[ प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल ]: दुनिया बीते तीन-चार महीनों से कोरोना वायरस से उपजी कोविड-19 नामक एक ऐसी महामारी का सामना कर रही है जिसके बारे में कभी सोचा नहीं गया था। बीमारी हो या महामारी उससे लड़ने और निजात पाने के लिए औषधि और चिकित्सकीय साधनों को खोजना, विकसित करना और उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करना चिकित्सा विज्ञान का काम है, लेकिन मनुष्य केवल विज्ञान पर जीने वाला प्राणी नहीं है इसलिए वह मानव जीवन के विविध आयामों को अभिलक्ष्य कर मानवता के सामने आई समस्या के समाधान का रास्ता खोजता है। बहुत दिनों बाद दुनिया में किसी आपदा के कालखंड में विज्ञान और धर्म के बीच युद्ध देखने को मिला है। धर्म हो या विज्ञान, दोनों का उद्देश्य श्रेष्ठ मनुष्य की निर्मिति है, लोक कल्याणकारी और परोपकारी जीवन वृत्ति का निर्माण है। इस रास्ते पर धर्म और विज्ञान में कोई विरोध नहीं है। यहां धर्म का आशय पंथ, मत-मजहब, उपासना पद्धति से है। हमें इसका मर्म समझना होगा।

कोरोना वायरस: मत-मजहब-पंथ को साधक बनना चाहिए, बाधक नहीं

भारत सहित दुनिया के तमाम देश जब एक अनजाने, अपरिचित और भयावह वायरस से समग्र मानव जाति को बचाने के रास्ते तलाश रहे हैं तो इस तलाश में मत-मजहब-पंथ को साधक बनना चाहिए, बाधक नहीं। कभी-कभी मत-मजहब-पंथ विज्ञान के माध्यम से मनुष्य के कल्याण के यत्न के सामने बाधक बनकर खड़े हो जाते हैं। उपासना की कोई भी प्रणाली जो मानवता की हानि की कीमत पर ईश्वर साधना का रास्ता बताती है, वह धर्म नहीं हो सकती। धर्म तो सबसे पहले मनुष्य की रक्षा है, लेकिन ऐसा होता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है।

धर्म और विज्ञान में युद्ध

कोई सौ वर्षों से मान लिया गया था कि धर्म और विज्ञान में युद्ध समाप्त हो गया है और दोनों के बीच यह सहमति बन गई है कि मनुष्य और उसका हित सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, पर इसके पिछले 20-25 वर्षों में अपवाद भी देखने को मिले हैं। जो अफगानिस्तान में हुआ, जो सीरिया-इराक में हुआ और उसके पहले जो ईरान में हुआ उस सबको सामने रखकर विचार करें तो कभी-कभी यह लगने लगता है कि यह विज्ञान के विरुद्ध जिहाद का कालखंड है, लेकिन क्या यह धर्म का सत्य है? ध्यान रहे कि जब वैज्ञानिक समाज की निर्मिति के रास्ते में उपासना पंथ की जीवन प्रणाली बाधा बनकर खड़ी होती है तो वह प्रतिगामिता की ओर ले जाती है।

कोरोना के भयावह संकट ने देश को अकल्पनीय संकट में डाल दिया 

यदि भारतीय संदर्भों में विचार किया जाए तो हिंदू और मुसलमान के रूप में दो सभ्यताओं की दृष्टि का प्रतिपादन निहित स्वार्थों के तहत किया गया और अब वह इतनी गहरी पैठ बना चुका है कि राज्य की लोक कल्याणकारी नीति हो, शिक्षा की मनुष्य निर्माण की प्रक्रिया हो, विज्ञान और तकनीक के द्वारा मनुष्य के जीवन को सरल-सुखद बनाने का यत्न हो, उसे धर्म विरुद्ध देखा जाने लगा है। वस्तुत: यह धर्मोन्माद है। यह धर्म के क्षरण का कालखंड है। भारतीय संस्कृति में यह ‘कलि: शयानो संजाति’ अर्थात कलि में धर्म सोया हुआ चलता है, के रूप में व्याख्यायित है। बंद आंखों से यथार्थ और सत्य का प्रकाश नहीं दिखता। वहां तो गहन अंधेरा होता है। धर्म के नाम पर विज्ञान का प्रतिरोध और विज्ञान के नाम पर धर्म की अवमानना ये दोनों मनुष्य को एक ही प्रकार के अंधकार में ले जाते हैं-अज्ञानता और जड़ता के अंधकार में। आज कोरोना के भयावह संकट में इसी अंध धार्मिकता की गहरी बैठी हुई सामाजिक दृष्टि ने देश को अकल्पनीय संकट में डाल दिया है।

धर्माचरण के नाम पर मनुष्य के जीवन को संकट में डालना

धर्म संकटों से त्राण दिलाने का रास्ता है। उपासना पद्धति भेद, ईश्वर के निराकार-साकार होने के भेद के होते हुए भी धर्म इस एक दृष्टि से अभेद रखता है कि मनुष्य का कल्याण और परोपकार प्रत्येक मानव का साध्य है। एक धार्मिक मनुष्य ऐसा कुछ नहीं कर सकता कि उसके पड़ोसी को दुख पहुंचे या उसका जीवन संकट में आए। धर्म के किसी प्रारूप, संप्रदाय के द्वारा ऐसा होता दिखाई दे तो वह धर्म नहीं है, धर्माडंबर है। धर्माचरण के नाम पर मनुष्य के जीवन को संकट में डालना, उसकी प्रगति पथ में मृत्यु, रोग और विपत्ति के कांटे बोना वस्तुत: ओल्ड टेस्टामेंट से लेकर कुरान तक और वेदों से लेकर पुराण तक में जिस शैतानी या राक्षसी सभ्यता की चर्चा की गई है, उसको प्रशस्त करना है।

जब पाखंड धर्माचरण बन जाए तो वह सांस्कृतिक जीवन को दूषित कर देता है

धर्म का रास्ता तो तप, त्याग और परोपकार का रास्ता है, वह करुणा पूरित पथ है। धर्म की भूमिका वस्तुत: विज्ञान और तकनीक पर उस सतोगुणी अंकुश की है जिसके दबाव में विज्ञान राक्षसी वृत्ति की ओर यानी मानवता के संहार की ओर न बढ़े। जब धर्म की ओट में ही ऐसा होता दिखाई दे तो जाहिर है कि यह अत्यंत कठिन समय है। जब पाखंड धर्माचरण बन जाए तो वह सांस्कृतिक जीवन को दूषित कर देता है।

धर्म का मूल तत्व आध्यात्मिकता है

धर्म का मूल तत्व आध्यात्मिकता है जो मनुष्य होने के मूल उद्देश्य जैसे सात्विक जीवन, प्रकृति के साथ तादात्म्य, पर्यावरण की सुरक्षा यानी जीवन के लक्ष्य की ओर हमें आगे बढ़ाती है। धर्म तो संस्कृतिकरण है। वह सभ्यता के समुद्र से गाहे-बगाहे निकलने वाले तकनीकजन्य विष का शमन करने का साधन है। धर्म दुनियावी स्तर पर मानव मेधा के द्वारा विज्ञान और तकनीक के सहयोग से उपलब्ध कराए गए संसाधनों का सबके कल्याण में उपयोग किए जाने के पथ का प्रतिपादन है।

धर्म वह नहीं है जो विज्ञान के विरोध में, सभ्यता और संस्कृति के विरोध में खड़ा हो

धर्म वह नहीं है जो विज्ञान के विरोध में, सभ्यता और संस्कृति के विरोध में खड़ा हो। धर्म तो वह है जो विज्ञान और तकनीक को मानवीय और लोक कल्याणकारी बनाता है। यह तभी संभव है जब धर्म परोपकार और लोक कल्याण पर आधारित हो और स्व से ऊपर उठते हुए मनुष्य को सबके हित में सोचने वाले के रूप में रूपांतरित करे। यदि कोई तब्लीग, कोई मत, कोई पंथिक समूह इस रास्ते से अलग जाता है तो वह अधर्म के रास्ते का निर्माण करता है।

मनुष्य ईश्वर की अनुपम और श्रेष्ठतम कृति है

मनुष्य ईश्वर की अनुपम और श्रेष्ठतम कृति है। मनुष्य को दुख देने का कोई यत्न वस्तुत: ईश्वर के खिलाफ खड़ा होना है। यह न उपासना है न बंदगी। उपासना का कोई भी रास्ता यदि इस श्रेष्ठतम कृति और श्रेष्ठतम कर्म के लिए संभावनाओं की निर्मिति के प्रयास में बाधा बनता है तो वह अधार्मिक कर्म है। धर्म दया, करुणा और उपकार से परिपूर्ण समाज की सृष्टि के लिए अद्भुत ईश्वरीय विधान है। इन सद्गुणों से अलग हटकर धर्माचरण निंदनीय है।

( लेखक धर्म एवं दर्शन के अध्येता और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं )