डॉ. अजय खेमरिया। देश भर में करीब तीन लाख लोग हर साल सांप के काटने का शिकार होते हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं पर तमाम बड़े वादों और मिशन मोड वाले कार्यक्रमों के इतर सर्पदंश का यह जानलेवा सिलसिला पिछले कई दशकों से जारी है। हाल ही में टोरंटो विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर ग्लोबल रिसर्च ने यूनाइटेड किंगडम के सहयोग से इस मामले पर एक शोध के नतीजे को सार्वजनिक किया है। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2000 से 2019 तक भारत में करीब 12 लाख लोग सर्पदंश से मौत के मुंह में समा चुके हैं। ट्रेंड्स इन स्नेकबाइट डेथ्स इन 2000 टू 2019 इन ए नेशनली रिप्रजेंटेटिव मोर्टेलिटी स्टडी नामक इस शोध रिपोर्ट में भारत के इस स्याह पक्ष को रेखांकित किया गया है।

इस त्रसदी को भोगने वाला करीब 97 फीसद तबका गांव का गरीब आदमी है। ऐसी मौतें खेत में काम करते वक्त या उन गरीबों की होती है जिनके पास पक्के घर और सोने के लिए ऊंचे पलंग नहीं हैं। जो मजदूरी के लिए जूते, टॉर्च, दस्ताने जैसे साधनों से वंचित हैं। जाहिर है सर्पदंश का केंद्र गांव, गरीब, किसान और मजदूर ही है। इस शोध रपट के अनुसार करीब 60 हजार भारतीय प्रति वर्ष इसलिए मारे जाते हैं, क्योंकि उनके रहवास के आसपास एंटी वेनम डोज या तो उपलब्ध नहीं होते हैं और अगर हैं भी तो वहां ट्रेंड स्टाफ नहीं है। सांप काटने के बाद अगले एक से दो घंटे निर्णायक होते हैं, लेकिन जागरूकता के अभाव में ग्रामीण पहले तो झाड़-फूंक के चक्कर में पड़ते हैं और जब अस्पताल जाते हैं तो वहां एंटी वेनम नहीं मिलता है। इनमें आधी से ज्यादा मौतें जून से सितंबर के महीनों में होती हैं, जब मानसून के साथ देश भर में धान, सोयाबीन, मूंगफली जैसी फसलों की पैदावार में किसान खेतों में लगे रहते हैं। सर्पदंश से 70 फीसद मौतें बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश तेलंगाना समेत, झारखंड, ओडिशा और गुजरात में होती हैं।

समझा जा सकता है कि अनेक मानकों में पिछड़े उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्य इस मामले में भी गरीबों के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या सर्पदंश से मौत के मुंह में जाने वाले लोग देश के मजदूर, किसान हैं इसलिए इस मामले पर कोई बुनियादी पहल आज तक नहीं हुई। आप बिहार, उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश के किसी भी दूरदराज के प्राथमिक उप स्वास्थ्य केंद्र में चले जाइए, आपको एंटी वेनम नहीं मिलेगा। चूंकि इसे फ्रीज में रखना होता है और अधिकांश पीएचसी में यह सुविधा आज भी उपलब्ध नहीं है, मजबूरन लोग ऐसे मामलों में जिला अस्पताल या निजी नìसग होम जाते हैं। वहां तक जाने में लगने वाला समय ही इस मामले में निर्णायक होता है।

सरकार के स्तर पर पहली बार 2009 में नेशनल स्नेकबाइट मैनेजमेंट प्रोटोकॉल तैयार किया गया था, लेकिन इस पर ठोस अमल नहीं हुआ है। एंटी वेनम का मानक डोज देने वाले कíमयों की खास ट्रेनिंग नहीं होती है, इसलिए कई लोग तो ओवर डोज के चलते भी मर जाते हैं या फिर स्थाई दिव्यांगता का शिकार हो जाते हैं। मध्य प्रदेश की एक संबंधित डॉक्टर नीलिमा सिंह का मानना है कि अधिकांश मौतों को रोका जा सकता है, बशर्ते समय पर निर्धारित एंटी वेनम डोज उपलब्ध हो। भारत में प्रशिक्षित डॉक्टरों एवं पैरा मेडिकल स्टाफ की भारी कमी के कारण भी अस्पतालों में इसकी समुचित व्यवस्था नहीं हो पाई है।

चूंकि इसे बनाने में दवा कंपनियों को बड़ा फायदा नहीं होता है, इसलिए चुनिंदा कंपनियों में ही इसका निर्माण होता है। एंटी वेनम भेड़ों और घोड़े से बनाई जाती है जो एक लंबी और खर्चीली प्रक्रिया है। विशेषज्ञों का दावा है कि पिछले करीब एक दशक से पौधों के एंटी ऑक्सीडेंट लेकर गोली के रूप में एंटी वेनम तैयार करने पर काम चल रहा है। गोली के रूप में इसके आने के बाद डोज को लेकर आने वाली तकनीकी समस्या का समाधान होने की बात कही जा रही है। इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन भी गंभीरता से काम कर रहा है। उसका लक्ष्य 2030 तक सर्पदंश से होने वाली मौतों के आंकड़े को आधा करने का है। इसके लिए एंटी वेनम का उत्पादन 25 से 40 फीसद बढ़ाना होगा।

भारत में होने वाली मौतों को लेकर सरकारी आंकड़े अक्सर दुरूह प्रक्रिया के चलते वास्तविकता को बयां नहीं करते हैं, क्योंकि सरकार उन्हीं मामलों की गणना करती है जो उसके राजस्व और पुलिस रिकार्ड में दर्ज होते हैं। गांव देहात में लोग अक्सर ऐसे मामलों की रिपोर्ट थानों में नहीं करते हैं, क्योंकि मृत्यु के बाद पोस्टमार्टम कराना पड़ता है तब जाकर पुलिस दस्तावेज राजस्व अधिकारियों को भेजती है।

केंद्रीय स्तर पर ऐसी मौतों का आंकड़ा वास्तविकता से बहुत दूर होता है। संभवत: इसीलिए अन्य बीमारियों या असमय मौत के मामलों के संदर्भ में सर्पदंश को लेकर सरकार गंभीर नहीं है। बेहतर होगा देश की मौजूदा स्वास्थ्य नीति में सर्पदंश को दुर्घटनाजन्य चिकित्सा सुविधा के दायरे से बाहर निकालकर स्थाई इलाज के प्रावधान किए जाएं। चूंकि इसका केंद्र गांव है इसलिए पीएचसी-सीएचसी स्तर पर एंटी वेनम की सहज उपलब्धता कम से कम मानसून के दौरान तो सुनिश्चित की ही जा सकती है। ऐसा होने पर देश भर में बड़ी संख्या में सर्पदंश से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है।

[लोक नीति विश्लेषक]