[डॉ. श्रीरंग गोडबोले]। प्रथम विश्व युद्ध में हुई अनेक घटनाओं के कारण भारत के मुस्लिमों का अखिल-इस्लामी चरित्र ब्रिटिश विरोधी रूप धारण करने लगा। इसके अलावा, भारत और मुस्लिम जगत में घटी कुछ घटनाओं के कारण ब्रिटिश शासन के प्रति भारत के मुस्लिमों का रुख मित्रता (1906-1911) से संघर्ष में बदल गया। ब्रिटिश शासन के प्रति भारत के मुस्लिमों के रवैये में आमूल परिवर्तन लाने वाली प्रथम विश्व युद्ध की घटनाओं का अध्ययन एवं विश्लेषण आवश्यक है।

ऐसा करते समय विश्व में घट रही घटनाओं के प्रति भारतीय मुस्लिम नेताओं के रुख पर गौर किया जाना चाहिए। हालांकि खिलाफत आंदोलन को प्रथम विश्व युद्ध के अंत में तुर्क साम्राज्य के विघटन के कारण शुरू किया गया था, लेकिन इसके संकेत प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व ही तुर्की खलीफा के घटते प्रभाव के साथ दिखाई देने लगे थे। 1911-1924 के बीच हुए घटनाक्रम में प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति (नवंबर 1918) को सुविधा के लिए मध्य बिंदु समझा जा सकता है।

प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की

प्रथम विश्व युद्ध 19 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक चला। ग्रेट ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, इटली, रोमानिया,जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका (मित्र राष्ट्रों की शक्तियों) तथा जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी और ओटोमन तुर्की (तथाकथित केन्द्रीय शक्तियों) के बीच यह युद्ध लड़ा गया। युद्ध की समाप्ति पर मित्र राष्ट्रों की शक्तियों ने जीत का दावा किया। इस युद्ध में अनुमानित 1.6 करोड़ लोग जिसमें आम नागरिक और सैनिक दोनों शामिल थे, मारे गए। विभिन्न देश अलग-अलग चरणों में इस युद्ध में शामिल हुए। 1299 में स्थापित ओटोमन साम्राज्य ने अपने चरम के समय अर्थात 1520-66 के दौरान मध्य पूर्व (अरब, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन, जॉर्डन और मिस्र का हिस्सा), पूर्वी यूरोप (तुर्की, ग्रीस, बुल्गारिया, हंगरी, मैसेडोनिया और रोमानिया) और उत्तरी अफ्रीका (तटीय पट्टी) के बड़े क्षेत्रों पर शासन स्थापित किया। परन्तु 1600 की शुरुआत में ईसाई यूरोप में पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के साथ इसका पतन प्रारंभ हुआ। अगले 100 वर्षों में, ओटोमन साम्राज्य ने अपने राज्य क्षेत्र के बड़े हिस्से खो दिए जैसे ग्रीस (1830), रोमानिया, सर्बिया और बुल्गारिया (1870), ओटोमन त्रिपोलितानिया विलायत (प्रांत) जिसमें त्रिपोली (1911-12, इटली के राज्य) शामिल था, दक्षिण-पूर्वी यूरोप के अधिकांश शेष क्षेत्र।

बड़े पैमाने पर भूभाग की हार, आतंरिक असंतोष एवं बिगड़ती आर्थिक स्थिति के कारण प्रथम विश्व युद्ध से पहले ही ओटोमन साम्राज्य में अव्यवस्था व्याप्त थी। इससे हतोत्साहित होने के बजाय, सत्तारूढ़ कमिटी फॉर यूनीयन एंड प्रोग्रेस के पक्षधर प्रेस एवं राजनीतिक वर्ग तथा नाममात्र के सुल्तान मेहमेत पंचम ने एकमत से हरेकेती-इ-इंतिबाहिए (राष्ट्रीय पुनर्जागरण) का नारा दिया। विश्व युद्ध में यदि तुर्की तटस्थ रहता तो इस नारे की पूर्ति असंभव थी। युद्ध मंत्री अनवर पाशा के अधीन तुर्क सरकार ने तुर्क सेना और नौसेना का पुनर्गठन करने के लिए क्रमशः जर्मनी और ब्रिटेन दोनों की ओर रुख किया। तुर्की शुरू में दोनों देशों में से किसी के साथ गठबंधन के लिए तैयार था। परन्तु ब्रिटेन के साम्राज्यवादी हितों से टकराव के कारण उसके साथ एक दीर्घकालीन गठबंधन असंभव था। परन्तु जर्मनी ने कभी ओटोमन साम्राज्य के भूभाग के प्रति लालच व्यक्त नहीं किया था, अत: जर्मनी के साथ पिछले सैन्य संबंधों को देखते हुए, ओटोमन साम्राज्य जर्मनी के साथ गठबंधन के लिए इच्छुक हुआ।

30 सितंबर 1914 को, तुर्की ने जर्मनी को जर्मन बैंकों से पचास लाख तुर्की पाउंड मूल्य के स्वर्ण के रूप में ऋण की मांग की। जिस पर जर्मनी का कहना था कि अगर तुर्की, जर्मनी के पक्ष में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करता है तो इस तरह के ऋण की व्यवस्था की जा सकती है। 29 अक्टूबर 1914 को तुर्क साम्राज्य ने रूसी बंदरगाहों पर बमबारी के साथ विश्व युद्ध में प्रवेश किया। 1915 के मध्य तक ओटोमन साम्राज्य अंतर्राष्ट्रीय पूँजी बाजार से ऋण लेने से वंचित कर दिया गया था। इसके कारण उसका आर्थिक संकट और भी गहरा हो चुका था। गैलीपोली (1915) और अल-कुत (1916) में ब्रिटेन पर जीत हासिल करने के बावजूद, 1916 तक तुर्क सेना टूट चुकी थी। रूसी शीतकालीन आक्रमण (1916) और सीरिया, फिलिस्तीन और यरुशलम (1916-17) में ब्रिटिश आक्रमणों के चलते तुर्की की सेना पंगु हो गई।

1900 में, सुल्तान अब्दुल हमीद ने अपने अरब प्रांतों को दमिश्क से जोड़ने वाली एक दूरगामी रेलवे लाइन का निर्माण शुरू किया था। यह हेजाज रेलवे (हेजाज-अरब का क्षेत्र, जिसमें मक्का और मदीना शामिल हैं) एक ‘पवित्र धोखाधड़ी’ थी, जिसका निर्माण जर्मन इंजीनियरों द्वारा दुनिया भर में मुस्लिमों द्वारा दी गई धनराशि से किया गया था। विडंबना यह है कि इस पर पहली ट्रेन सितंबर 1918 में शुरू हुई जब ब्रिटिश अपनी निर्णायक विजय को प्राप्त करने की ओर अग्रसर थे।

अखिल इस्लामिक खिलाफत का मिथ्या स्वरूप

युद्ध शुरू होने से ठीक पहले, तुर्की साम्राज्य के अरब क्षेत्रों में भूमिगत विद्रोह भी हुए। मक्का के शरीफ हुसैन (1853-1931) और उनके बेटों ने, जो अब्बासी खिलाफत के पुरातन गौरव से वशीभूत थे, अपने परिवार की संप्रभुता के तहत एक विशाल अरब परिसंघ का सपना देखा | हुसैन पैगंबर मुहम्मद के 37 वें वंशज थे। मक्का पहुंचने के तुरंत बाद, अरब-विरोधी तुर्की गवर्नर वाहिब बे ने शरीफ को शरीफ के गार्ड के कब्जे वाली सौ पुरानी राइफल सौंपने का आदेश दिया। इस अपमान ने दंगा भड़का दिया। अरब और सीरिया में एक स्वतंत्र अरब राज्य चाहने वाले अंग्रेजों ने शरीफ हुसैन को प्रोत्साहित किया। अंग्रेज यह भी चाहते थे कि शरीफ ब्रिटेन के पक्ष में हों और तुर्की के विरुद्ध जिहाद का ऐलान करें। हालांकि हुसैन की पैगंबर के वंशज के रूप में प्रतिष्ठा थी, लेकिन यह संदिग्ध था कि उनके पास खिलाफत का दावा करने के लिए पर्याप्त शक्ति भी थी। जनवरी 1915 में, जब जिहाद की घोषणा करने के लिए तुर्कों द्वारा दबाव डाला गया, तो अंग्रेजों के प्रोत्साहन और इब्न सऊद (वर्तमान सऊदी अरब के सत्तारूढ़ वंश का संस्थापक था), के परामर्श से, शरीफ हुसैन ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। 1916 की शुरुआत में तुर्की की सेना ने अपने स्वयं के सैन्य बलों और क्षेत्रों में फैले अरब आंदोलन को कुचलने के लिए सीरिया में घेरा डाला। संदिग्ध विद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया गया। खैरी बे के अधीन एक विशेष तुर्की बल का गठन किया गया जिसे एक छोटे जर्मन सैन्यदल के साथ मक्का की ओर प्रयाण करना था और विद्रोहियों को पराजित करना था। अंतत: 5 जून 1916 को अरब विद्रोह शुरू हुआ।

विद्रोह का नेतृत्व स्वयं शरीफ ने किया। उसके पास 50 हज़ार अरब सैनिक थे, लेकिन उनके बीच केवल 10 हज़ार राइफलें थीं। इस विद्रोह के परिणामस्वरूप मक्का, जेद्दा और तैफ छीन लिए गये। 1919-24 तक शरीफ हुसैन ने खुद को हेजाज का राजा घोषित कर दिया। तुर्की खिलाफत की समाप्ति के दो दिन बाद, अर्थात 3 मार्च 1924 को उन्होंने खुद को खलीफा घोषित किया, लेकिन अंत में प्रतिद्वंद्वी सऊदी कबीले द्वारा अरब से बाहर निकाल दिए गए। इस्लामी जगत के स्व-घोषित खलीफा के विरोध में पैगम्बर मुहम्मद के वंशज का विद्रोह अखिल-इस्लामवाद और खिलाफत के मिथ्या स्वरूप का मर्मभेदी प्रमाण था।

राजा के चाटुकार

1911 में मुहम्मद अली ने एक राहत कोष शुरू किया जो पहले त्रिपोली और बाद में बाल्कन युद्धों के तुर्की पीड़ितों के लिए था। डॉ एमए अंसारी के नेतृत्व में एक चिकित्सा मिशन दिसंबर 1912 में भारत से रवाना हुआ जो जुलाई 1913 में वापस आ गया। उल्लेखनीय है कि 1898-1918 तक पूरे भारत में प्लेग से एक करोड़ से अधिक लोगों की मौत हुई थी। 1911 में बॉम्बे में 3997 लोगों की मृत्यु प्लेग से हुई जिसमे मृत्यु दर 408.1 प्रति 100,000 की थी, जबकि कलकत्ता में 166.2 प्रति 100,000 की मृत्यु दर के साथ 1736 लोगों की मृत्यु हुई थी। परन्तु भारत में प्लेग पीड़ितों की मदद के लिए डॉ अंसारी द्वारा रेड क्रिसेंट मिशन या स्वैच्छिक चिकित्सा कार्य द्वारा आयोजित किसी भी राहत कार्य का उल्लेख नहीं है। युद्धग्रस्त तुर्की के लिए उनका दिल तड़प रहा था।

मुहम्मद अली ने अपने कोष और मिशन के संबंध में हर कदम पर ब्रिटिशों से आधिकारिक और व्यक्तिगत सहयोग की मांग की। दिल्ली रेड क्रिसेंट सोसायटी के संरक्षक के नाते वायसरॉय के सहयोजन तथा ब्रिटिश कांसुलर अफसरों के माध्यम से राहत कार्यों के आयोजन से मुहम्मद अली की ब्रिटिश-निष्ठा उजागर हुई। जब प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया, तब मुहम्मद अली द्वारा चलाये जा रहे कॉमरेड समाचार-पत्र के द्वारा एकत्र राहत कोष से वित्त पोषित अस्पताल को युद्ध कालीन चिकित्सा सेवा में प्रस्तुत किया गया (नीमायर, पृष्ठ 56)। जुलाई 1914 में, जब सर्बिया और ऑस्ट्रिया के बीच युद्ध छिड़ गया, तो भारत के मुस्लिमों की सहानुभूति ऑस्ट्रिया के पक्ष में हो गई, क्योंकि सर्बिया तुर्की के विरुद्ध बाल्कन संघर्ष में शामिल था। इसके बाद, जब जर्मनी और रूस भी आपस में उलझ गए, तो भारतीय मुस्लिमों ने रुस-तुर्की युद्ध की यादों के कारण जर्मनी का समर्थन किया।

ईसाई ताकतों को आपस में लड़ते देख भारत के मुस्लिम उल्लसित होते थे। उनका यह विश्वास था कि तुर्की के साथ किए दुर्व्यवहार के लिए अल्लाह उन्हें सजा दे रहा है। कइयों ने सोचा था कि विश्व युद्ध से यूरोप में ईसाइयत का पतन और इस्लामी सत्ता का पुनर्जीवन निश्चित है। अगस्त 1914 में जब ब्रिटेन सर्बिया और रूस के पक्ष में युद्ध में उतरा, तब जर्मनी के कथित तुर्की-प्रेम के बावजूद, भारत के मुस्लिमों की सहानुभूति विस्मयकारी ढंग से ब्रिटेन की ओर तब्दील हुई। तुर्की द्वारा घोषित तटस्थता की नीति इस अप्रत्याशित ब्रिटिश समर्थन का कारण थी। सुल्तान को भेजे अपने टेलीग्राम में फिरंगी महल के मौलाना अब्दुल बारी ने तुर्की के, ब्रिटेन के पक्ष में रहने अथवा तटस्थ रहने की याचना की। उसी समय उन्होंने वायसराय लॉर्ड हार्डिंग (I858-I927) से निवेदन किया कि ब्रिटेन को तुर्की के प्रति ऐसा रवैया अपनाना चाहिए जिससे उसे इस तरह की तटस्थता बनाए रखने में मदद मिल सके। 1914 तक मौलाना अब्दुल बारी, अली बंधु, ज़फ़र अली खान, हसरत मोहानी और आज़ाद, खिलाफत आंदोलन में अग्रणी प्रतिभागी थे। ये सभी पूर्ण रूप से अखिल-इस्लामवादी थे, लेकिन अभी तक ब्रिटिश-विरोधी नहीं थे।

मित्र राष्ट्रों का साथ देना मुश्किल हो तो युद्ध में तटस्थ रहने का परामर्श मुहम्मद अली ने भी तुर्की अधिकारियों को दिया था। अपनी नजरबंदी के दौरान संयुक्त प्रान्त के उपराज्यपाल मेस्टन और वाइसरॉय के साथ मुहम्मद अली का पत्राचार इस बात की पुष्टि करता है कि उन्होंने बहुत देर बाद ब्रिटिश-विरोध का रास्ता अपनाया था। इसलिए जब तक ब्रिटिश सीधे तौर पर तुर्की के विरुद्ध युद्ध में शामिल नहीं हुए थे, भारत में अखिल-इस्लामवाद ने स्पष्ट रूप से ब्रिटिश विरोधी अभिविन्यास नहीं लिया था। युद्ध के बाद ब्रिटिश, तुर्की की शक्ति और क्षेत्र को क्षति पहुंचाने लगे और खलीफा की शक्ति और प्रतिष्ठा को नुक्सान पहुंचाने लगे तभी भारत के अखिल-इस्लामवादियों ने घोषित रूप से ब्रिटिश विरोधी रुख ग्रहण कर लिया। मार्च 1922 में ओटोमन साम्राज्य को समाप्त करनेवाली सेव्र की संधि पर पुनर्विचार का सुझाव देने वाले भारत सरकार के एक ज्ञापन को प्रकाशित करने की अनुमति भारत सचिव मोंटेग्यू ने दी। इसके फलस्वरूप, मौलाना बारी और हसरत मोहानी ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन को रद्द करने का प्रस्ताव रखा। इससे स्पष्ट होता है कि तुर्की और खिलाफत का भविष्य ही वह अखिल-इस्लामवादी लक्ष्य था जो खिलाफत आंदोलन के केंद्र में था।

महान यू-टर्न

1917 की रूसी क्रांति और जर्मनी के साथ की गई अलग शांति संधि के बाद ओटोमन साम्राज्य के विघटन के उद्देश्य से मित्र राष्ट्रों द्वारा की जाने वाली की गुप्त संधियां उजागर होने लगीं। मुहम्मद अली के कॉमरेड और मौलाना आज़ाद के अल-हिलाल सहित भारत की अखिल-इस्लामी पत्र-पत्रिकाओं ने सुझाव दिया कि ब्रिटेन को यह घोषित करना चाहिए कि भले ही मित्र राष्ट्र तुर्की में जीत हासिल करने में सफल रहे हों, परन्तु युद्ध के बाद तुर्की की अखंडता बनी रहेगी। बरेलवी आंदोलन के प्रवर्तक अहमद रजा खान जैसे कुछ उलेमा द्वारा अंग्रेजों ने फ़तवा जारी करवाया की ब्रिटिश-विरोधी जिहाद मजहबी नहीं बल्कि राजनीतिक था। ब्रिटेन के पक्ष में रूस के प्रवेश ने भारतीय मुस्लिम जनमत को ब्रिटेन के विरुद्ध झुका दिया। रूस को तुर्की के एक वंशानुगत शत्रु के रूप में देखा जाता था। लखनऊ में मौलाना अब्दुल बारी, कलकत्ता में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, देवबंद में महमूद अल-हसन, दिल्ली में हकीम अजमल खान, डॉ अंसारी और अली बंधुओं ने खिलाफत की मदद के लिए अलग-अलग गतिविधियाँ शुरू कीं। खिलाफत आंदोलन का प्रारंभ वास्तव में नवंबर 1914 को माना जा सकता है, जब तुर्की ने ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध में प्रवेश किया।

महमूद अल-हसन, उबैदुल्ला सिंधी जैसे कुछ देवबंदी उलेमाओं ने तुर्की और अफगानिस्तान की सहायता से उत्तर पश्चिम सीमान्त के कबायलियों के सहयोग से भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया| यह रेशमी पत्र षड्यंत्र के नाम से जाना गया। यह षड्यंत्र मध्य एशिया, हेजाज और मेसोपोटामिया में दूतों और कूट पत्रों के माध्यम से फैल गया था। हेजाज़ में महमूद अल-हसन ने तुर्कों के साथ संपर्क स्थापित किया और हेजाज के तुर्क गवर्नर गालिब पाशा से अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद की घोषणा प्राप्त की, ताकि उसका प्रसारण भारत में किया जा सके| यह दस्तावेज, जिसे ‘ग़ालिब नामा’ के रूप में जाना जाता है, महमूद अल-हसन के एक विश्वसनीय अनुयायी द्वारा भारत में लाया और वितरित किया गया था। जिहादी प्रचार भारतीय सेना में भी प्रवेश कर गया जिसके फलस्वरूप बंबई, रावलपिंडी, फ्रांस और सिंगापुर में भी उपद्रव हुए। महमूद अल-हसन को अंग्रेजों ने माल्टा में नजरबंद कर दिया था। मौलाना आज़ाद को यू.पी. और पंजाब की सरकारों द्वारा बाहर निकाल दिया गया। मौलाना हसरत मोहानी को यू.पी. सरकार ने पहले नजरबन्द और बाद में कैद कर लिया।

1916 में ओटोमन साम्राज्य में हुआ अरब विद्रोह भारतीय मुस्लिम नेताओं के लिए एक आघात था क्योंकि इसने अखिल-इस्लामवाद की हवा निकाल दी। अतीत के स्वामी आत्म-भ्रम में बने रहे। उन्होंने अरब आकांक्षाओं को नजरअंदाज कर दिया और इसे ब्रिटिश साजिश करार दिया। 26 जून 1916 को, अखिल भारत मुस्लिम लीग की परिषद ने लखनऊ में बैठक की और शरीफ हुसैन के ‘अपमानजनक आचरण’ की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया जिसके अनुसार ‘इसने पवित्र स्थानों की सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है’। अब्दुल बारी ने हुसैन और उनके समर्थकों को इस्लाम का दुश्मन करार दिया। अजमल खान ने स्पष्ट रूप से वायसराय से कहा कि हुसैन की सहायता करने की ब्रिटिश नीति एक गंभीर चूक थी जिसका निवारण किया जाना चाहिए। 5 जनवरी 1918 को, ब्रिटिश प्रधान मंत्री लॉयड जॉर्ज ने अपने प्रसिद्ध युद्ध-लक्ष्य भाषण में स्पष्ट रूप से घोषणा की कि वे तुर्की को उसकी राजधानी या एशिया माइनर और थ्रेस की समृद्ध भूमि से वंचित करने के लिए नहीं लड़ रहे थे, जो मुख्य रूप से तुर्कों की ही है। भारत के मुस्लिमों ने इसे एक अटल प्रतिज्ञा के रूप में लिया और दृढ़ता से इससे चिपक गये।

युद्ध की समाप्ति

मित्र राष्ट्रों और तुर्की के बीच 30 अक्टूबर 1918 को मूदरोस (वर्तमान में ग्रीस में एक शहर) में एक युद्धविराम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। तुर्की के बिना शर्त आत्मसमर्पण के बाद 11 नवंबर को जर्मन संधिपत्र द्वारा प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ। गुप्त संधियों और अन्य युद्ध-कालीन व्यवस्थाओं ने मित्र राष्ट्रों को “तुर्कों के खूनी अत्याचार के अधीन आबादी को मुक्त करने और ओटोमन साम्राज्य, जो कि पश्चिमी सभ्यता के लिए विदेशी माना जाता था, के यूरोप से बाहर निकलने” की नीति अपनाने के लिए प्रतिबद्ध किया था। इन संधियों के अनुसार मित्र राष्ट्रों ने तुर्की को न केवल कांस्टेंटिनोपल बल्कि उसकी सारी यूरोपीय भूमि से और मेसोपोटेमिया, फिलिस्तीन, अरब और सीरिया जैसे उसके पूर्वी क्षेत्र से भी उसे वंचित करना चाहा। तुर्की के अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समुद्र-मार्ग छीन लिए जाने से उसके पास व्यवहार में कुछ नहीं बचा। तुर्की को अपनी सम्प्रभुता छोड़ने पर विवश किया जाना था। ओटोमन साम्राज्य के इन खंडहरों से 1923 में सेक्युलर तुर्की गणराज्य का उदय हुआ। तुर्की गणराज्य के नेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने खिलाफत का अंत कर अखिल-इस्लामवाद के मिथक को निर्मूल कर दिया।

(लेखक ने इस्लाम, ईसाइयत, समकालीन बौद्ध-मुस्लिम संबंध, शुद्धी आंदोलन और धार्मिक जनसांख्यिकी पर पुस्तकें लिखी हैं)