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World Heritage Day: विरासत की धनी दिल्ली, कदम-कदम पर हैं ऐतिहासिक धरोहर

दिल्ली की दरओ-दीवारें...जर्राजर्रा...गली-मुहल्ला... रिश्ते-परंपरा...खाना- गाना संगीत घराना... कला-संस्कृति- बोली-ठिठोली...सब तो विरासत है...इसी धरोहर से तो दिल्ली का शृंगार हुआ।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 18 Apr 2020 12:41 PM (IST)Updated: Sat, 18 Apr 2020 12:50 PM (IST)
World Heritage Day: विरासत की धनी दिल्ली, कदम-कदम पर हैं ऐतिहासिक धरोहर
World Heritage Day: विरासत की धनी दिल्ली, कदम-कदम पर हैं ऐतिहासिक धरोहर

नई दिल्ली, संजीव कुमार मिश्र। World Heritage Day 2020: दिल्ली, उजड़ने पर भी नहीं घबराई...शासकों के बदलाव होते गए, सभी को अपने र्आंलगन में बसा विरासतों को बढ़ाती गई। सात बार उजड़ी, फिर भी डटी रही। और फिर इतिहास में एक विरासत ले, नए सफर पर चल पड़ी। वो विरासत... जिसके हम सफर कभी पांडव बने और राजपूतों से लेकर खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, मुगल आदि बने। सफर...जिसके साक्षी बने निगमबोध घाट वेदों का अथाह ज्ञान दोबारा प्राप्त करने वाले ब्रह्मा जी। इस शहर ने नादिरशाह का आतंक भी देखा और ब्रितानिया हुकूमत की बर्बरता भी।

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लेकिन विरासतों की धनी दिल्ली कभी थमी नहीं। यह वो ही शहर है जिसने कोहिनूर की चमक भी देखी। ऐतिहासिक इमारतों वाले इस शहर की दरो दीवारें कहानियां सुनाती है। चौक चौराहे, गलियों के नाम के पीछे दिलचस्प कहानियां हैं। यहीं नहीं बाग बगीचे भी घनी पेड़ों की छांव में इतिहास की कहानियां सुनाते हैं। यही दिल्ली है जहां से सूफी संगीत ने दुनिया को सुकून दिया। यहां के खाने की मिसाल तो पूरी दुनिया देती है। मुगलई जायका पूरी दुनियाभर में मशहूर है।

बदलता गया स्वाद बढ़ती गई खान-पान की विरासत : सबसे पहले बात दिल्ली के खाने की करेंगे, दिल का रास्ता पेट से होकर ही तो जाता है। वैसे भी दिल्ली के बारे में एक कहावत रही है। दिल्ली की बेटी, हिसार की गाय, करम फूटे से बाहर जाए। अब कर्म फूटने की आशंका और कारणों में से दिल्ली शहर का खान पान भी महत्वपूर्ण पहलू था। दिल्ली के मूल निवासी जितने चटोरेपन के लिए मशहूर थे उतनी ही दिल्ली उन खाद्य पदार्थ की विविधता के लिए। दिल्ली के कायस्थ घरों में बड़ा लाजवाब खाना बनता था। और कभी हर त्योहार उत्सव, शादी विवाह में सन्नाटा यानी तीखा बूंदी वाला रायता और पूड़ी-आलू की तरकारी के साथ सीताफल खाने वाली दिल्ली न जाने कब पंजाबीयत के साथ राजमा-चावल खाना सीख गई। जहां तक किताबों में लिखा है यह सब दिल्ली के संस्कारों में विभाजन के बाद आया पंजाबियों से मिला और फिर दिल्ली का ही खाना बन गया।

निर्मला जैन अपनी किताब ‘दिल्ली शहर दर शहर’ में लिखती हैं कि दिल्ली में कुछ जातियों को छोड़कर बहुसंख्या शाकाहारी जनता की ही थी। इसलिए अधिक घालमेल उन्हीं व्यंजनों में हुआ। मांसाहारी समुदायों में प्रमुखता मुस्लिम और कायस्थ परिवारों की थी। विभाजन के बाद सिख और पंजाब से आने वाले दूसरे समुदायों के लोग भी बड़ी संख्या में इनमें शामिल हुए। ‘दिल्ली जो एक शहर है’ में महेश्वर दयाल लिखते हैं कि दिल्ली के माथुर कायस्थों के यहां गोश्त की एक किस्म बड़ी स्वादिष्ट बनती थी जिसे शबदेग कहा जाता था। गोश्त को कई सब्जियों के साथ मिलाकर उसके अंदर विभिन्न मसाले डालकर बनाया जाता था।

कायस्थों के घरों में अरहर, उड़द और मसूर की दाल भी बहुत उम्दा बनती थी। अरहर और उड़द दाल धुली मिली मिलाकर बनाते थे। इससे पहले दिल्ली में मुगलई जायका भी इसकी विरासत रहा है। जो कि पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों में खास दिखाई पड़ता है। करीम, कल्लू निहारीवाला, असलम चिकन कार्नर, रहमतुल्लाह, अलजवाहर की दुकानों पर थाली में मुगलिया जायका...ये सब वो हैं जो दिल्ली के मुगलई जायके की विरासत हैं। मुगल बादशाहों के किचन से निकल पुरानी दिल्ली की गलियों में जायकों के पहुंचने की कहानी जितनी दिलचस्प है उतनी है लजीज भी। करीम होटल संचालकों की मानें तो उनके पूर्वज अकबर, जहांगीर और बहादुरशाह जफर के शाही खानसामों में से एक थे। मुगलों को उनके पूर्वजों का खाना इतना पसंद था कि मुगल जहां जाते अपने शाही खानसामों को साथ लेकर जाते थे। परेशानी के दिनों में भी उन्होंने अपने बच्चों को मुगल काल की खास रेसिपी बनाना सिखाने में कोई कमी नहीं की। उन्होंने अपने बच्चों को कहा कि यही उनकी विरासत है, जो उन्हें सीखनी चाहिए। शायद यही कारण है कि करीम आज भी मुगल काल की रेसिपी के आधार पर ही खाना बनाते हैं।

इतिहासकार आर नाथ कहते हैं कि मुगल बादशाहों का किचन हकीमों द्वारा तय होता था। बादशाह, फूड टेस्टर द्वारा खाना चखने के बाद ही खाते थे। मुगलों के खाने पर शोधपरक जानकारी देने वाली सलमा हुसैन की ‘अलवन-ए-नीमत’ किताब में मुगल किचन की 100 रेसिपी मौजूद हैं। लिखती हैं कि मुगलों ने कला, संस्कृति के अलावा जायके की समृद्ध विरासत भी दी। एक दौर था सोने और चांदी की प्लेट में खाना परोसा जाता था और मुगल किचन में बारिश के एकत्र पानी और गंगा, यमुना जल के मिश्रण से खाना बनाया जाता था। हर तबले पर दिल्ली घराने की छाप जि़हाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफुल, दुराये नैना बनाये बतियां । कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान, न लेहो काहे लगाये छतियां... शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़ वा रोज-ए- वस्लत चो उम्र कोताह, सखि पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां...।

अमीर खुसरो की फारसी हिंदवी मिश्रित यह रचना संगीत प्रेमियों के जुबान पर आज भी राज करती है। अमीर खुसरो जिन्होंने ना केवल प्रेम बल्कि अध्यात्म को शब्दों की माला में गूंथकर कुछ यूं पेश किया कि सुनने वाला बिन गुनगुनाए रह नहीं पाया। दिल्ली के इतिहास में नगीना अमीर खुसरो की यह रचनाएं संगीत प्रेमियों के लिए मोती हैं। अब बात करते हैं दिल्ली घराने की जो दिल्ली की सांगीतिक विरासत रही। घराना 800 साल से भी अधिक पुराना है। इस घराने के शागिर्द फकीर से लेकर बादशाह तक थे। इसकी संस्थापना निजामुद्दीन औलिया के शिष्य सूफी संत हजरत अमीर खुसरो द्वारा बताई जाती है।

खलीफा और मशहूर शास्त्रीय गायक उस्ताद इकबाल अहमद खान कहते हैं कि घराने के मियां अचपल खान आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के गुरु थे। उनका कोई वारिस न होने के कारण इस परंपरा को शिष्यों और परिवार के लोगों ने आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा, उस्ताद चांद खान साहब का मैं नवासा हूं। 1980 में उनके निधन के बाद फरवरी 1981 में मुझे इस घराने का खलीफा बनाया गया। तबला अमीर खुसरो की इजाद है, इसलिए दुनिया में कहीं भी कोई तबला बजाता है तो उसमें दिल्ली घराने की छाप दिखती है। अब हमारे घराने में गजल गायकी भी मौजूद है। यहां कई तरह से ख्याल गाए जाते हैं।

दिल्ली की बोली और ठिठोली : अब बात करेंगे दिल्ली की जुबान की...जिसे कोई बहुत बेबाक बताता है, तो किसी को रूखापन भी झलकता है। लेकिन हम जरा इसकी भाषाई विरासत में जाएं तो बड़ी तहजीब वाली भाषा यानी उर्दू रही है। बकौल इतिहासकार सोहेल हाशमी बहुत ज्यादा समय नहीं गुजरा जब दिल्ली में आम बोलचाल की भाषा उर्दू थी। उर्दू, जिसे हिन्दवी, जबान-ए-देहली, देहलवी, दक्कनी, रेख्ता भी कहा जाता है, दिल्ली में रहने वाले सभी लोगों की भाषा यही होती थी। उर्दू का जन्म दिल्ली में हुआ और फारसी, तुर्की, दारी और पश्तो बोलने वाले लोगों का ब्रज, मेवाती, हरियाणवी, पंजाबी, रोहेलखंडी, बुंदेलखंडी, मालवी और अन्य देशी भाषाओं के वक्ताओं के साथ संवाद के साथ विकसित होती गई। बातचीत ज्यादातर बाजारों में, मंदिरों में और राजाओं द्वारा स्थापित उन जगहों पर जहां शाही मेहमानों के लिए उपहार आदि तैयार होते थे, जैसी जगहों पर हुई होगी।

भाषा का यह अंतसर्बंध तो युद्ध के मैदानों में भी हुआ होगा। जहां मुमकिन है कि सैनिक तो स्वदेशी भाषा बोल रहे होंगे जबकि वरिष्ठ नई आगमन वाली भाषा। कहा तो यह जाता है कि ये ही वो जगह हैं जहां इस भाषा का जन्म हुआ। यहां से यह भाषा बादशाहों के अधिकारियों, पदाधिकारियों को देश के विभिन्न हिस्से में भेजने पर उनके साथ गई। प्रशासकों के साथ एक अनुचर भेजा गया जो दिल्ली की भाषा जानता था। 18 वीं शताब्दी की शुरुआत में, दक्कनी दोबारा दिल्ली की तरफ लौटी और रेख्ता के रूप में विकसित हुई। जबकि हिंदी को गद्य की भाषा के रूप में जाना जाता है। वर्तमान की बात करें तो हिंदी एवं उर्दू बहुतायत बोली जाती है।

कदम-कदम पर हैं ऐतिहासिक धरोहर : आज भले दिल्ली की ऐतिहासिक धरोहर एकांतवास में गई हुई लगती हैं लेकिन हमेशा ही गुलजार रहती थीं। गर्मी, बरसात, जाड़ा हर मौसम यहां पर्यटकों की भीड़ उमड़ी रही। कुतुब मीनार, अनियमित अष्टभुजाकार आकार में बना लाल किला, जामा मस्जिद, महरौली आर्कियोलॉजिकल पार्क, हौज खास, सफदरजंग का मकबरा, लोधी गार्डन, हुमायूं का मकबरा, इंडिया गेट, कनॉट प्लेस और चांदनी चौक...ऐसी ही विरासत की धनी दिल्ली को दिल्ली सरकार विश्व धरोहर शहरों की सूची में शामिल कराने की भी कोशिश में लगी है। इस दिशा में इंटेक की दिल्ली के मुख्यमंत्री एवं उपमुख्यमंत्री से भी मुलाकात हुई थी। यदि सहमति बनती है तो फिर दिल्ली के ऐतिहासिक स्मारकों, इमारतों, स्थलों का हवाला देकर इनकी ऐतिहासिकता से यूनेस्को को अवगत कराते हुए विश्व विरासत शहर का तमगा देने की पुरजोर कोशिश भी की जाएगी।


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