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DU के पूर्व प्राचार्य ने साझा की पुरानी यादें, 'जब दो रुपये गज मिलती थी ग्रेटर कैलाश में जमीन'

दिल्ली विवि के दीन दयाल उपाध्याय कालेज के सेवानिवृत प्राचार्य डा. सुरेश कुमार गर्ग ने बताया कि बीसवीं सदी के छठे दशक में दिल्ली उन दिनों ग्रेटर कैलाश में दो रुपये गज जमीन मिल रही थी। बाद में डीडीए एस्टेट महंगा हुआ।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 10 Sep 2021 04:32 PM (IST)Updated: Fri, 10 Sep 2021 04:32 PM (IST)
DU के पूर्व प्राचार्य ने साझा की पुरानी यादें, 'जब दो रुपये गज मिलती थी ग्रेटर कैलाश में जमीन'
बस की सेवा तो नाम मात्र की होती थी।

पूर्वी दिल्ली, रितु राणा। 1953 में हरियाणा में जन्मे डा. सुरेश कुमार गर्ग ने दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कालेज से बीएससी केमिस्ट्री आनर्स व हिंदू कालेज से एमएससी की पढ़ाई की। 1977 से 1998 तक राजधानी में लेक्चरार के तौर पर पढ़ाया। इसके बाद 1998 में दिल्ली विवि के दीन दयाल उपाध्याय कालेज में प्राचार्य का पदभार संभाला। 41 वर्ष नौकरी करने के बाद 2018 में सेवानिवृत हुए।

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मैं 1957 में दिल्ली आया था। हालांकि उस समय बहुत छोटा था, लेकिन मुझे ठीक-ठीक से याद है उस दौर में विविध संस्कृति के लोग बड़े प्रेम भाव से मिलजुल कर रहते थे। नई दिल्ली में आकर किसी आधुनिक और बड़े ही नियोजित ढंग से बसे शहर में होने की अनुभूति होती थी, जबकि पुरानी दिल्ली किसी ऐतिहासिक शहर में होने का एहसास कराती थी। उन दिनों दिल्ली वाल सिटी के अंदर यानी पुरानी दिल्ली में ही सीमित थी। उसके बाहर तो केवल यमुना, खेत-खलिहान और जंगल ही थे। चांदनी चौक में मेरे दादा जी की दुकान थी और हम तेलीवाड़ा में रहते थे। तेलीवाड़ा के पास एक मशहूर कुर्सियां बाग था। पिता जी रोजाना हमें वहां सैर पर ले जाते थे। उस पार्क में बहुत हरियाली थी, क्योंकि वह यमुना के किनारे ही था।

साउथ दिल्ली का तो नाम भी नहीं था : बीसवीं सदी के छठे दशक में दिल्ली केवल वाल सिटी के अंदर ही सिमटी हुई थी। तब साउथ दिल्ली का नाम भी नहीं था। उन दिनों ग्रेटर कैलाश में दो रुपये गज जमीन मिल रही थी। बाद में डीडीए एस्टेट महंगा हुआ और माडल टाउन बसना शुरू हुआ। हम तेलीवाड़े से तिमारपुर जाते थे तो रास्ते में सारा रिज इलाका पड़ता था। चारों ओर जंगल ही जंगल थे। सिविल लाइंस, विधानसभा, माल रोड सब जंगल था। उस समय दिल्ली छह के बाहर जो नई कालोनियां बसनी शुरू हुईं उनमें कमला नगर, शक्ति नगर, गुलाबी बाग इलाका था। यमुनापार में केवल शाहदरा इलाका था।

दो रुपये में घूम लेते थे दिल्ली : उस समय दिल्ली में खाकी रंग की ट्राम चलती थी। लोग उसी में आना जाना करते थे। दो पैसे किराया होता था। ट्राम काफी धीमी गति में बिजली से चलती थी। लाल किले से फतेहपुरी, खारी बावली, सदर बाजार जाती थी। तब ट्राम और तांगा पर ही वाल सिटी के लोग निर्भर थे। बस की सेवा तो नाम मात्र की होती थी।

पार्कों में बनाए गए थे डब्ल्यू आकार के बंकर : 1962 में जब चीन से युद्ध हुआ तब दिल्ली के लोग काफी डरे सहमे से रहते थे। क्योंकि दिल्ली राजधानी थी इसलिए यहां बमबारी का खतरा अधिक रहता था। रात होते ही कोई बाहर नहीं निकलता था। सड़कों पर भी घुप अंधेरा होता था। लोग घर की खिड़कियों पर भी काले कागज चिपका देते थे ताकि कहीं से भी रोशनी न आ सके। युवा गली मोहल्ले में घूम-घूम कर यह सुनिश्चित करते थे कि सभी जगह लाइटें बंद हैं या नहीं। पार्कों में डब्ल्यू आकार में बंकर बनाए गए थे ताकि अगर कभी चीन के हवाई जहाज आ जाएं तो सायरन बजते ही सभी लोगों उस बंकर में छुप सकें। हालांकि ऐसी स्थिति नहीं आई, पर बच्चों ने उन बंकरों का खूब फायदा उठाया। हम उनमें छिपकर खेलते थे।

मनोरंजन का साधन होती थीं झांकियां : उन दिनों गणतंत्र दिवस परेड राजपथ से शुरू होकर इंडिया गेट और दिल्ली गेट होते हुए वाल सिटी में आती थी और फिर चांदनी चौक होते हुए लाल किले जाती थी। उस परेड को देखने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी। हर राज्य की पारंपरिक झांकी, उसमें उस राज्य के लोकनृत्य, खानपान, पहनावा, खेती आदि की झांकियां होती थीं। शारदीय नवरात्र में वाल सिटी से लाल किले और रामलीला मैदान तक रामलीला की झाकियां निकलती थीं। तब यही हमारे मनोरंजन का साधन होता था।


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