अशोक श्रीवास्तव। आप देख रहे हैं देश का नंबर वन न्यूज चैनल। एक न्यूज चैनल पर यह दावा वर्षो से आप रोज दर्जनों बार सुनते होंगे। सुनते भी होंगे और यकीन भी कर लेते होंगे कि वास्तव में जो चैनल खुद को न्यूज की दुनिया का नंबर वन बता रहा है वही खबरों की दुनिया का असली बादशाह है। और जो इन दावों पर यकीन नहीं करते उनको यकीन दिलाने के लिए यह चैनल, खबरों के बीच-बीच में टीवी रेटिंग प्वॉइंट के आंकड़े दिखाता रहता है। इतने पर भी संतुष्टि कहां! इसलिए अक्सर समाचार पत्रों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर टेलीविजन रेटिंग प्वॉइंट के तुलनात्मक आंकड़े छापे जाते हैं और इस तरह अपनी सफलता के डंके पीटे जाते हैं।

दावा एक ही न्यूज चैनल नंबर वन की कुर्सी पर काबिज : यह दावा है कि बीते लगभग डेढ़ दशकों से एक ही न्यूज चैनल नंबर वन की कुर्सी पर काबिज है। इन डेढ़ दशकों में दर्जनों न्यूज चैनल आए (कुछ चले भी गए) जिन्होंने बहुत अच्छा किया वो भी खींचतान कर दूसरे पायदान पर पहुंचे और उससे ही संतुष्ट होकर रह गए। जब बादशाह की बादशाहत को कोई चुनौती नहीं दे सका तो प्रतिद्वंद्वी चैनलों ने एक नया रास्ता निकाला, किसी ने दावा करना शुरू किया कि वह देशभर में नहीं, पर देश के चार महानगरों में नंबर वन है, तो किसी ने दावा किया कि वह शाम सात से नौ बजे के प्राइम टाइम स्लॉट में नंबर वन है।

टीआरपी सिस्टम कितना विश्वसनीय : तो इस तरह बादशाह को किसी ने चुनौती नहीं दी, पर अपना-अपना कारोबार भी चलता रहे, इसका उन लोगों ने प्रबंध कर लिया और इस तरह टीवी रेटिंग प्वॉइंट यानी टीआरपी का खेल बरसों तक चलता रहा। किसी ने सवाल नहीं किए कि नंबर वन, नंबर टू से लेकर फिसड्डी चैनल का खिताब देने वाला टीआरपी सिस्टम कितना विश्वसनीय और कितना चाक-चौबंद है। जिन लोगों ने सवाल उठाए, उन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया गया।

अनेक गड़बड़ियों का हो रहा पर्दाफाश : करीब एक दशक पहले एक गोष्ठी में टीआरपी की व्यवस्था को फर्जी बताते हुए मैंने उसका विरोध किया था। तब एक न्यूज चैनल के वरिष्ठ संपादक ने पलटवार करते हुए कहा था कि चूंकि मैं डीडी न्यूज में हूं, जिसे टीआरपी नहीं मिलती, इसलिए विरोध कर रहा हूं। हालांकि आज उन्हें जब टीआरपी के खिलाफ ट्वीट करते हुए देखता हूं, तो बड़ी हैरानी होती है। दरअसल तब वह संपादक निजी चैनलों के सिस्टम का हिस्सा थे, परंतु आज वह स्वयं ही इस सिस्टम से बाहर हैं।

प्रेस कॉन्फ्रेंस करके टीआरपी के खेल में बेईमानी : बहरहाल, बीते एक-दो सप्ताह में अचानक से इस संदर्भ में बहुत कुछ बदल गया है। पिछले साल फरवरी में लांच हुए एक न्यूज चैनल ने बीते डेढ़ दशक से बादशाह रहे चैनल का नंबर वन का ताज छीन लिया। इससे टीवी न्यूज की दुनिया में नया बवंडर पैदा हुआ। टीआरपी की इस लड़ाई में बहुत कुछ हो रहा था, कुछ सामने-सामने तो कुछ पर्दे के पीछे। और ये पर्दा उठाया मुंबई के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह ने, जब अचानक उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके टीआरपी के खेल में बेईमानी को उजागर किया। मुंबई पुलिस कमिश्नर के आरोपों ने एक न्यूज चैनल के साथ-साथ टीआरपी की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े कर दिए।

हालांकि उसके बाद संबंधित न्यूज चैनल ने इस मामले से जुड़े कुछ नए तथ्य उजागर किए और अपनी सफाई के साथ उसने अपने प्रमुख प्रतिस्पर्धी पर धांधली के आरोप जड़ दिए। इस पलटवार से अब खुद पुलिस कमिश्नर की विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में आ गई है। पर इससे टीआरपी में हेर-फेर का कलंक तो नहीं धुला, अलबत्ता पूरा मामला और जटिल हो गया है और सभी पक्षों की तरफ से एक दूसरे पर आरोपों की बौछार भी हो रही है। ये सब अभी चलता रहेगा, क्योंकि ये सिर्फ नंबर वन के ताज की लड़ाई नहीं, बल्कि करोड़ों रुपये के विज्ञापन बाजार पर कब्जे की जंग है। कोई नहीं जानता कि इस जंग का अंजाम क्या होगा, पर बड़ा सवाल ये है कि क्या इस मंथन से टीआरपी व्यवस्था स्वच्छता अभियान की तरफ कूच कर सकेगी?

कंटेंट के स्तर में निरंतर गिरावट : आम लोगों से लेकर मीडिया जगत तक का एक बड़ा हिस्सा मानता है कि टीआरपी के कारण न्यूज चैनलों के कंटेंट के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। टीआरपी बटोरने की होड़ में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जो नहीं होना चाहिए। निजी टीवी चैनलों में काम करने वाले संपादकों-पत्रकारों पर टीआरपी का चाबुक हमेशा लटका रहता है। हर गुरुवार को टीआरपी के आंकड़े जारी किए जाते हैं और उस दिन संपादक डरे सहमे रहते हैं कि पता नहीं उनका परिणाम क्या आएगा! परिणाम खराब होने की सजा के तौर पर कई बार प्रोग्राम-एंकर बदले तक जाते हैं। इन तमाम कारणों से हर दो-चार साल में टीवी न्यूज चैनलों को टीआरपी के शिकंजे से आजाद कराने की मांग उठती रही है। कंटेंट के स्तर के साथ टीआरपी की व्यवस्था में पारदर्शिता की कमी का मुद्दा भी हमेशा बना रहा है।

वर्ष 2004 में संसद की सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी स्थायी समिति में भी यह मामला प्रमुखता से उठा था। स्थायी समिति के सामने सांसद निखिल कुमार ने कहा कि ब्रॉडकास्टर्स, विज्ञापनदाता या कॉरपोरेट मीडिया प्लानर्स को भारतीयों के टेलीविजन देखने की आदतों के बारे में सही तथ्य नहीं मिल पाते हैं, क्योंकि भारतीय टीवी दर्शकों को मापने के लिए इसका सही सिस्टम मौजूद नहीं है। संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में माना कि टीआरपी प्रणाली में अनेक खामियां हैं। विश्वसनीयता, पारदर्शिता और प्रमाणिकता की कमी है। नमूनों के आकार बहुत छोटे हैं जिस कारण दर्शकों की पसंद और भावनाओं की परवाह किए बिना कार्यक्रम निर्धारित किए जाते हैं।

प्राइवेट चैनलों के आने पर बदला बाजार का परिदृश्य : इस सारे खेल की शुरुआत पिछली सदी के आखिरी दशक में तब हुई जब प्राइवेट चैनलों ने भारतीय बाजार में प्रवेश करना शुरू किया। इससे पहले भारत में टीवी का मतलब था दूरदर्शन। जब दूरदर्शन बाजार में अकेला था, तब दूरदर्शन ऑडियेंस रिसर्च ने दर्शकों की पसंद-नापसंद जानने, विज्ञापनदाताओं की मदद और शोध के उद्देश्य से एक व्यवस्था बनाई हुई थी जिसे डार्ट (दूरदर्शन ऑडियेंस रिसर्च टीवी) कहा जाता था। इस व्यवस्था के तहत देश के 33 शहरों में पैनल बनाए गए थे जो लगातार दर्शकों की नब्ज टटोलने का काम करते थे। पर जब निजी चैनलों ने भारतीय बाजार में दस्तक देनी शुरू की तो इस क्षेत्र में असीम संभावनाओं को देखते हुए 1994 में मार्केट रिसर्च के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी ओआरजी-मार्ग ने इनटैम (इंडियन नेशनल टेलीविजन ऑडियेंस मेजरमेंट) की स्थापना की। इसके बाद कंपनी ने चुनिंदा घरों के टीवी सेट्स में पीपुल मीटर लगाए और उनसे प्राप्त आंकड़ों के हिसाब से टीआरपी को मापना शुरू किया।

दरअसल ये पीपुल मीटर जिन टीवी सेट्स में लगे होते हैं, उन सेट्स की ट्यून फ्रीक्वेंसी को आधार बनाकर कब, कौन सा चैनल कितनी देर के लिए देखा गया, इसका समग्र आंकड़ा दर्ज होता है और इसी आधार पर गणना करके टीआरपी तैयार की जाती है। हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इनटैम को विज्ञापन के क्षेत्र में दूरदर्शन के एकाधिकार को तोड़ने के मकसद से शुरू किया गया।

[वरिष्ठ संपादक व एंकर, डीडी न्यूज]