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जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर राजद्रोह के साथ आतंकवाद फैलाने का लगा था आरोप

रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में ठीक ही लिखा है कि ‘हिदू जाति इस बात के लिए लोकमान्य की चिर ऋणी रहेगी कि निवृत्ति का आलस्य छुड़ाकर उन्होंने उसे प्रवृत्ति के पथ पर लगा दिया।’

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Mon, 02 Aug 2021 03:33 PM (IST)Updated: Mon, 02 Aug 2021 03:33 PM (IST)
जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर राजद्रोह के साथ आतंकवाद फैलाने का लगा था आरोप
डा.मुरलीधर चांदनीवाला बता रहे हैं कि कैसे ‘गीता रहस्य’ स्वतंत्रता संग्राम में बनी कर्मयोग का संदेश..

डा.मुरलीधर चांदनीवाला। इसमें कोई संदेह नहीं कि गीता भारतीय धर्म और संस्कृति का ऐसा उज्ज्वल ग्रंथ है, जो समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन करता आया है। शंकराचार्य को गीता में संन्यास योग दिखाई दिया, तो मध्यकाल की संत परंपरा को भक्तियोग। यह गीता की विशेषता है कि वह समय के साथ चलती है। वह अपने उद्भव से लेकर अब तक अलग-अलग रूपों में सामने आती रही।

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गीता अपना काम कैसे करती है, यह देखना हो तो इतिहास के उस दौर में जाइए, जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर राजद्रोह के साथ आतंकवाद फैलाने का आरोप लगा और उन्हें छह वर्ष के कारावास की सजा देकर मांडले जेल भेज दिया गया। वे वहां 1908 से 1914 तक रहे। अपने ही देश से इतनी लंबी अवधि का निर्वासन कितना त्रसद रहा होगा, तिलक ने यह तो जगजाहिर नहीं होने दिया, लेकिन हमें वह ‘गीता रहस्य’ दिया, जो उन्हें जेल की चहारदीवारी में खुद से युद्ध करते हुए मिला था। जिस तरह भगवान कृष्ण का जन्म कारावास में हुआ, उसी तरह मांडले जेल में भगवान की गाई हुई गीता का नया जन्म हुआ।

तिलक ‘गीता रहस्य’ की प्रस्तावना में लिखते हैं कि लगभग 850 मुद्रित पृष्ठों वाला यह ग्रंथ उन्होंने वर्ष 1910-11 में पेंसिल से लिखा था, जिसमें कई बार काट-छांट होती रही। मूलत: मराठी में लिखे हुए ‘गीता रहस्य’ की प्रथम पांडुलिपि उनके विद्वान मित्रों ने बहुत परिश्रम से तैयार की। मूल ग्रंथ प्रकाशित होने के दो साल बाद ही माधवराव सप्रे का प्रामाणिक हंिदूी अनुवाद तिलक की देखरेख में प्रकाशित हुआ। आज बाजार में यह सर्वत्र उपलब्ध है।

‘श्रीमद्भगवद्गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र’ नाम का यह ग्रंथ अपने युग का संपूर्ण शास्त्र है, जिसमें आने वाले कई युगों की जिज्ञासाओं का समाधान है। तिलक ने बर्मा (अब म्यांमार) के मांडले जेल में बैठकर वह पूरी थैली उलट दी, जो उपनिषद्काल से लेकर अब तक निवृत्ति, संन्यास और मोक्ष से भरती चली गई थी। तिलक ने नया सूरज उगाया। यह सूरज भारत में नया सवेरा लाने के लिए था। यह सब कुछ शुरू से शुरू करने के लिए वह प्रज्ज्वलित आग थी, जिसमें धर्म की पुरानी मान्यताएं जलकर राख हो गईं और पुरानी रूढ़ियों को विदा लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। यह बहुत साहस का काम था। एक तरह से तिलक ने अकेले ही उस दर्शन को चुनौती दी, जिसमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य और संत ज्ञानेश्वर सहित ज्ञानमार्गियों की समृद्ध परंपरा थी। तिलक के ‘गीता रहस्य’ का जबर्दस्त प्रभाव उस दौर के अमर-सेनानी और उनके अनुयायियों पर बहुत तेजी से हुआ। एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि गीता जैसी पुस्तक में बड़े से बड़े साम्राज्य को हिला देने की अद्भुत क्षमता है।

सच पूछा जाए, तो यज्ञ संस्था को नष्ट-भ्रष्ट कर वेदों का विरोध करने वाले मतों-पंथों का सामना करने के लिए शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का लोहा ही काम आया था। वह विरोध की ईंट का जवाब विचारों के पत्थर से था। शंकर का अद्वैत भारतीय जनमानस को संन्यास के जंगल में छोड़ तो आया, लेकिन सनातन के मूल्य को साधने का मंत्र भी थमा आया। उसी मंत्र ने मुगल साम्राज्य की कट्टर घेराबंदी के बीच कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, रसखान जैसे संत कवियों की ऐसी श्रृंखला बना दी, जिसे आज तक कोई तोड़ नहीं पाया। हालांकि ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचारों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए हमें कर्मयोग चाहिए था। ऐसा कर्मयोग, जिसमें विवेकानंद जैसा उत्साह हो, श्री अरविंद जैसी आग हो, भगत सिंह जैसा बलिदान हो, सुभाष चंद्र बोस जैसा साहस हो।

किसी पराक्रमी विद्वान, राजनेता या विचारक के लिए लोकप्रिय होना तो सहज है, लेकिन लोकमान्य होना तो केवल बाल गंगाधर तिलक के बस की बात थी। ऐसा नहीं है कि वे ‘गीता-रहस्य’ के कारण लोकमान्य कहलाए। इसलिए भी नहीं कि वे वीर शिवाजी के बाद पहले सेनानी थे, जिसने स्वराज्य को अपना जन्मसिद्ध अधिकार बताया, अपितु इसलिए कि उन्होंने लोक-जागरण का पक्का संकल्प लिया था, वे लोक-संस्कृति को उसके उच्चतम शिखर पर देखना चाहते थे। वे चाहते थे कि भारत के लोग एक बार सनातन धर्म के दर्पण में अपना दमकता हुआ चेहरा देख लें। इसके लिए उन्होंने किसी प्रतापी राजा की तरह ललकारते हुए लोगों को उठाया और अंग्रेजों की छाती पर चढ़ जाने का आदेश दिया। इसमें दो मत नहीं कि इस काम में वह गीता ही सहायक हुई, जो कर्मयोग का नया संदेश लेकर आई थी।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गीता को गांधी जी के हथियार की तरह दिखाया जाता है, लेकिन गीता और गांधी जी के बीच एक झीना सा पर्दा हमेशा टंगा रहा। यह पर्दा लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी के बीच भी है। तिलक सब पर्दे गिराना चाहते थे। वे अपना हृदय सब दिशाओं में खोल देने की ताकत रखते थे। वे भारतीय जनमानस का समग्र रूपांतर चाहते थे। गांधी जी के उदय से बहुत पहले वे स्वतंत्रता की नींव रख चुके थे। वे ही सेनापति थे। उनका ‘गीता रहस्य’ स्वतंत्रता संग्राम का पाञ्चजन्य समझा गया। जिसे जब और जहां गीता का रहस्य मिला, उसने एक-एक सूत्र को अमृत की तरह ग्रहण किया।

हमें ध्यान रखना होगा कि भारत की स्वाधीनता उस कर्मयोग की सिद्धि है, जो लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की एकांत-साधना के बाद बीसवीं सदी के साथ ही जाग उठी थी। तिलक ने पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा को जो पत्र लिखे, उन्हें पढ़कर कोई भी इस नतीजे पर पहुंच सकता है कि लाला लाजपत राय के नेतृत्व में वीर सेनानियों की जो बृहत् श्रृंखला आगे आई और राष्ट्रीय जागरण का अध्याय जुड़ा, वह कर्मयोगशास्त्र की ही फलश्रुति थी। रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में ठीक ही लिखा है कि ‘हिदू जाति इस बात के लिए लोकमान्य की चिर ऋणी रहेगी कि निवृत्ति का आलस्य छुड़ाकर उन्होंने उसे प्रवृत्ति के पथ पर लगा दिया।’

(लेखक भारतीय संस्कृति के अध्येता हैं)


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