नई दिल्ली, बद्री नारायण। भारतीय लोकतंत्र में एक नए शब्द एवं अवधारणा का चलन शुरू हुआ है। यह शब्द है एस्पिरेशनल। इसका सरोकार आकांक्षाओं से है। इसके तहत नीति आयोग की पहल पर देश के 28 राज्यों के 108 जिलों का चयन प्रथम चरण में किया है। इन्हें एस्पिरेशनल जिलों के रूप में चिन्हित किया गया है। धीरे-धीरे कुछ अन्य जिले भी चिन्हित किए जाएंगे। इन जिलों का चयन स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव विकास जैसे मानकों पर अति पिछड़ेपन को चिन्हित करके किया गया है। इसमें अति पिछड़ापन और कठिन भौगोलिक परिस्थितियों जैसे दो मुख्य पैमानों को आधार माना गया है। इसमें दूरदराज के ऐसे क्षेत्रों को भी महत्व दिया गया है जो नक्सल, उग्रवाद जैसी समस्या से जूझ रहे हैं या प्राकृतिक दुरूहता के कारण विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं और इसकी वजह से वहां विकास के लिए जन आंदोलन चल रहे हैं।

इन अति पिछड़े क्षेत्रों को विकास के मानकों पर उत्कृष्ट विकसित क्षेत्र बनाने की नीति को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘सबका साथ-सबका विकास’ नारे की मूल आत्मा के रूप में देखा जा रहा है। यह बात और है कि अति पिछड़े, हिंसाग्रस्त और भौगोलिक रूप से दुरूह स्थिति वाले क्षेत्रों को एस्पिरेशनल यानी आकांक्षी कहना एक अवधारणात्मक समस्या को जन्म देता है। अकादमिक विमर्श में एस्पिरेशनल उस स्थिति को कहते हैं जहां आगे बढ़ने की आकांक्षा प्रबल दिखती है। एस्पिरेशनल वह मन: स्थिति है जहां हम भविष्य में बेहतर होने की प्रेरणा से आगे बढ़ने की जद्दोजहद कर रहे होते हैं। यह अति पिछड़ेपन की प्रतीक न होकर पिछड़ेपन से थोड़ा आगे बढ़ी हुई स्थिति है जहां आकांक्षा ही हमारे विकास का मूल तत्व हो जाती है। समाजशास्त्री अजरुन अप्पादुरई का मानना है कि आकांक्षी होने की शक्ति हमें तब प्राप्त होती है जब हम कुछ सामान्य सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विकास कर चुके होते हैं। यह अति पिछड़ेपन का पर्याय नहीं हो सकता। हां, विकास की चाह में जहां जन आंदोलन चल रहे हैं उन्हें हम एस्पिरेशनल की अभिव्यक्ति मान सकते हैं, मगर जहां लोग अति पिछड़ेपन की स्थिति के कारण विकास के सामान्य स्नोतों से वंचित हैं, जो विकास के मनोविज्ञान का पहला चरण है, उन्हें एस्पिरेशनल कहना कहां तक उचित है?

बिहार एवं उत्तर प्रदेश से गरीबों का पलायन बेहतर भविष्य और रोजी-रोटी की आकांक्षा के कारण हो रहा है। जो युवा बिहार से निकलकर दिल्ली की कठिन परिस्थितियों में भी प्रशासनिक सेवा परीक्षा की तैयारी करते हुए आइएएस या पीसीएस हो जाते हैं, इसमें उनकी प्रेरणा अपनी आकांक्षा है। बिहार में 18 से 25 वर्ष की आयु के लगभग 1 करोड़ 25 लाख युवा रोजगार की तलाश कर रहे हैं, लेकिन पलायन के लिए भी क्षमता और संसाधन चाहिए। किसी जगह जाकर वहां अपने लिए उपयुक्त स्थान तलाशना और आने-जाने के खर्च की व्यवस्था करनी होती है। इसके बिना आकांक्षा भी नहीं की जा सकती।

उत्तर प्रदेश में चित्रकूट, फतेहपुर और सोनभद्र आदि जिलों को एस्पिरेशनल जिले मानना समस्या को जन्म देता है। उत्तर प्रदेश एवं नेपाल सीमा पर अति पिछड़े जिलों को एस्पिरेशनल कहना उचित नहीं, क्योंकि इनमें से कई जिलों की हालत ऐसी है कि वहां के लोग आकांक्षा करने की ही स्थिति में नहीं हैं।

2014 के संसदीय चुनाव में राजनीतिक विश्लेषकों ने एस्पिरेशनल शब्द का व्यापक इस्तेमाल किया था। कइयों ने उस चुनाव में भाजपा की जीत और नरेंद्र मोदी की करिश्माई छवि की व्यापक स्वीकार्यता का कारण ही भारतीय समाज में एस्पिरेशनल समुदाय और आकांक्षापरक युवा वर्ग के व्यापक चुनावी हस्तक्षेप को ही माना था। यहां एस्पिरेशनल का अर्थ विकास की दिशा में आगे बढ़ने के लिए एक सक्रिय आकांक्षा के रूप में किया गया था। अति पिछड़ेपन शब्द से आकांक्षापरक का बोध नहीं होता। स्पष्ट है कि विकास की आकांक्षा से हीन अति पिछड़े जिलों के लिए उपयुक्त शब्द तलाशने की जरूरत है। भारत सरकार के एस्पिरेशनल डिस्टिक्ट प्रोग्राम के तहत चयनित जिलों को स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्यपरक भोजन, शिक्षा, कृषि, जल स्नोत, आर्थिक दक्षता विकास के क्षेत्रों में उनके अति पिछड़ेपन को चिन्हित कर उन्हें विकासशील अर्थव्यवस्था से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है।

प्रशासनिक एवं चुनावी जनतंत्र में शब्दों एवं प्रतीकों की बड़ी भूमिका है। शब्द एवं प्रतीक वह आकर्षण रचते हैं जो जनतंत्र को अवधारणात्मक स्तर पर और साथ ही आधार तल पर आकर्षक बनाते हैं। जब समाज में एक ही शब्द के कई अर्थ टकराने लगें तो उनकी ऐसी अनुगूंज पैदा होती है जो प्रारंभिक स्तर पर प्राय: दुविधा पैदा करती है। देखा यह जाना चाहिए कि क्या शब्द वास्तविक अर्थ को छिपा रहे हैं, भ्रमित कर रहे हैं या सही अर्थ देकर हमारी सोच को शक्ति दे रहे हैं। यदि शब्द या अवधारणा हमें भ्रमित करे तो उसके आधार तल पर रूपांतरण में भी समस्या आ सकती है। यहां पर इन जिलों के एस्पिरेशनल होने का अर्थ सिर्फ जनांदोलन वाले हिंसाग्रस्त और नक्सल प्रभावित क्षेत्र इत्यादि के रूप में चिन्हित करने से ही हो रहा है।

ऐसे क्षेत्र जहां आगे बढ़ने के लिए आंदोलन चल रहा है उन्हें तो एस्पिरेशनल कहा जा सकता है, किंतु जहां सिर्फ अति पिछड़ापन है और उस अति पिछड़ेपन को वहां की जनता मूक होकर स्वीकार करती चली आ रही है उन्हें आकांक्षापरक इलाके न कहकर कुछ और कहा जाए तो बेहतर या फिर ऐसा कुछ किया जाए जिससे वहां भी विकास की आकांक्षा पैदा हो। उचित होगा कि अति पिछड़ेपन को किसी और नाम से संबोधित किया जाए ताकि कहीं कोई भ्रम की स्थिति न रहे और संबंधित जिलों के लोग भी विकास के लिए प्रेरित हो सकें। हालांकि अपने प्रारूप के स्तर पर यह योजना समाज की अपनी शक्ति, अपनी दक्षता, अपने स्नोतों के बेहतर उपयोग, सरकारी येाजनाओं के उक्त क्षेत्र के विकास के लिए समन्वय और बेहतर समायोजन के लिहाज से उपयोगी एवं सार्थक दिखती है। अगर सचमुच हम जनता के भीतर लगातार बलवती हो रही विकास की आकांक्षा को संतुष्ट कर पाएं तो इससे हमारा जनतंत्र सार्थक एवं मजबूत होगा।

चूंकि इस योजना को शुरू हुए अभी एक वर्ष भी पूरा नहीं हुआ इसलिए उसके परिणामों का आकलन करना ठीक नहीं, लेकिन अगर इसके क्रियान्वयन की दिशा एवं दशा सही है तो हम कह सकते हैं कि विकास का उजाला अंधेरे कोनों तक भी ले जाने की कोशिश की जा रही है। ऐसी कोशिश होनी ही चाहिए, क्योंकि यह एक तथ्य है कि देश के कई हिस्से विकास की रोशनी से वंचित हैं या फिर वह सही मात्र में नहीं पहुंच पा रही है। सरकार का कहना है कि आकांक्षी जिलों के चयन में राजनीति नहीं, बल्कि आंकड़ों को महत्व दिया गया है। वहीं आलोचक कहते हैं कि कई जिलों के चयन में आंकड़ों से अधिक राजनीतिक प्राथमिकताएं महत्वपूर्ण रही हैं। चयन के कारण चाहे जो रहे हों, भारत में अगर ऐसे जिलों का विकास हो सके जो अति पिछड़े हैं तो इससे हमारा जनतंत्र ही मजबूत होगा।

(लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं)