दिल्ली-एनसीआर में अलग-अलग है प्रदूषण के हाट स्पाट कारक, निगरानी और रोकथाम के उपायों में खासा अंतर, नतीजा सामने
दिल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण की निगरानी से लेकर इसकी रोकथाम तक के उपायों में खासा अंतर देखने को मिलता है। दिल्ली में जहां 600 वर्ग किमी के दायरे में 40 एयर क्वालिटी मानिटरिंग स्टेशन हैं जबकि एनसीआर क्षेत्र में यह काफी कम है।
नई दिल्ली [संजीव गुप्ता]। एनसीआर में वायु प्रदूषण की स्थिति को किसी भी स्वरूप में दिल्ली से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता। यह आपस में इंटरलिंक्ड है। यह बात अलग है कि दिल्ली के हाट स्पाट पर प्रदूषण के कारण अलग हैं, जबकि एनसीआर के हाट स्पाट पर अलग। 50 से 65 प्रतिशत प्रदूषण की वजह स्थानीय कारक हैं और 30 से 35 प्रतिशत की वजह बाहरी कारक। अगर ऐसा न हो तो मौजूदा समय में जब पराली नहीं जल रही है और न कहीं धूल भरी आंधी चल रही है। वायुमंडल में नमी के कारण सब धूल, धुंध कण बैठे हुए हैं। फिर भी दिल्ली एनसीआर की वायु गुणवत्ता खराब से बहुत खराब श्रेणी में बनी हुई है।
यह बिल्कुल सही है कि दिल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण की निगरानी से लेकर इसकी रोकथाम तक के उपायों में खासा अंतर देखने को मिलता है। दिल्ली में जहां 600 वर्ग किमी के दायरे में 40 एयर क्वालिटी मानिटरिंग स्टेशन हैं, जबकि एनसीआर क्षेत्र में यह काफी कम है। इसी तरह दिल्ली में प्रदूषण के स्नेत पता लगाने के लिए कई अध्ययन हुए हैं, लेकिन एनसीआर में ऐसा कोई अध्ययन देखने को नहीं मिलता।
इस तथ्य को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ सालों में दिल्ली का प्रदूषण पहले की तुलना में कम हुआ है, जबकि एनसीआर का बढ़ा है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि सरकारी स्तर पर अभी दिल्ली-एनसीआर को एक मानकर नहीं देखा जा रहा। दोनों के लिए कोई संयुक्त कार्ययोजना भी आज तक नहीं बन पाई है। दिल्ली की तरह एनसीआर में भी दीर्घकालिक उपायों को गति देनी चाहिए। निगरानी बढ़ानी चाहिए। जन जागरूकता के साथ-साथ सख्त रवैया भी अपनाना चाहिए।
कार्रवाई नहीं होती, तो पैट्रोलिंग का क्या फायदा
गंभीरता से विचार किया जाए तो रीजनल ट्रांसपोर्ट भी राजधानी के प्रदूषण में एक अहम रोल अदा करता है। मसलन, दिल्ली में सार्वजनिक वाहन सिर्फ सीएनजी से ही चल सकते हैं, लेकिन दूसरे राज्यों के डीजल वाहन भी यहां धड़ल्ले से दौड़ते रहते हैं। ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) के पालन में सख्ती का अभाव भी हमेशा से खटकता रहा है। सख्ती नहीं होने के कारण ही विभिन्न राज्यों में सामंजस्य नहीं रहता। नतीजा, हर साल वही हालात बनते रहते हैं।
विडंबना यह है कि सीपीसीबी की पैट्रोलिंग टीमें विभिन्न इलाकों का दौरा कर जो रिपोर्ट तैयार करती हैं और कार्रवाई के लिए प्रदूषण बोर्ड को भेज दी जाती है। उन पर आगे कुछ काम ही नहीं होता। मसलन, दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इस रिपोर्ट को नगर निगमों के पास अग्रसारित कर देता है, जबकि नगर निगम की ओर से न उस पर कार्रवाई होती है, न ही वापस जवाब भेजा जाता है।
मौसम पर नहीं किसी का जोर
विचारणीय पहलू यह भी है कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के स्नेत एक नहीं, बल्कि अनेक हैं। अब देखिए, दिल्ली का अपना ही प्रदूषण बहुत है। दिल्ली सरकार इससे निपटने के लिए यथासंभव प्रयास कर भी रही है, लेकिन पड़ोसी राज्यों से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में होने वाले प्रदूषण का क्या किया जाए! इससे भी व्यापक स्तर की समस्या है मौसम का मिजाज। यहां का प्रदूषण बढ़ने-घटने में मौसम का बहुत बड़ा रोल रहता है।
हवा तेज चलती है और बारिश हो जाती है तो पीक सीजन में भी प्रदूषण थम जाता है। जैसे अबकी बार अक्टूबर माह पिछले सात सालों का सबसे साफ हवा वाला रहा है। लेकिन हवा की दिशा यदि उत्तर पश्चिमी हो जाए और उसकी गति भी मंद पड़ जाए तो फिर प्रदूषण तेजी से बढ़ने लगता है। चिंता की बात यह कि मौसम पर किसी का जोर नहीं चल सकता।