[ संजय गुप्त ]: पुलवामा में वीभत्स आतंकी हमले के बाद कुछ दलों और खासकर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने जैसी सतही-सस्ती राजनीति करनी शुरू की वह भारतीय राजनीति के गिरते स्तर का नया प्रमाण है। यह गंभीर बात है कि हमारे राजनीतिक दल हर अप्रिय घटना को दलगत राजनीति का विषय बना देते हैैं। जब एक दल ऐसा करता है तो फिर उसका जवाब देने की कोशिश में दूसरा दल भी ऐसा ही करता है। इसी के साथ तू तू-मैैं मैैं की राजनीति जोर पकड़ लेती है। नि:संदेह किसी गंभीर घटना-दुर्घटना के कारणों को लेकर सवाल उठाना विपक्ष का अधिकार है, लेकिन जिस मामले में राजनीतिक एकजुटता दिखाने की जरूरत हो उसमें तो छिछली राजनीति का परिचय नहीं दिया जाना चाहिए।

क्या इससे खराब बात और कोई हो सकती है कि पुलवामा हमले को लेकर प्रधानमंत्री को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश में कांग्रेस जनता को गुमराह करने से भी संकोच नहीं कर रही? पुलवामा हमले के तत्काल बाद राहुल गांधी ने जिस राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया था उस पर वह चार दिन भी कायम नहीं रह सके। इससे इन्कार नहीं कि पुलवामा हमला सुरक्षा-सतर्कता में चूक को जाहिर करता है, लेकिन आखिर इस चूक को रेखांकित करने के लिए कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला की ओर से यह बेजा आरोप उछालने का क्या मतलब कि हमले के बाद भी प्रधानमंत्री जिम कार्बेट पार्क में अपने प्रचार के लिए शूटिंग कराने में व्यस्त थे।

समझना कठिन है कि कांग्रेस प्रवक्ता ने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर यह क्यों कहा कि पुलवामा हमले के चार घंटे बाद तक प्रधानमंत्री को उसकी फिक्र ही नहीं थी। उनके मिथ्या आरोपों का जवाब देने के लिए केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद को सामने आना पड़ा। उन्होंने स्पष्ट किया कि करीब चार बजे पुलवामा में आतंकी हमले की खबर मिलते ही प्रधानमंत्री हालात की समीक्षा में जुट गए। उन्होंने रुद्रपुर की स्थगित कर दी गई रैली में भारी भीड़ जुट जाने के कारण उसे फोन से पांच-सात मिनट संबोधित किया और इस दौरान कोई राजनीतिक टिप्पणी नहीं की। इसके बाद उन्होंने रामनगर में एक समीक्षा बैठक की और दिल्ली लौटने का फैसला किया। उन्होंने कार से बरेली तक लंबा सफर तय किया और फिर बरेली हवाईअड्डे पर भी एक समीक्षा बैठक की।

कांग्रेस ने प्रधानमंत्री के जिम कार्बेट पार्क में जलवायु परिवर्तन पर शूटिंग में हिस्सा लेने पर बेजा सवाल उठाने के साथ सऊदी अरब और भारत की ओर से जारी संयुक्त बयान पर भी तंज कसे। कांग्रेस को तो यह पता होना ही चाहिए कि कूटनीति में ताली दोनों हाथों से बजती है। जब कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पर तंज कसे उसी के कुछ समय बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पुलवामा हमले को लेकर पाकिस्तान का नाम लेकर निंदा की गई। इसके अगले दिन फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स ने पाकिस्तान को ग्रे लिस्ट में बनाए रखने का फैसला किया। आखिर कांग्रेस किस आधार पर इस नतीजे पर पहुंची कि मोदी सरकार की कूटनीति कमजोर है?

यह स्मरण करना आवश्यक है कि उड़ी में हमले के बाद जब सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक की गई थी तब सारी दुनिया ने भारत का समर्थन किया था, लेकिन तब कांग्रेस और कुछ अन्य दल उसके सुबूत मांग रहे थे। कांग्रेस को यह भी याद होना चाहिए कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान को नियंत्रित करने के लिए वह सब कुछ नहीं किया गया जो आवश्यक था। नि:संदेह एक ओर जहां कांग्रेस को अपने रवैये में सुधार लाने की जरूरत है वहीं उन लोगों को भी जो युद्ध छेड़ने की बात कर लोगों को भड़का रहे हैैं। पाकिस्तान से निपटने की जरूरत से इन्कार नहीं, लेकिन कश्मीर घाटी को भी शांत करने की जरूरत है, जहां पिछले तीन दशकों में अलगाववाद और फिर आतंकवाद को पनपने दिया गया। आज वहां लोगों को इसके लिए उकसाया जा रहा कि वे भारतीय सेना के विरुद्ध हथियार उठाएं।

कश्मीर में अलगाववाद की जड़ में ऐतिहासिक भूलें हैं, जो मुख्यत: कांग्रेस ने कीं। इन भूलों की शुरुआत तब हुई थी जब नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के कहने पर जम्मू-कश्मीर के लिए धारा 370 के रूप में संविधान में अलग व्यवस्था करवाई। नेहरू ने यह काम गृहमंत्री सरदार पटेल की राय की अनदेखी कर किया। इसके बाद जब पाकिस्तानी सेना ने कबायली भेष में कश्मीर पर हमला किया तब उसे खदेड़े बगैर युद्ध विराम कर लिया गया। अगर उस समय सरदार पटेल की बात सुनी जाती तो भारतीय सेना समूचे कश्मीर क्षेत्र से पाकिस्तानी सेना को खदेड़ देती। जब घाटी में आतंकवाद अपना सिर उठा रहा था और कश्मीरी पंडितों का दमन हो रहा था तब भी केंद्र सरकारों ने चुप्पी साधे रहना बेहतर समझा। इससे आतंकी तत्वों को वहां का माहौल और खराब करने में मदद मिली। इसी माहौल में कश्मीरी पंडित वहां से निकलने के लिए बाध्य किए गए। बाद में घाटी के अलगाव और आतंकवाद ने मजहबी रूप धारण कर लिया। खराब बात यह हुई कि घाटी के लोगों को मुख्यधारा में लाने में कश्मीर के राजनीतिक दल नाकाम रहे।

नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसे जो दल अलगाववाद की जड़ बनी धारा 370 की पैरवी करने तथा और अधिक अधिकारों की मांग करते रहे उनसे अब ज्यादा उम्मीद इसलिए नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि ये दल समस्या समाधान में सहायक कम, बाधक अधिक हैैं।

मोदी सरकार ने पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान और कश्मीर में उसके हमदर्दों को सही रास्ते पर लाने के लिए कई कदम उठाए हैं। बात चाहे अलगाववादी नेताओं से सुरक्षा वापस लेने की हो अथवा सिंधु जल संधि के तहत पाकिस्तान जाने वाले अतिरिक्त पानी को रोकने की तैयारी या फिर पाकिस्तान को दिए गए सर्वाधिक अनुकूल राष्ट्र के दर्जे को वापस लेने की-इन फैसलों का संदेश यही है कि केंद्र सरकार केवल सख्त कार्रवाई के मूड में है। भारत के सख्त तेवरों को देखते हुए पाकिस्तान अत्यधिक दबाव में है। उसके होश उड़े हुए हैं। उसे यह डर सता रहा है कि भारतीय सेना कहीं उस पर हमला न कर दे। यह समय बताएगा कि सर्जिकल स्ट्राइक कर गुलाम कश्मीर में चल रहे आतंकी शिविरों को ध्वस्त किया जाता है अथवा पाकिस्तान की सिर्फ आर्थिक नाकेबंदी की जाती है। जो भी हो, देश इस पर आश्वस्त हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में साहसिक कदम उठाया गया था वैसा ही कोई कड़ा जवाब इस बार भी देंगे। सर्जिकल स्ट्राइक जैसे ऑपरेशन एक लंबी योजना मांग करते हैैं।

यह समझने की जरूरत है कि जब तक कश्मीर के हालात काबू में नहीं किए जाते तब तक पाकिस्तान भारत को तंग करता रहेगा-भले ही हम उसके कितने ही आतंकी उसकी सीमा में घुसकर मार गिराएं। स्पष्ट है कि पाकिस्तान को जवाब देने के साथ ही कुछ ऐसे उपाय जरूरी हैैं जिससे घाटी के लोगों की भारतीय संविधान के प्रति आस्था बढ़े और वे खुद का भारतीय मानें, न कि कश्मीरियत की आड़ में भारत से इतर। उनकी मानसिकता बदलने के लिए उन्हें यह भरोसा दिलाना होगा कि भारत के लोग और केंद्र सरकार घाटी में अमन-चैन लाने के साथ ही उनके कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हैैं। यह प्रतिबद्धता राजनीतिक स्तर पर भी झलकनी चाहिए और सामाजिक स्तर पर भी।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]