[हृदयनारायण दीक्षित]। किसी भी आंदोलन, विरोध-प्रदर्शन र्में हिंसा राष्ट्रीय चिंता का विषय है। पिछले कुछ समय से यह सिलसिला जारी है। पहले नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए, फिर कृषि कानून विरोधी मुहिम और अब अग्निपथ के विरोध में यही रुझान देखने को मिला है। सैन्य बलों में भर्ती की नई योजना के विरोध की आड़ में अराजक तत्वों ने राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाया। इससे पहले कृषि सुधार कानूनों के विरोध में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सीमाओं को जिस प्रकार साल भर से अधिक समय तक घेरे रखा गया, उससे न केवल आम लोगों की आवाजाही दूभर हो गई, बल्कि तमाम उद्योग-धंधों पर ताला तक पड़ गया।

अराजकता किसी समस्या का समाधान नहीं। हिंसा के बाद भी परस्पर संवाद ही विकल्प होता है। ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध व्यापक स्वाधीनता संग्र्राम चला। गांधी जी इस आंदोलन के नेता थे। उसमें कई बार्र हिंसा की परिस्थिति को गांधी जी ने स्वीकार नहीं किया। फरवरी, 1922 में उन्होंने चौरी चौरा हिंसा के विरोध में असहयोग आंदोलन रोका था। गांधी जी ने जन संघर्ष के लिए अहिंसा व सत्याग्रह नाम के दो उपकरण बताए। अहिंसा उसका मुख्य तत्व था, लेकिन सीएए, कृषि कानून विरोध और अग्निपथ को लेकर हुए प्रदर्शनों में मुख्य धारा हिंसा और अराजकता है। स्वतंत्र भारत में ही 1975 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति आंदोलन हुआ था। उसका मुख्य नारा अहिंसा की प्रतिबद्धता ही था-'हमला चाहे जैसा भी हो, हाथ हमारा नहीं उठेगा।' कुछ समय पहले अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले आंदोलन में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया था। आंदोलनकारियों के हाथ में राष्ट्रीय ध्वज था। आंदोलन के आचार व्यवहार का केंद्र अहिंसक-मर्यादित था।

गांधी के देश में आंदोलनों का हिंसक होना दुखद आश्चर्य है, लेकिन महाराष्ट्र में कुछ वर्ष पहले एक शालीन आंदोलन हुआ था। किसान आंदोलनकारियों की नासिक से मुंबई तक लगभग 200 किमी की यात्रा में करीब 60,000 किसानों ने हिस्सा लिया था। बोर्ड परीक्षार्थियों को असुविधा से बचाने के लिए उन्होंने एक दिन की यात्रा रात में तय की। ऐसे आंदोलन प्रेरक हैं। इसके विपरीत सितंबर 2016 में कर्नाटक के कोलार और चिकबल्लापुर के किसानों ने भी हिंसा की। सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाई। हरियाणा में आरक्षण को लेकर आंदोलनकारियों ने हिंसा की और आंदोलन अपने मूल मर्म से भटक गया।

आंदोलन लोकतांत्रिक व्यवस्था का जन-उपकरण होते हैं। नि:संदेह आंदोलनों के माध्यम से सरकार तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है, लेकिन आंदोलन में मर्यादा उल्लंघन व हिंसा से यह दांव उलटा पड़ जाता है। राजनीतिक दल भी सत्ता का ध्यान आकर्षित करने के लिए आंदोलन करते है। उन्हें अपनी बात मनवाने के लिर्ए हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए। भारत की संवैधानिक व्यवस्था सुस्पष्ट है। चुनाव में बहुमत प्राप्त दल को काम करने का जनादेश मिलता है और विपक्ष को निगरानी करने, सुझाव देने व आलोचना करने का अधिकार। सरकार को अपनी बात मनवाने के लिए जबरदस्ती बाध्य नहीं किया जा सकता। विपक्ष समस्या के समाधान के लिए आंदोलन करता है, लेकिन उसमें अराजकता का लाइसेंस नहीं होता।

संविधान ही मार्गदर्शी है। आंदोलन की भी आचार संहिता होनी चाहिए। हम स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहे है। सारी दुनिया में भारत, भारतीय लोकतंत्र व भारतीय नेतृत्व की प्रशंसा होती है, लेकिन अमृत महोत्सव की दीर्घकालिक यात्रा में भी हम आंदोलनों की सर्वस्वीकार्य आचार संहिता नहीं बना पाए। सार्वजनिक संपत्ति को आग लगाना आत्मघात है। सुरक्षाबलों पर हमला संविधान का उल्लंघन है। हिंसा में विश्वास रखने वाले राजनीतिक, गैर-राजनीतिक व सामाजिक समूह भारत में स्वीकार्य नहीं हैं। ऐसे मित्र संविधान रक्षा की गुहार तो लगाते रहते हैं, लेकिन आंदोलनों में संविधान के उल्लंघन से पीछे नहीं रहते।

विचार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सम्मेलन और संगठन निर्माण संविधान में मौलिक अधिकार है। हिंसा और अराजकता के विश्वासी इसी मौलिक अधिकार का दुरुपयोग करते हैं। वे भूल जाते हैं कि मौलिक अधिकार के इसी भाग में भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, लोकव्यवस्था व सदाचार को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को कार्रवाई की छूट दी गई है। सरकार को इस संबंध में कानून बनाने के अधिकार भी दिए गए हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि शाहीन बाग जैसे सार्वजनिक स्थल लंबे समय तक आंदोलन की जगह नहीं बन सकते। भारत की भांति अमेरिकी संविधान में भी शांतिपूर्ण आंदोलन का अधिकार है। वहां विरोध-प्रदर्शन का समय, स्थान व तरीका तय करने के अनुमति पत्र की आवश्यकता होती है। ब्रिटेन में भी लोकव्यवस्था पर जोर है। पुर्तगाल की व्यवस्था में अधिकारियों को लोकव्यवस्था व शांतिभंग के आधार पर आंदोलन रोकने के अधिकार हैं। स्पेन की संवैधानिक अदालत द्वारा सार्वजनिक स्थल पर विरोध-प्रदर्शन प्रतिबंधित किया गया। सार्वजनिक या निजी संपदा को क्षति पहुंचाने व यातायात में बाधा डालने के विरुद्ध कार्रवाई की जाती है।

भारत में आंदोलनों का चरित्र सुपरिभाषित नहीं है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या किसी विधि निर्वाचित सरकार को जबरन अपनी बात मनवाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। संवाद से समस्या के समाधान तक पहुंचने का मार्ग क्यों नहीं अपनाया जाता? कृषि कानूनों के मामले में केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लगातार वार्ता की, लेकिन आंदोलनकारियों ने उनकी बात नहीं सुनी।

गृहमंत्री अमित शाह ने भी वार्ता का निमंत्रण दिया, लेकिन आंदोलनकारियों ने उनकी भी नहीं सुनी। ऐसे लोगों द्वारा जब-तब भारत बंद की अपील की जाती है। आखिरकार ये 'भारत बंद' क्या है? क्या यह मात्र शक्ति प्रदर्शन का आत्मघाती खेल नहीं है? कोई भी संविधाननिष्ठ व्यक्ति अपने देश को बंद करने की अपील नही कर सकता। अराजक आंदोलनों से हुई राष्ट्रीय क्षति अनुमान से ज्यादा है। सभी जिम्मेदार लोग आंदोलनों र्की हिंसा पर गहन विचार करें। न्यायालयों को ऐसी अराजकता का स्वत: संज्ञान लेना चाहिए। कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका को मिलकर आंदोलनों की हिंसा के विरुद्ध अपना कर्तव्य निर्वहन करना चाहिए। आखिरकार आंदोलनों में हिंसा व आगजनी कब तक चलेगी?

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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