रमेश ठाकुर। उच्चतम न्यायालय के कड़े तेवर के बाद असम में तैयार हुए नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी का अंतिम प्रारूप आखिरकार 31 अगस्त को आया तो कई चौंकाने वाली बातें भी सामने आईं। सबसे पहली बात तो यह झूठी साबित हुई कि असम में विदेशियों की संख्या करोड़ में हो सकती है और इसका दावा यहां के लगभग सभी राजनीतिक दलों की ओर से किया जाता रहा है। जबकि 19 लाख लोग एनआरसी से बाहर हुए हैं। इनमें से भी करीब तीन लाख लोगों ने कोई दावा ही नहीं किया और इन लोगों के लिए अभी अपील की गुंजाइश है। एनआरसी से बाहर हुए नामों में हिंदू भी बड़ी संख्या में हैं।

एक नजर यहां भी 
वर्ष 1947 में पूर्वी बंगाल में हिंदू आबादी करीब 25.4 फीसद थी जो आज घट कर 10 प्रतिशत रह गई है। जाहिर है कि इनकी बड़ी संख्या ने भारत का रुख किया होगा। सबसे बड़ी बात यह कि इस सूची से कोई भी पक्ष संतुष्ट नहीं है। इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने वाली संस्था को कंप्यूटर सॉफ्टवेयर पर संदेह है तो सारे मामले को जन आंदोलन बनाने वाले अखिल असम छात्र संगठन व अन्य संगठनों को एनआरसी से बाहर हुए लोगों की संख्या इतनी कम होने पर भी संदेह है। राज्य और केंद्र में सत्ताधारी भाजपा के नेता भी इस आंकड़े से संतुष्ट नहीं हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनके विश्लेषण से पता चलता है कि पूरी प्रक्रिया में कहीं ना कहीं खामी तो है। मेघालय के राज्यपाल रहे रंजीत शेखर मुसाहारी के बेटे भारतीय सेना में कर्नल स्तर के अधिकारी रहे। उनका बेटा यानी पूर्व राज्यपाल का पोता इस समय रिजर्व बैंक में वरिष्ठ अधिकारी है, उनके पास भारतीय पासपोर्ट भी है, और उनके पास नागरिकता साबित करने का नोटिस आया तो सारे कागज जमा करवा दिए गए, लेकिन अंतिम सूची में वे विदेशी घोषित हो गए। ऐसे अनेक उदाहरण सामने आए हैं।

वोटबैंक बना समस्‍या 
असम में विदेशियों के शरणार्थी बन कर आने को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है- 1971 की लड़ाई या बांग्लादेश बनने से पहले और उसके बाद। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1951 से 1971 के बीच 37 लाख से अधिक बांग्लादेशी, जिनमें अधिकांश मुसलमान हैं, अवैध रूप से असम में घुसे व बस गए। 1970 के आसपास अवैध शरणार्थियों को भगाने के लिए कुछ कदम उठाए गए तो राज्य के अधिकांश मुस्लिम विधायकों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री के खिलाफ आवाज उठा दी। उसके बाद किसी भी सरकार ने इतने बड़े वोट-बैंक पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं जुटाई।

राज्य में संसाधनों का टोटा
शुरू में कहा गया कि असम में ऐसी बहुत सी जमीन है, जिस पर खेती नहीं होती है और ये घुसपैठिये इस पर हल चला कर हमारे देश का भला कर रहे हैं। लेकिन आज हालात इतने बदतर हैं कि काजीरंगा नेशनल पार्क को छूती कई सौ किलोमीटर के नेशनल हाईवे पर दोनों ओर केवल झुग्गियां दिखती हैं, जिनमें ये डेरा डाले हुए हैं। इनके कारण राज्य में संसाधनों का टोटा तो पड़ ही रहा है, वहां की पारंपरिक संस्कृति, संगीत, लोकचार, सभी कुछ प्रभावित हो रहा है। हालात इतने बदतर हैं कि करीब आठ साल पहले राज्य के राज्यपाल व पूर्व सैन्य अधिकारी रहे एसके सिन्हा ने राष्ट्रपति को भेजी एक रिपोर्ट में साफ लिखा था कि राज्य में बांग्लादेशियों की इतनी बड़ी संख्या बसी है कि उसे तलाशना व फिर वापस भेजने के लायक हमारे पास मशीनरी नहीं है।

एनआरसी लागू होने वाला असम इकलौता राज्‍य
असम देश का अकेला राज्य है जहां नागरिकता रजिस्टर बना है, वह भी दूसरी बार। याद होगा कि 1905 में ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन किया था। तब दो नए प्रांत बने थे- पूर्वी बंगाल (आज का बांग्लादेश) और असम। विभाजन के समय अनेक आशंकाओं के कारण गोपीनाथ बारदोलोई ने लंबा आंदोलन किया। आखिरकार देश की आजादी के बाद वर्ष 1950 में असम भारत का राज्य बना। उस समय भी बड़ी संख्या में शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान यानी वर्तमान बांग्लादेश से असम की ओर आ गए जिनमें हिंदुओं की संख्या भी बहुत थी। उस समय के विवाद को ही देखते हुए पहली बार असम में वर्ष 1951 में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनआरसी का प्रावधान किया गया और इसे अंजाम भी दिया गया था।

शरणार्थी बन गए सिरदर्द
भारत की स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान के पूर्वी भौगोलिक हिस्से (वर्तमान बांग्लादेश) से 1971 तक असम में लाखों की संख्या में शरणार्थी आकर बसते रहे जो यहां के लिए सिरदर्द बनते गए। ये अवैध बांग्लादेशी केवल असम की ही समस्या नहीं रह गए हैं, बल्कि धीरे-धीरे इस समस्या ने अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण कर लिया है। इन अवैध अप्रवासियों की संख्या दिल्ली में भी बढ़ती जा रही है। ये लोग तमाम तरह के अपराधों में भी लिप्त पाए गए हैं। लिहाजा इन पर रोक लगाना जरूरी है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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