डॉ दर्शनी प्रिय। देश के कई राज्यों के स्कूलों के 12वीं के परीक्षा परिणाम बताते हैं कि सरकारी स्कूल के छात्रों के अनपेक्षित उत्कृष्ट प्रदर्शन ने अभिभावकों में इन स्कूलों के प्रति उनकी आस्था को मजबूत किया है। इससे गहरे पैठे हीनता का भाव मंद पड़ा है और वे अपराधबोध से मुक्त होने की राह पर हैं। श्रम, संयम और संकल्प शक्ति ने इन छात्रों को तपा कर कुंदन किया है। जुनून, कर्मठता और सीखने के प्रति सहज बोध ने इन छात्रों को सफलता की अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा किया है। भविष्य में यह एक स्वस्थ परंपरा की वाहक बनेगी, इसके बहुत आसार हैं। अंग्रेजी स्कूलों को पछाड़कर सरकारी स्कूल के बच्चों ने यह साबित कर दिखाया है कि सफलता संसाधनों की मोहताज नहीं होती। उनके अदम्य साहस और लगन ने भविष्य की उनकी राह आसान कर दी है। अपनी इस उपलब्धि को अवसर में बदलकर वे सफलता की नई ईबारत लिख सकते हैं।

संभवत: कामयाबी की ऐसी निरंतरता उनके सुनहरे कल की सुनियोजित गांरटी है। परंतु तमाम अड़चनों के बीच कामयाबी की ये जंग इतनी आसान भी न थी। बदलाव का ये कारवां मीलों लंबा सफर तय आज इस मुकाम पर पहुंचा है। यद्यपि मुश्किलों और कामयाबियों के बीच की ये जंग आज भी जारी है। बदहाली, संसाधनहीनता, उत्कृष्ट शिक्षण सामग्रियों की रिक्तता, कुशल और प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव अब भी इन बच्चों की राह के सबसे बड़े रोड़े हैं। बावजूद इसके उनके हिम्मत और जज्बे में काई कमी नहीं आई है। जाहिर है सफलता के ऐसे प्रदर्शनों से आमजन की आस्था बलवती होती है। इस साल दिल्ली में 12वीं में सरकारी स्कूलों का नतीजा 98 प्रतिशत रहा है। वर्ष 2016 में सरकारी स्कूलों का नतीजा 85़9 था प्रतिशत था जो अगले साल बढ़कर 88़2 प्रतिशत हुआ। 2018 में 90़6 फीसदी और 2019 में 94़24 फीसद रिजल्ट रहा।

अभिभावकों के विश्वास को मिला बल : लॉकडाउन की स्थिति ने निजी स्कूलों की संचालनात्मक शैली की कलई खोली है। ऑनलाइन शिक्षा के बहाने येन-केन-प्रकारेण मोटी फीस वसूलने वाले स्कूलों के प्रति अभिभावकों के अवचेतन में कहीं न कहीं भारी रोष और अस्वीकार्यता का भाव है। बदली हुई परिस्थितियों में अभिभावक पस्त और निजी स्कूल मस्त हैं। शुल्क के भारी डंडे से अभिभावक तो पहले भी हलकान थे, लेकिन कोरोना संकट में आर्थिक गतिविधियों में व्यापक कमी आने के बावजूद इन स्कूलों द्वारा लिए जाने वाले फीस ने अभिभावकों की कमर ही तोड़ दी है। भारी-भरकम फीस के अतिरिक्त प्राय: इन स्कूलों में होने वाले आयोजनों के नाम पर भी अनाप-शनाप वसूली की जाती है जिससे बच्चों के माता-पिता पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। रही-सही कसर हर साल बदलने वाले पाठ्यक्रमों और नए किताबों के खर्च के बोझ पूरी कर देते हैं। उनके इस रवैये से इन तथाकथिक अत्याधुनिक मॉडल स्कूलों के प्रति अभिभावकों का मोहभंग होने की शुरुआत हो चुकी है। आकर्षण का बेसाख्ता दौड़ता पहिया एकाएक थम-सा गया है। ऐसे समय में सरकारी स्कूल एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभरेंगे, इसमें कोई दो राय नहीं। बहुत संभव है संकोच और पूर्वाग्रह का दरवाजा टूटेगा और आस्था व विश्वास की डोर मजबूत होगी। इन स्कूलों के आशातीत परिणाम ने तमाम अभिभावकों के मन में उम्मीद की एक नई किरण पैदा की है।

विदेशों से सीख लेने की दरकार : जिन देशों में शिक्षा व्यवस्था समुचित तरीके से संचालित हो रही है, वहां चल रहे सरकारी स्कूलों को एक मॉडल के रूप में देखा जा सकता है। जिन देशों में निजी स्कूलों की स्थापना संबंधी अवधारणा को ज्यादा बल नहीं मिला, वहां सरकारी स्वामित्व वाले स्कूलों को इस कदर सक्षम, अव्वल और उत्कृष्ट बनाया गया कि शैक्षिक विकल्प के तौर पर निजी स्कूल कभी उभर ही नहीं पाए। गुणवत्तापूर्ण शिक्षण प्रणाली के जरिये इन स्कूलों की साख को मजबूती मिलती रही है। सख्त निगरानी तंत्र और चुस्त प्रशासनिक रवैने ने इन स्कूलों को शीर्ष के स्कूलों में शामिल किया है। भारत में भी ऐसी व्यवस्था की सख्त दरकार है। जाहिर है सरकारी स्कूलों की कुव्यवस्था ने निजी स्कूलों को फलने-फूलने का अवसर दिया है।

इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक संबंधित फैसले को यदि अमल में लाया जाए तो धरातल पर बहुत कुछ बदलाव हो सकता है। दरअसल इस अदालत ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि सभी प्रशासनिक अधिकारियों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में ही पढाना चाहिए। ऐसा होने से इन स्कूलों पर अधिकारियों की निगरानी कायम रहेगी जिससे वहां पर शिक्षण की गुणवत्ता का स्तर बढ सकता है। लेकिन इसे संज्ञान में नहीं लिया गया और नतीजा ढाक के तीन पात ही रहे।

विभिन्न राज्यों से सबक लेने का समय : हरियाणा में भी दसवीं के परीक्षा परिणाम पहले से बहुत अच्छे आए हैं। हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी के 10वीं और 12वीं के बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम ने दर्शाया है कि सरकारी स्कूलों की व्यवस्था को यदि सुधारा जाए तो उनके बच्चों में बहुत क्षमता है। राज्य में कई जिलों में सरकारी स्कूलों का परीक्षा परिणाम निजी स्कूलों से भी बेहतर रहा है। एक अच्छी बात यह हुई है कि सरकारी स्कूलों के परिणामों में पिछले पांच वर्षों में 60 फीसद की वृद्धि हुई है और राजकीय विद्यालयों के मुकाबले हरियाणा में निजी विद्यालय लगातार पिछड़ते चले गए। हरियाणा और दिल्ली समेत अन्य कई राज्यों ने यह साबित कर दिया है कि यदि कार्य के प्रति निष्ठा और कृतसंकल्पता का भाव हो तो बड़ी आसानी से किसी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है और किसी भी क्षेत्र में दूरगामी परिवर्तन लाए जा सकते हैं।

बढ़ाने होंगे बदलाव भरे कदम : शिक्षा की बदरंग तस्वीर को बदलने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को इस दिशा में समेकित प्रयास करने होंगे। प्रत्येक स्तर पर सुधार के अतिसूक्ष्म पहलू को दृष्टिगत करते हुए समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देना होगा। मौजूदा शैक्षिक व्वयस्था परिवर्तन इस दिशा में कारगर हथियार बनेंगे। विशेषकर बुनियादी शिक्षा की नींव को मजबूत आधार देकर इस लक्ष्य की ओर आसानी से अग्रसर हुआ जा सकेगा। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में सरकारी स्कूलों को कई सुधारात्मक कदम उठाने होंगे। निश्चित ही राह कठिन है, लेकिन अभिनव शिक्षण शैली के समेकित प्रयास से कई आमूलचूल परिवर्तन लाए जा सकेंगे। इसमें एक अहम कड़ी होगी संसाधनों पर निवेश को बढ़ाकर स्कूलों को समुचित सुविधाएं उपलब्ध कराना।

खेलकूद संबंधी व्यवस्था और पुस्तकालय जैसी अहम कड़ियों को दुरुस्त करना, ताकि छात्रों का सर्वांगीण विकास सुनिश्चित हो सके। अनुप्रयोग संबंधी विकास को गति देकर उनके व्यावहारिक ज्ञान को संपुष्ट करना होगा। साथ ही व्यापक ढांचागत सुविधा विस्तार, पाठ्यक्रम में स्थिरता, प्रशिक्षित व स्तरीय शिक्षकों की भर्ती ड्रॉपआउट संख्या में कटौती, निगरानी तंत्र में मजबूती, कुशल प्रबंधन प्रणाली, व्यावहारिक शिक्षा पर जोर, प्रयोगशालाओं और पुस्तकालयों जैसी बुनियादी सुविधाओं में बढ़ोतरी, शिक्षकों की नियमित उपस्थिति और संस्थागत सुविधाओ में बदलाव लाकर शिक्षा की सूरत को बदला जा सकेगा। ये स्कूल मील का पत्थर तभी साबित होंगे, जब वे सुविधाओं और संसाधनों से लैस होंगे। सबसे महत्वपूर्ण शिक्षकों की नियमित उपस्थिति को सुनिश्चित करना होगा, तभी इस लड़ाई को जीता जा सकेगा। बुनियादी शिक्षा की मूलभूत समस्या और आवश्यकता को नए सिरे से समझना होगा।

समय आ गया है कि संबंधित संस्थाएं अपने नजरिये में बदलाव लाएं और राष्ट्र की बुनियाद यानी शिक्षा को गंभीरता से लें। महाशक्ति बनने की दिशा में अग्रसर देश बिना उत्कृष्ट शिक्षा के कामयाब नहीं हो सकता। बड़े कारोबारी घरानों, निजी संस्थानों और प्राइवेट पार्टनर्स को भी अपने सामाजिक दायित्व की भूमिका को नए सिरे से समझना होगा, केवल तभी शिक्षा को सर्वसुलभ, सर्वसहज और सराहनीय बनाया जा सकेगा।

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