अंग्रेज लेते थे चूल्हा टैक्स, आजादी के बाद भी भारत के इस इलाके में होता था जमा
केपी सिंह कहते हैं उस समय लोग एक आना प्रति चूल्हा बतौर टैक्स देते थे। इस वजह से इसका नाम चूल्हा टैक्स पड़ गया। 1984 तक गांव के लोग इस टैक्स को जमा करते थे। कुछ लोगों ने आज भी चूल्हा टैक्स की रसीद अपने पास रखी हुई है।
पूर्व दिल्ली, रितु राणा। गांव का नाम सुनते ही जेहन में खेत-खलिहान, हरे भरे पेड़-पौधे, पोखर-तालाब की तस्वीर उभरती है। लेकिन दिल्ली का एक गांव ऐसा भी है जो आधुनिक संसाधनों से संपन्न है। चंद कदमों की दूरी पर मेट्रो की सुविधा है तो रेलवे स्टेशन भी है। स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए बेहतर संसाधन वाले अस्पताल भी हैं। हम बात कर रहे हैं 130 वर्ष पहले बसे खेड़ा गांव की। गांव के मूल निवासी और समाजसेवी अवधेश कुमार कहते हैं कि यह गांव ऊंचे टीले पर बसा है। पहले यहां जंगल हुआ करता था। इसलिए इसका नाम खेड़ा पड़ा। उत्तर प्रदेश से नौकरी की तलाश में लोग ट्रेन से दिल्ली आते थे। यह जगह रेलवे स्टेशन से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित थी इसलिए लोग यहीं झोपड़ी बनाकर बसने लगे।
आधुनिकता के बीच परंपरा का निर्वाह: छत्रपाल सिंह 1968 में नौकरी की तलाश में बुलंदशहर से यहां आकर बसे थे। यह गांव अपने आप में बेहद खास है, क्योंकि जितनी तेजी से इस गांव का विकास हुआ, उतना दिल्ली के किसी गांव का नहीं हुआ। मानसरोवर पार्क मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियां गांव के बाहर ही उतरती हैं। गुरुतेग बहादुर अस्पताल, राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी अस्पताल, दिल्ली राज्य कैंसर संस्था व स्वामी दयानंद जैसे अस्पताल चंद कदमों की दूरी पर है। दिल्ली विश्वविद्यालय का श्याम लाल कालेज भी कुछ दूरी पर ही है। इन तमाम सुविधाओं के बीच गांव आज भी अपनी परंपराओं का दामन थामे हुए है। तभी तो होलिका दहन हो या अन्य त्योहार गांव के लोग मिलजुल कर उत्सव मनाते हैं।
अंग्रेजों को देते थे चूल्हा टैक्स: वैसे तो आपने बहुत सारे टैक्स के बारे में सुना होगा, पर चूल्हा टैक्स के बारे में शायद ही जानते हों। जी हां, गांव के लोग ब्रिटिश काल में चूल्हा टैक्स भी देते थे। कुछ लोगों ने आज भी चूल्हा टैक्स की रसीद अपने पास रखी हुई है। केपी सिंह कहते हैं उस समय लोग एक आना प्रति चूल्हा बतौर टैक्स देते थे। इस वजह से इसका नाम चूल्हा टैक्स पड़ गया। 1984 तक गांव के लोग इस टैक्स को जमा करते थे।
यहीं हुआ था दिल्ली का पहला निगम चुनाव: ग्रामीणों की मानें तो दिल्ली का पहला निगम चुनाव इसी गांव में हुआ था। और 1974 में पंडित परमेश्वरी दास दिल्ली के सबसे पहले निगम पार्षद बने। गांव की एक और खासियत है। यहां के ज्यादातर घरों में लोग सरकारी नौकरी में हैं। गांव में प्रवेश करते ही एक कोने पर चौपाल है, जहां लोग किसी भी मसले का समाधान करते हैं। चौपाल बनने की कहानी भी दिलचस्प है। आरडब्ल्यूए सुभाष चौहान कहते हैं 20 वर्ष पहले गांव में असामाजिक तत्वों की सक्रियता बढ़ गई थी। गांव के लोगों ने अपनी संस्कृति को बचाए रखने के लिए यहां पेड़, पौधे व भगवान की मूर्ति स्थापित करके चौपाल बना दी।
वाल्मीकी समाज ने बसाया गांव: ग्रामीण गजेंद्र सिंह की मानें तो गांव में अधिकतर आबादी वाल्मीकि समाज की है। इसके अलावा यहां जाटव, लोहार समाज के लोग भी रहते हैं। पढ़ने व नौकरी करने की चाह में अलीगढ़, बड़ौत, मेरठ, आगरा, मथुरा और बुलंदशहर से आए वाल्मीकि समाज के लोगों ने खेड़ा गांव को बसाया। गांव के लोग खूब पढ़े लिखे हैं। यहां एक 100 वर्ष पुराना वाल्मीकि मंदिर भी है, जिसकी बहुत मान्यता है।