्ली या फिर उसके आसपास किस शासक ने कब शासन किया, यह तो खूब पढ़ाया जाता है, लेकिन शेष भारत के शासकों के बारे में क्षेत्र विशेष के लोग ही परिचित हैैं और वह भी थोड़ा-बहुत। दक्षिण और पूर्वी भारत के शासकों की विजय गाथाओं से पूरा देश परिचित नहीं, जबकि ये दक्षिण के ही शासक थे जिनके कारण हिंदू संस्कृति पूर्वी एशियाई देशों कंबोडिया, वियतनाम और इंडोनेशिया आदि तक पहुंची।

नि:संदेह ऐसा नहीं है कि हम केवल प्राचीन इतिहास से ही अपरिचित हैैं। हाल का इतिहास भी हमसे ओझल है। त्रावणकोर के राजा मार्तंड वर्मा ने 18वीं सदी के प्रारंभ में पुर्तगाल की बेहद ताकतवर सेना को हराया था। इस तरह किसी एशियाई राजा ने पहली बार किसी यूरोपीय सेना को हराया था, लेकिन इतिहास की हमारी किताबें शायद ही इस शासक के बारे में विस्तार से कुछ बताती हों। इतिहास की किताबें यही ज्यादा बताती हैैं कि हमारे योद्धाओं ने जो भी बड़ा युद्ध लड़ा उसमें वे पराजित हुए। ऐसा इसलिए है, क्योंकि हमें उन युद्धों के बारे में पढ़ाया ही नहीं गया कि जिनमें हमारे योद्धाओं ने जीत हासिल की।

इन दिनों सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी चर्चा में है। इस पार्टी के बड़बोले नेता और मंत्री ओमप्रकाश राजभर को बीते दिनों बर्खास्त कर दिया गया। पता नहीं अब वह क्या करेंगे, लेकिन क्या औसत भारतीय तो दूर रहे, उत्तर प्रदेश के औसत लोग भी सुहेलदेव के पराक्रम से भली तरह परिचित हैं? 11वीं सदी में श्रावस्ती के शासक रहे सुहेलदेव ने महमूद गजनी के भतीजे को मार गिराने के साथ उसकी सेना को बुरी तरह हराया था। कहते हैैं कि इसके बाद वर्षों तक किसी विदेशी आक्रमणकारी ने इस इलाके की ओर रुख नहीं किया।

अगर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी न बनती तो शायद पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग भी यह न जानते कि जिस हस्ती के नाम पर यह पार्टी बनी उन्होंने क्या करिश्मा कर दिखाया था? वास्तव में ऐसे बहुत से नाम हैैं जो इतिहास में दफन से हैैं और फिर भी जब कभी यह मांग होती है कि इतिहास को सही रूप में चित्रित किया जाए तो यह कहकर हंगामा खड़ा कर दिया जाता है कि उसका भगवाकरण किया जा रहा है। बीते दिनों ही राजस्थान सरकार ने यह तय किया कि इतिहास की किताबों में अब यह पढ़ाया जाएगा कि न अकबर महान थे और न ही राणा प्रताप। आखिर यह इतिहास की लीपापोती नहीं तो क्या है? इतिहास यानी ‘ऐसा ही हुआ’ था।

साफ है कि जरूरत केवल इसकी नहीं कि इतिहास को सही रूप में सामने रखा जाए, बल्कि इसकी भी है कि इतिहास के भूले-बिसरे नायकों को देश से परिचित किया जाए। परिचित कराने के नाम पर उनकी प्रतिमाएं स्थापित करना अथवा उनके नाम पर सड़क-चौराहे बनाना ही पर्याप्त नहीं। क्या यह विचित्र नहीं कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा उनके नाम वाले शिक्षा संस्थान में एक ऐसे कमरे में रखी थी जहां सभी छात्रों के लिए जाना संभव नहीं था। पता नहीं उनकी प्रतिमा को किसने तोड़ा, लेकिन जरूरी केवल यह नहीं कि दोषी लोगों की पहचान कर उन्हें दंड का पात्र बनाया जाए, बल्कि यह भी है कि उनके जैसे समाज सुधारक आज की पीढ़ी से अपरिचित से न रहें। आखिर इससे खराब बात और क्या हो सकती है कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दिए जाने के बाद देश उनसे परिचित हो?

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )

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